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भारत का चौथा स्तम्भ क्यों खो रहा है अपनी विश्वनीयता?

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और  इसी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है मीडिया! मगर मीडिया आज जनहित के मुद्दों को छोड़ सिर्फ शोर और टीआरपी के पीछे भाग रहा  है। आज जहां मीडिया को  देश के लोगों की आवाज़  बनने की ज़रूरत है, लेकिन वो सरकारों की आवाज़ जैसी लगने लगी है।

आज भारतीय न्यूज़ चैनलों पर भारत की खबरों से ज़्यादा तो उत्तर कोरिया, पाकिस्तान औऱ चीन जैसे देशों की खबरों का अधिकार हो गया है।  वहीं, दूसरी ओर आज अगर एक-दो मीडिया चैनलों को छोड़ दें , तो भारतीय मीडिया की छवि  भी सरकार और विपक्ष के साथ जोड़ कर देखी जा रही है।

आज आम जनता  ने मीडिया को भाजपा , कांग्रेस और अन्य पार्टियों से जोड़ कर देखना शुरू कर दिया है और मीडिया का राजनैतिकरण लोकतंत्र और जनता दोनों के हित में नहीं हो सकता।

अगर हम आज मीडिया की बात करें तो सुबह की मॉर्निंग बुलेटिन से लेकर शाम के प्राइम टाइम तक आधा समय तो चीन , पाकिस्तान, औऱ अमेरिका जैसे देशों की कवरेज़   में जाता है। पाकिस्तान में कहां  भुखमरी है, वहां की सरकार में क्या राजनैतिक उठा-पटक चल रही है, ये खबरें कवरेज का हिस्सा होती हैं।

जबकि भारत में साल भर किसी न किसी राज्य में चुनाव या राज़नैतिक अस्थिरता चलती ही रहती है, परन्तु भारतीय मीडिया को पाकिस्तान की राजनैतिक गतिविधियों में ज़्यादा रुचि है। चीन में बाढ़ के क्या  हालात हैं, वहां की सरकार लोगों की निजी स्वतंत्रता का कैसे दमन कर रही है।  पाकिस्तान कोरोना महामारी के सामने कैसे बेबस है जैसी खबरें हमारे न्यूज़ चैनल की हैडलाईन हुआ करती हैं, जबकि भारत में  भी  कोरोना के दिन-प्रतिदिन नए रिकॉर्ड बन रहे हैं।

मीडिया की विश्वसनीयता कम करतीं अंतरराष्ट्रीय खबरें

वहीं, कुछ चैनलों का तो प्रतिदिन 1-2 घंटे का प्रोग्राम पाकिस्तान, चीन जैसे देशों के साथ-साथ पुतिन औऱ ट्रम्प सरकारों के रिपोर्ट कार्ड पेश करने का होता है औऱ इन सब के बीच जिस देश की खबरें लाना दुनिया की बड़ी-बड़ी ख़ुफ़िया एजेंसियों के बस की बात नहीं है, उस उत्तर कोरिया की खबरें हमारे घरों तक पहुंच जाती है औऱ अगर मान भी लिया जाए  की ये सब देश के राष्ट्रीय चैनलों पर एक बार दिखाया भी जा सकता है लेकिन देश की क्षेत्रीय भाषाओं मे चलने वाले  न्यूज़ चैनल भी, अपने राज्य की ख़बरों से ज़्यादा तवज्जो  इन अंतरराष्ट्रीय बुलेटिन को दे रहे हैं

और इन्ही सब कारणों  से आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर लोगों का विश्वास कम होने के साथ ही साथ मीडिया की विश्वसनीयता भी कम हुई है।  21वी सदी के पहले दशक यानी जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भारत में हर घर में पहुंचा ही था, तब लोग मीडिया की दिखाई खबरों पर पूरा भरोसा करते थे, क्योंकि तब भारतीय मीडिया जनता के लिए काम करता था, ना की कॉरपोरेट मीडिया बन कर। 

फिर क्या मीडिया को अंतरराष्ट्रीय खबरों को दिखाना छोड़ देना चाहिए ? बिल्कुल नहीं। अंतरराष्ट्रीय खबरें भी लोगों तक पहुंचना चाहिए ताकि लोग देश-दुनिया में क्या चल रहा है, ये जान सकें मगर जो आवश्यक हो वही दिन में 1 – 2 घंटे दिखाइये या फिर दुनिया की प्रमुख खबरों को प्राइम टाइम में भी जगह दीजिए लेकिन ऐसा ना हो की पूरा प्राइम टाइम ही दुनियादारी पर चल रहा हो।

