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समाज ने महिलाओं को संस्कृति की चारदीवारी में महज़ एक भोग की वस्तु माना है

समाज ने महिलाओं को संस्कृति की चारदीवारी में महज़ एक भोग की वस्तु माना है

विश्व की आधी आबादी और समाज में संतुलन कायम रखने वाली, शांत रह कर सबकी बात सुनने वाली एवं पुरुष को जन्म देने वाली स्त्री को पुरुषवादी सोच ने समाज की चारदीवारी में सदियों से लॉकडाउन किया है, जिसकी जड़ें काफी पुरानी हैं।

आज जब विश्व के 118  देश कोरोना वायरस की चपेट में आ चुके हैं और प्रत्येक व्यक्ति इससे संक्रमित होने से स्वयं को बचाने के लिए प्रयासरत है, जबकि संक्रमण से बचने का अनेक देशों के पास केवल एक ही विकल्प दिख रहा है, जिसे लॉकडाउन का नाम दिया गया है। 

इस व्यवस्था के तहत लोगों को घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया जाता है, जिसका परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि व्यक्ति पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कट जाता है, जिसे हम सामान्य तौर पर सोशल डिस्टेंस के रूप में जानते हैं और  जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों के बीच फैल रहे कोरोना वायरस के संक्रमण की चैन को तोड़ना अथवा उस पर रोक लगाना है

लेकिन, सदियों से हमारे समाज में महिलाओं को पितृसत्ता नामक सोच ने घर की चारदीवारी तक ही सीमित कर उन्हें एवं उनकी स्वतंत्रता को एक प्रकार से लॉकडाउन में ही रखा है।

‘द सेकेण्ड सेक्स’ में फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बोव्हुआर ने फ्रांसीसी भाषा में लिखी अपनी पुस्तक में कहा है कि नारी जन्म नहीं लेती, बल्कि बनाई जाती है।

भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में हाशिए पर स्त्री विमर्श  

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर एक अन्त :विरोध है। एक तरफ, तो नारी को देवी के रूप में चित्रित किया गया है। वहीं दूसरी तरफ उसे अबला माना गया है। सामान्यत: दो धारणाएं प्रचलित थीं, इसे आप दूसरे शब्दों में स्त्रियों के लिए लक्ष्मण रेखा कह सकते हैं।   

शुद्धता का पर्याय देवी एवं का अशुद्धता का पर्याय कुल्टा इन्हीं दो खेमों में स्त्री को समेट कर रख दिया गया है। स्त्री विमर्श एक स्त्री के मनुष्य होने की लड़ाई या उस सोच पर आधारित है। पुरुषों ने महिलाओं को सदियों से एक भोग की वस्तु के रूप में निरुपित किया गया है या यूं कहें कि नारी को पुरुष ने एक शरीर के रूप में ही देखा है। 

जिसके कारण वह समाज में हमेशा उत्पीड़न, लैंगिक भेदभाव, शोषण का शिकार हुई है या उसको देवी कहकर उसकी उपेक्षा की गई अथवा कुल्टा कहकर उसका तिरस्कार किया गया है। महिला एक मानव के रूप में कभी नहीं देखी गई, जिसको लेकर समाज में इसका जोरदार विरोध किया गया।

अनेक देशों के अनेकों नारीवादी चिंतको ने समाज की इस दकियानूसी इस सोच पर कुठराघात किया है। स्त्री को पुरुष का अर्द्ध भाग माना गया है, जो यह प्रदर्शित करता है कि स्त्री अपने आप में पूर्ण नहीं, बल्कि स्त्री पुरुष का एक अर्ध भाग है।

जबकि पुरुष को समाज में पूर्ण माना गया है। कुछ लोगों का, तो यहां तक मानना है कि महिलाएं बच्चा पैदा करने की मशीन मात्र हैं, जिनको देवी कहकर पवित्रता का स्वांग रचाकर उनको परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों, मूल्यों अथवा या कहें कि संस्कारो में बांध दिया गया है।  

कौटिल्य ने, तो यहां तक कहा है कि एक महिला की काम इच्छा की पूर्ति कई पुरुष भी मिलकर नहीं कर सकते हैं। वहीं यूरोप में प्लेटो ने, तो महिला को भोग की वस्तु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसने तो स्त्री को स्वस्थ बच्चा पैदा करने वाली मशीन ही मान लिया था।  

हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री नेहरूजी ने कहा था कि यदि समाज का विकास करना है, तो महिलाओं का विकास करना होगा महिलाओं का विकास होने पर समाज का विकास अपने आप हो जाएगा। 

पुरुषवादी समाज में स्त्री विमर्श  को दोयम दर्ज़ा

भारत में ही नहीं विश्व के अनेक देशों में सेक्स वर्क का कार्य दिनदहाड़े चलाया जाता है। कहीं-कहीं, तो हमें ऐसे भी प्रमाण देखने को मिलते हैं कि युद्ध के दौरान जब एक राजा दूसरे राज्य पर आक्रमण करता था, तो उस राज्य की महिलाओं को भी युद्ध में जीत लेता था।

विजेता राजा उस राज्य के महिलाओं के साथ जबरदस्ती अमानवीय व्यवहार किया करता था। भारत में ऐसे अनेक युद्धों के प्रमाण हैं, जब राजा ने केवल स्त्री की चाह मात्र की पूर्ति हेतु किन्हीं दूसरे राज्यों पर आक्रमण किया है। भारत के विश्वविख्यात दो महाकाव्य रामायण और महाभारत उसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं, जो स्त्री को ही आधार बनाकर लड़े गए थे।  

भारतीय पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को सम्पत्ति के रूप में निरुपित किया गया है, जिन्हें लोग जुए में दांव पर लगा दिया करते थे। उस समय महिलाओं को महज़ सम्पत्ति के रूप में ही देखा जाता था। बदलते हुए समय के साथ समाज की महिलाओं के प्रति इस सोच में बदलाव हुए हैं।  

मनुस्मृति में, तो यहां तक कह दिया गया की स्त्री को जीवन की प्रत्येक अवस्था में पुरुष के अधीन रहना चाहिए , कभी पिता के अधीन, तो कभी पुत्र के अधीन, कभी पति के अधीन महिलाओ को सर्वत्र पुरुष के संरक्षण में रहने की बात कही है।

हमारे समाज ने महिलाओं को हमेशा एक भोग की वस्तु के एक सांचे के रूप में ही देखा है। महिलाओं को प्राचीन समय से ही या तो किसी की पत्नी माना गया है या फिर किसी की वैश्या अथवा रखैल माना गया है।  

महात्मा बुद्ध ने कहा था कि ‘एक स्त्री तब तक चरित्रहीन नहीं हो सकती, जब तक पुरुष चरित्रहीन ना हो जाए।’  

तुलसीदास ने यहां तक लिखा है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु  और नारी ताड़ने के अधिकारी हैं अर्थात् यह सभी नीच जाति के लोग अथवा मंदबुद्धि के होते हैं। जानवर और नारी, जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमज़ोर होते हैं।अत: इन्हे दंड देकर ही सही मार्ग पर लाना चाहिए, क्योंकि यह सब अपना भला-बुरा नहीं समझते हैं।

प्रभा खेतान ने अपनी पुस्तक स्त्री उपेक्षा में कहा है कि ‘स्त्री अमीर हो अथवा गरीबकाली हो या गोरी उसे अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।’ 

सदियों से नारी अपने अस्तित्व के संकट से जूझती रही है 

स्त्री का ना कोई अपना नाम है और ना ही उसकी कोई अपनी पहचान है। हर कालखंड में स्त्री को छीना गया, लूटा गया, अपनाया गया, दुत्कारा गया है। स्त्री प्रत्येक काल में अपने वजूद के लिए लडती रही है। एक उसका अपना कहने को बस उसका स्वयं का चेहरा था। समाज द्वारा उस पर भी पाबंदिया लगा दी गईं।

पर्दा प्रथा, देह व्यापार ने बची-कुची कसर भी पूरी कर दी। पुरुषवादी समाज में महिलाओं को घर की इज्ज़त कहा गया और अंततः उसी की इज्ज़त को बाज़ार में नीलाम भी किया गया। स्त्री के जान की परवाह किसे थी? समाज को, तो अपने कुल का दीपक चाहिए था।

एक स्त्री को पुरुष ने दो-दो रूपों में देखा है। पहले कामवासना की पूर्ति करने वाली वस्तु के रूप में, तो दूसरे अपने कुल के चिराग को जन्म देने वाली महिला के रूप में। स्त्री की परवाह किसे थी?

