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“किसान आंदोलन के ज़रिये हमारे समाज की पितृसत्ता वाली सोच का सामाजिक ढांचा भी टूट रहा है”

किसान आंदोलन के ज़रिये हमारे समाज की पितृसत्ता वाली सोच का सामाजिक ढांचा भी टूट रहा है

दिल्ली बॉर्डर पर कृषि बिल के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन को इस बार महिला दिवस (8 मार्च) के तौर पर मनाया गया। 8 मार्च को महिला दिवस के अवसर पर दिल्ली-गाज़ीपुर बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन के मंच का संचालन महिला किसानों ने किया था।

वैसे, अमूमन मंच का संचालन पुरुष किसानों के हाथ में ही होता था और मंच की पहली कतार में पुरुष किसान ही वहां ज़्यादातर दिखते थे। हालांकि, उस दिन मंच का संचालन और पहली कतार में पुरुष किसानों के बजाय महिला किसानों ने ही मोर्चा संभाल रखा था।

वैसे, आपको बताते चलें कि किसान आंदोलन के शुरुआती दिन से ही महिलाओं ने बखूबी वहां मोर्चा संभाल रखा है। हालांकि, उनकी संख्या पुरुष किसानों के अपेक्षा कम थी, लेकिन महिला दिवस के दिन महिला किसानों की संख्या पुरुष किसानों के बराबर थी।

इस आंदोलन के ज़रिये मुझे हमारे समाज की पितृसत्ता का सामाजिक ढांचा भी टूटता हुआ दिखाई दिया। महिला दिवस के दिन महिला किसान और घरेलू महिलाएं भी दूर-दराज़ के इलाकों से किसान आंदोलन में पहुंची थीं। गाँवो की महिला किसानों ने उस दिन मंच से जोरदार तरीके से अपनी बात रखी।

महिला किसानों ने कई गंभीर मुद्दों पर अपनी बात रखी

3 कृषि काले कानूनों के खिलाफ महिलाओं ने रोष प्रकट तो किया ही इसके साथ में अन्य मुद्दों पर भी आम जनमानस का ध्यान आकर्षित किया। आंदोलन के प्रति सरकार के रवैये को लेकर सरकार को काफी खरी-खोटी भी सुनाई, जिस तरीके से सरकार किसान आंदोलन को कुचलने की कोशिश कर रही है, उसे लेकर महिला किसान काफी मुखर दिखी हैं।

इसके साथ ही किसान आंदोलन के दौरान शहीद हुए अपने किसान साथियों के लिए उन्होंने अपनी संवेदनाएं भी व्यक्त की। यहां तक की महंगाई और अर्ध सैनिको की पेंशन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को भी किसान महिलाओं ने मंच से उठाया, क्योंकि महंगाई की मार सबसे ज़्यादा घरेलू महिलाओ को ही झेलनी पड़ती है।

फरवरी 2021 की तिमाही रिपोर्ट बताती है कि देश में महंगाई 5.03% की दर से बढ़ी है। महीनावारी खाद्य सामग्री जैसे तेल के दामों में 20.7 8% की बढ़ोतरी देखी गई है। दालों के दाम में भी 12 .54% की बढ़ोतरी हुई है।

किसान आंदोलन अब उत्तर भारत के राज्यों तक सीमित ना होकर देश के सुदूर हिस्सों में भी फैल रहा है

ऐसे ही एक महिला किसान नेता कला बाई सादुंके महाराष्ट्र के सतारा ज़िले से महिला दिवस के दिन दिल्ली-गाज़ीपुर बॉर्डर पर आई थी, इन्होंने मंच से मराठी भाषा में ही वहां के किसानों के महत्वपूर्ण मुद्दों को रखा। इससे साफ जाहिर होता है कि इस आंदोलन में काफी विविधताएं शामिल हैं।

सादुंके जैसी कई महिलाओं ने अलग-अलग मुद्दों पर अपनी बात रखी। मैंने महिला किसान नेता कला बाई सादुंके से ग्रामीण महिलाओं से जुडी हुई समस्याओं पर बात की। मेरा उनसे पहला सवाल था कि बिल के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन में महाराष्ट्र के गाँवों में वहां की महिलाओं और अन्य लोगों की क्या प्रतिक्रिया है? इस पर उन्होंने कहा कि महिलाएं स्थानीय स्तर पर चल रहे किसान आंदोलन में भागीदारी ले रही हैं।