मीडिया के लिए ज़मीनी मुद्दे ज़रूरी या यूपीएससी जिहाद

अभी जब देश में कोरोना के प्रतिदिन 1 लाख के आसपास केस आ रहे हैं। जब  देश की अर्थव्यवस्था अपने सबसे बुरे दौर में है। स्वास्थ्य सेवाएं भी बढ़ते कोरोना केस के सामने दम तोड़ रही हैं और भारतीय मीडिया के लिए सुशांत, रिया, कंगना, मुंबई बीएमसी के बाहर की दुनिया जैसे खत्म ही हो गई हो। यही देश की अर्थव्यवस्था, राजव्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाएं बन गए हैं, जबकि हरियाणा-पंजाब के किसान सड़कों पर हैं।

बेरोज़गारी का उन्माद युवाओं में आक्रोश बनकर फूट  रहा है औऱ हद तो तब हो गई जब एक न्यूज़ चैनल इन सब के बीच ‘यूपीएससी जिहाद’ नाम की एक सीरीज़ ले आया।  जिस पर सुप्रीम कोर्ट को रोक लगाने के साथ-साथ मीडिया के मानक तय करने तक कि बात कहनी पड़ी, क्या इसी मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं?

मैं मीडिया के तौर तरीकों या फिर उनकी मीडिया स्ट्रेटजी पर सवाल नहीं उठाना चाहता।  वो क्या न्यूज़ दिखाएं  ये उनका अधिकार क्षेत्र है परन्तु मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है, जो जनता की आवाज़ बने ना की सत्ता की। आप टीआरपी की बजाए  लोगों की समस्याओं को अपना टारगेट बनाईए, तो कुछ समय बाद आपके मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की विश्वसनीयता सबसे ज़्यादा होगी।  देश के छ राज्यों में हर साल बाढ़ से करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं।

जन-धन की हानि होती है मगर मीडिया इन लोगों को तब दिखाता है, जब ये लोग बाढ़ की चपेट में आकर पलायन को मज़बूर हो जाते हैं, तब सरकार और प्रशासन को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। मगर कभी भी बाढ़ संभावित क्षेत्रों में सरकार ने पिछले साल की अपेक्षा इस साल बारिश से पहले क्या तैयारियां की हैं?  बाढ़ प्रबंधन के लिए व्यवस्था क्या है या बाढ़ प्रभावित इलाकों में बाढ़ के बाद सरकार ने लोगों का जनजीवन को पुनः स्थापित करने के लिए क्या कदम उठाए हैं? ये बाते आपको कभी न्यूज़ चैनलों पर सुनने को नहीं मिलती।

वहीं, देश में कुछ इलाके हर साल सूखे की मार झेलते हैं, जिससे सैकड़ों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं लेकिन  जब तक इन किसानों की मौत आत्महत्याएं नहीं बन जातीं, तब तक उन्हें न मीडिया दिखाती है न सरकार और  ना ही प्रशासन को कोई फर्क पड़ता है।

वहीं, जब किसानों की मौत, आत्महत्या बन जाती है तो उन्हें मीडिया का भरपूर कवरेज़ मिलता है।  2-3 रोज़  तक बड़े-बड़े नेताओं को  पैनल में  बैठाकर खूब बहस की जाती है।  किसानों की आत्महत्या के लिए सरकार की आलोचना होती है, जैसे मीडिया इस बार किसानों को न्याय दिला कर ही दम लेगा

घटना के खबर बनने तक क्यों खामोश रहता है मीडिया?

