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यह दौर भारतीय पत्रकारों से भी सवाल करने का है।

मीडिया वैसे तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाता है। पर यह चौथा स्तंभ पंगु नजर आता है। 

भारतीय मीडिया सत्तापक्ष को कम विपक्ष को ज्यादा कटघरे में खड़ा करता है।  वे ऐसे तर्क एवं  तथ्यों को जनता के सामने परोसता है जिसके सत्ता पक्ष की नाकामयाबी भी कामयाबी नजर आती है 

मीडिया के पास नागरिकों के मौलिक अधिकारों के एवज में कोई भी सवाल नहीं है। वह पूरी तरह से  मुद्दा विहीन बातों को जोरों शोरों से उछलता है।

 

हमारे देश के बढ़ती महंगाई बढ़ती बेरोजगारी बढ़ते अपराध को कमतर दिखाने के लिए हमारे पड़ोसी देश की महंगाई, बेरोजगारी और अपराधिक मामला से तुलना करते हैं।

और हमें अपने अधिकारों से वंचित रखने में सत्ता पक्ष का साथ देते हैं।

इनकी पत्रकारिता नरेंद्र मोदी की इर्द-गिर्द ही घूमती है। मीडिया व्यवसायिक संस्थान बन चुका है। वह खबरों को बेच रहा। कभी धर्म के नाम पर कभी जात के नाम पर ! जिससे उसका धंधा खूब फल-फूल रहा है।

 

कोरोना काल की दूसरी लहर के दौरान जो भयावह स्थिति बनी थी, लोग सड़कों पर मर रहे थे, ऑक्सीजन नहीं थी, बेड नहीं थे। श्मशान में जगह नहीं थी। लोग मदद की गुहार लगा रहे। उस वक्त राज्य सरकार केंद्र को एवं केंद्र राज सरकार को विफलताओं का दोष बढ़ रहा था।मौत के आंकड़े छुपाए जा रहे थे। जांच फर्जी हो रही थी। इस आपातकालीन स्थिति में भी मीडिया सरकार को संरक्षित कर रहा था। वह कहीं से भी लोगों की विश्वास बढ़ाते नहीं दिख रहा था इनकी खबरें सरकार से सवाल नहीं कर पा रही थी। मीडिया भी भारतीय नागरिक की तरह बेबस नजर आ रहा था। 

अगर भारतीय मीडिया की यही स्थिति रही तो वह मात्र एक मनोरंजन का साधन बन के रह जाएगा।  किसी भी खबर में प्रतिक्रिया देने से पहले जांच पड़ताल आवश्यक कर ले। जय हिंद। 

 

 

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