मेरा दूसरा सवाल वहां खेतों में काम करने वाली महिला मज़दूरों की समस्याओं से जुड़ा हुआ था। उन्होंने बताया कि गाँव के अधिकतर पुरुष काम करने गाँव से बाहर चले जाते हैं और खेतीबाड़ी से जुड़े सारे काम महिलाएं ही करती हैं। डेयरी पर दूध देने का काम भी महिलाएं ही करती हैं।

तीसरा सवाल इस आंदोलन का नेतृत्व अधिकतर पुरुष किसान नेताओं के हाथ में ही है, तो अब महिला किसान नेता इस आंदोलन में किस तरीके से भागीदारी लेंगी? महाराष्ट्र के कई गाँवों में यह किसान आंदोलन चल रहा है, जिसमें महिलाएं बराबरी के साथ हिस्सा ले रही हैं।

महिला किसानों से जुडी मुख्य समस्याएं

मेरे सतारा ज़िले में गाँव की महिलाएं किसान आंदोलन में हिस्सा लेने रोज़ जाती हैं और कुशलता से आंदोलन भी चला रही हैं। मेरा चौथा सवाल उनसे यह था कि वे महिला दिवस के दिन महिलाओं से कुछ कहना चाहेंगी? उन्होंने कहा, मैं यही कहना चाहूंगी कि मेरे यहां सिंचाई की बहुत बड़ी समस्या है, जिसके कारण हमारे यहां के नौजवान शहरों की तरफ नौकरियों के लिए पलायन कर रहे हैं।

अगर इन समस्याओं का हल हो जाता है, तो महिलाओं के लिए भी काफी सहूलियत रहेगी और उन्हें मज़दूरी के लिए दूसरों के खेतों में नहीं जाना पड़ेगा। महिलाओं को कितनी मज़दूरी मिलती है और उनकी समस्या क्या है? तो उन्होंने बताया कि महिला मज़दूर की मज़दूरी 250 रुपये है। यह बहुत कम है, कम-से-कम 300 रुपये मज़दूरी होनी चाहिए।

फिर मैंने पूछा कि पुरुष मज़दूरों को कितना मज़दूरी मिलता है? उनका जवाब था, पुरुषों के लिए 500 रुपये मज़दूरी है। इससे पता चलता है कि पुरुषों की तुलना में महिला मज़दूरों को आधी मज़दूरी मिलती है।

डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में 75% महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। वहीं, 80 प्रतिशत  महिलाओं के जीवनयापन के लिए कृषि अनुसार 25. 37% कम मज़दूरी मिलती है। ये कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। विडम्बना है कि हमारे देश में इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर ढंग से चर्चा तक नहीं होती है।

सीमोन द बोवुआर की एक पंक्ति-  “औरत पैदा नहीं होती है, वो बना दी जाती है।”

महिला दिवस के दिन कृषि बिल के खिलाफ चल रहे आंदोलन में जिस तरीके से ग्रामीण महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया है, वाकई यह देश की बदलती हुई सुखद तस्वीर है। कहीं-ना-कहीं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. बोबडे की उस टिप्पणी को महिलाओं ने चुनौती के तौर पर ले लिया है जिसमें उन्होंने किसान नेताओं से कहा था कि बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को बॉर्डर से वापस लौटने के लिये आग्रह करें।

उनके स्तर पर यह बात शायद सही हो लेकिन यह बात बुजुर्ग वर्ग और खासकर महिलाओं को बहुत नागवार लगी और इसका असर आन्दोलनों में दिख रहा है। महिला दिवस के दिन तकरीबन 50 हज़ार से अधिक महिलाएं दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर कृषि बिल के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन में आई थीं।

कुंवर रविंद्र की कुछ पंक्तियां

औरतें

बहुत बुरी होती हैं

जब वे सोचने समझने और खड़ी हो कर बोलने लगती हैं।

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