लेकिन अफसोस  देश में कोई नया राजनैतिक मुद्दा आ जाता है और इन किसानों की आत्महत्याएं मीडिया और अखबारों से गायब हो जातीं हैं। कभी भी न्यूज़ चैनलों में इन किसानों की आत्महत्याओं के कारण पर कोई बहस नहीं की जाती! किसान सरकार की इतनी योजनाओं के बावजूद भी आत्महत्या करने को क्यों मजबूर है? सरकार  द्वारा चलाई जा रही योजनाएं किसान तक पहुंच भी पा रहीं हैं या नहीं? या सिर्फ भ्रष्टाचार की ही भेंट चढ़ रहीं हैं।

कभी किसी न्यूज़ चैनल ने किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी के लिए बहस नहीं की। यहां तक की  सरकार द्वारा अभी कुछ समय पहले किसानों के लिए जो तीन अध्यादेश लाए गए इन पर एक बार भी बहस नहीं की गई, जबकि देश के कई कृषि विशेषज्ञ इसे किसानों का शोषण बता रहे हैं। मीडिया को तो राजस्थान की राजनैतिक अस्थिरता और बॉलीवुड में ज्यादा टीआरपी मिल रही है, जबकि अगर आप किसानों को लेकर कभी कोई सीरीज़ बनाओगे तब आपको पता चलेगा कि सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में से 80 प्रतिशत योजनाएं कभी किसानों तक पहुंची ही नहीं हैं।

आज देश को ऐसे मीडिया की ज़रूरत है, जो लोगों की आवाज़ बने। अपने मीडिया चैनलों पर ऐसी न्यूज़ दिखाए जो देशहित और जनहित में हों। आप जिस तरह हर चुनाव से पहले नेताओं के पैनल बिठा कर उनसे राजनैतिक सवाल-जवाब करते हैं। उनसे, उनके चुनाव की स्ट्रेटजी को लेकर सवाल पूछते हैं, तो उनसे इन सवालों के साथ ये भी पूछें कि पिछले पांच साल में कितने किसानों ने आत्महत्याएं की?  कितने लोग बाढ़ या सूखे की मार हर साल झेलते हैं, उनके लिए आपने क्या किया?

मीडिया चैनल देश-दुनिया की खबरों के साथ देश के ऐसे क्षेत्रों को भी दिखाएं, जो वर्षों से सूखे की मार झेल रहे हैं,  उनकी समस्याओं  के समाधान के लिए आज तक न तो कोई ज़नप्रतिनिधि आये, ना अधिकारी!  आप देश की अर्थव्यवस्था के कम-ज़्यादा होने पर तो खूब बहस करते हैं मगर देश के जिन किसानों की वजह से भारत देश की अर्थव्यवस्था चलती है, उनकी अर्थव्यवस्था की बदहाली पर भी बात होना चाहिए। लोगों को पता होना चाहिए की कैसे, इतनी मेहनत के बाद भी किसानों को उनकी फसल की लागत भी नहीं मिल पाती है।

देश के मीडिया हाउस बहुत से पॉलिटिकल शो चलाते हैं, उनकी जगह देश के राष्ट्रीय चैनल सप्ताह में एक दिन किसी भी केंद्रीय मंत्री, देश के अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक रिपोर्ट कार्ड पेश करें, इन मंत्रियों के विभागों में कौन-कौन सी जनहितकारी योजनाएं संचालित है और क्या ये योजनाएं वास्तविक रूप से ज़मीनी स्तर पर पहुंच भी रही हैं या नहीं। इनका जनता को कितना फायदा मिला?

देश के अलग-अलग मुख्यमंत्रियों से उनके राज्यों पर सवाल-जवाब करें। किस राज्य में किस मुख्यमंत्री की कौन-सी योजना जनहितकारी है, जिसे देश के अन्य राज्यों तक भी पहुंचना चाहिए। देश के अलग-अलग राज्यों के शिक्षा, कृषि, खेल, महिला बालविकास और उद्योग मंत्रियों के पैनल बिठा कर उनसे सवाल-जवाब करें। इसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के चैनल अपने अपने राज्यों के सांसदों और  विधायकों के प्रतिदिन एक रिपोर्ट कार्ड पेश करें।

विधायक या सांसद अपने क्षेत्र में कितने सक्रिय हैं? अपने क्षेत्र में विधायक या सांसद जी ने क्या-क्या काम करवाए, जिससे ये विधायक सांसद चुनाव के अलावा भी लोगों के  बीच जाएं, अगर देश की मीडिया इस तरह के प्रोग्राम दिखाए तो ये जनता और देश दोनों के हित में होगा। लोगों की समस्याएं भी सरकारों तक पहुंचेगी और  प्रशासन और सरकारे लोगों की समस्याओं का भी समाधान भी कर पाएंगे और  हम एक समृद्ध, श्रेष्ठ, आत्मनिर्भर और  विकसित भारत का सपना भी साकार कर पाएंगे।

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