स्त्री को सदैव से ही भारतीय समाज में एक समिति क्षेत्र तक रखा गया है। प्राचीन-आधुनिक काल तक परम्परागत, रीति-रिवाज़ों, मूल्यों के आधार पर उनको घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया।

विवेकानंद ने कहा था कि ‘स्त्री की दशा में सुधार लाए बिना विश्व का कल्याण नहीं हो सकता, क्योंकि  चिड़िया एक पंख से उडान नहीं भर सकती है।’ 

पितृसत्तात्मक समाज के लिए सर्वदा स्त्री एक अवैतनिक मज़दूर मात्र ही रही 

सदियों से अवैतनिक के रूप में एक नौकरानी बनकर रहने वाली स्त्री। पाई-पाई के लिए  पुरुष पर आश्रित रहने वाली स्त्री या यूं कहे कि सदैव से सम्पति पर पुरुष का अधिकार ही रहा है, जिसकी वजह से महिलाएं पुरुषों के अधीन बनी रहीं।

भारत की पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल के शब्दों में 

हटा दो बाधाएं सब मेरे पथ की
मिटा दो आशाएं सब मेरे मन की
जमाने को बदलने की शक्ति को समझो
कदम से कदम मिलकर चलने दो हमको

स्त्री नहीं महज़ भोग की वस्तु की तलाश करती पितृसत्ता

प्रत्येक पुरुष को एक ऐसे स्त्री की चाह होती है, जो संस्कारी हो। शुद्धता का पर्याय हो, जो अपनी शुद्धता का परीक्षण देने के लिए तैयार रहे। चेहरे पर घूंघट लगाती हो। लम्बे-लम्बे बाल रखती हो। जो कुरूप नहीं अतिसुन्दर हो। साज-शृंगार करके पति को खुश कर सके। 

कम बोलती हो। सुनना उसकी आदत हो या यूं कहे कि अपने अधिकारों के प्रति सजग ना हो। उन्हें, तो खूंटे में बंधे गाय की चाह है। जो भोली हो। मार खाकर भी घर के किसी कोने में पड़ी रहे। बोलने पर बोले नहीं, तो चुपचाप कहीं किसी कोने में पड़ी रहे।

मार खाने पर भी उफ्फ ना भी करे, जब ज़रूरत हो जिधर हो उधर ही खड़ी मिले। जब चलने को कहा जाए, तो चलना शुरू कर दे। प्रत्येक पुरुष को सीता के समान नारी चाह है, जो हर कठिन परिस्थितियों में पुरुष के साथ खड़ी रहे। कंधे से कन्धा मिलाकर साथ चले।

एक बार कहने पर 14 वर्ष के वनवास के लिए तैयार हो जाए, जो प्रश्न ना करे केवल उसे सुनने की आदत हो। समय आने पर अपने सतीत्व की परीक्षा भी दे। भले ही पति कही से मुंह मार के आए।

मैं नारी हूं

नीर बहाना मेरी पहचान नहीं

सदियों से घूंघट से पहचानी गई 

मैं इससे अनजान नहीं 

जकड़ी गई परम्पराओं की जंजीरों से

जिसकी मैं हकदार नहीं

अभी भी चेतो दुनिया वालों

नारी हूं, कोई सामान नहीं ।

पितृसत्तात्मक सोच की आग में आखिर स्त्री ही क्यों जले? सदियों से पुरुषों ने महिलाओं को समाज की दकियानूसी सोच एवं संस्कृति के नाम पर रीति-रिवाज़ों में लॉकडाउन करके रखा है, जिसके ज़िम्मेदार पुरुष नहीं, बल्कि समाज की पुरुषवादी सोच है। महिला लॉकडाउन से मुक्ति का सबसे अच्छा तरीका पुरुषवादी सोच में बदलाव है, जिसके कारण महिलाएं सदियों से गुलाम बन कर रही हैं। 

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