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समाज में मनुष्यों के बदलते जीवन मूल्य और उनकी बदलती अवधारणाएं

समाज में मनुष्यों के बदलते जीवन मूल्य और उनकी बदलती अवधारणाएं

हम द्वैध (दोहरी) मानसिकता की तरफ बढ़ रहे हैं। हम दूसरों के व्यक्तिगत मामलों में जज और अपने मामलों में वकील बन जाते हैं, क्योंकि अपने और दूसरों के मामलों को संज्ञान में लेना या उस पर राय बनाने का पैरामीटर हमने खुद तय कर लिया है। हमें अपने मामलों में अन्य लोगों को बड़ी-बड़ी दलीलें देनी होती हैं पर दूसरों के मामले में तुरंत आरोप, प्रत्यारोप और निर्णय स्पीड ट्रायल कोर्ट की तरह होता है मतलब न्याय या उस घटना पर आपकी राय या आरोप तुरंत सिद्ध हो जाए।

उदाहरण के लिए समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं, एक शाकाहारी और दूसरे मांसाहारी। उन दोनों की अपने-अपने भोजन में अभिरुचि होती है। एक शाकाहारी व्यक्ति को शाकाहारी भोजन पसन्द है और दूसरे व्यक्ति को मांसाहारी भोजन पसंद है, दोनों का आखिरी लक्ष्य भोजन कर अपने पेट की ज्वाला को शांत करना ही है, बस उन दोनों की रुचि अलग-अलग है और माध्यम अलग-अलग हैं।

अब अगर शाकाहारी व्यक्ति, किसी मांसाहारी व्यक्ति को बोले कि क्यों अपने पेट को मुर्दाघर बना रहे हो या मांसाहारी व्यक्ति, किसी शाकाहारी व्यक्ति को बोले क्यों घास-भूसा खा रहे हो? तो इस समय दोनों ही व्यक्ति एक- दूसरे के भोजन की रुचि पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। उन दोनों की भोजन के प्रति अपनी-अपनी रुचि है लेकिन दोनों एक-दूसरे के मामले में कुतर्कों का सहारा ले रहे हैं। 

यहां दोनों को एक-दूसरे की भोजन के प्रति रुचियों का सम्मान करना चाहिए। यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि जो मुझे पसंद नहीं हो, वो किसी और को भी पसंद ना हो, चीज़ों के प्रति सबकी अपनी-अपनी नैतिकता, रुचि और जीवनशैली होती है। हमें सबकी पसंद-नापसंद का सम्मान करना चाहिए, नहीं तो ऐसे मामलों में हम सिर्फ कुतर्क तक ही पहुंच पाएंगें। यह भी हो सकता है कि ये कुतर्क आगे चल कर दो व्यक्तियों के मल्ल्युद्ध में परिवर्तित हो जाए, लेकिन ऐसी चीज़ों का निष्कर्ष नहीं हो पाता है।

हम अब आते हैं दूसरी बात की ओर, हमारे समाज में मुख्यतः दो प्रकार के लोग होते हैं (वर्तमान हालात के परिप्रेक्ष्य में) इन दोनों प्रकार के लोगों में मूल्य तटस्थता का घोर अभाव होता है, इनका काम बस कुतर्कों का सहारा लेकर समाज के सामाजिक परिवेश या हालात में द्वंद पैदा करना है। ये दोनों प्रकार के लोग हमारे बीच में ही मौजूद हैं, ये हमारे जैसे ही हैं, बस फर्क इतना है कि ये मौसमी समाजसेवी हैं।

इनमें किसी एक प्रकार की मनोस्थिति वाले लोगों को सिर्फ दीवाली में पर्यावरण प्रदूषण दिखता है। उस दिन ये अन्य लोगों को खूब ज्ञान बांचते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि दीवाली में प्रदूषण होता है, खूब होता है लेकिन इनकी द्वैध (दोहरी) मनोवृत्ति सिर्फ दीवाली के दिन ही जागृत होती है। अगर वास्तव् में आपको अपने पर्यावरण को बचाना है तो रोज़ हर प्रकार के प्रदूषण कारक वस्तुओं का उपयोग कम या सिर्फ आवश्यकता के अनुरूप करें। संभवतः ऐसे लोग स्वयं पर्यावरण प्रदूषण कम करने में अपना कितना योगदान देते होंगें, उन्हें खुद पता होगा लेकिन हमें किसी को जज करने की आवश्यकता नहीं है।

अब इसमें जो दूसरे प्रकार के लोग होते हैं, उन्हें बकरीद के दिन पशुओं से प्रेम हो जाता है जबकि जो वाकई में पशु प्रेमी लोग हैं, उनके लिए ऐसा कोई खास दिन नहीं होता है। हर दिन अगर कहीं पशु की हत्या होती हो या बलि दी जा रही हो तो उसमें दुःख होना चाहिए लेकिन बकरीद के दिन पर ऐसे लोग अन्य लोगों को खूब ज्ञान देते हैं। ये कहते हैं कि सब कुछ गलत हो रहा है जबकि दशहरे जैसे उत्सव में पशु बलि पर इनके मुखारबिन्द से एक शब्द भी नहीं निकलता, यहां इनकी दोहरी मानसिकता दर्शित होती है।

ऐसे लोग हर धर्म विशेष में होते हैं, जब तक हम में मूल्य तटस्थता नहीं आएगी तब तक हम किसी भी चीज़ पर राय नहीं बना सकते, हम सिर्फ कुतर्क ही कर सकते हैं। समाज में सबको अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं के साथ जीने का हक है, लेकिन वो मान्यताएं नैतिक होनी चाहिए जैसे ही आप नैतिक होकर सोचेंगें तो आपको लगेगा कि यह पर्यावरण प्रदूषण और बलि प्रथा सब गलत है पर यदि आपको यह गलत सिर्फ किसी दिन विशेष या उत्सव विशेष पर लगता है तो यह आपकी द्वैध (दोहरी) मानसिकता है।

इसके लिए आपको संतुलित दिमाग की आवश्यकता है, जो कि अन्य लोगों पर राय बनाने के पहले अपना झुकाव ना रख सके और उसके मन में किसी भी धर्म या जाति विशेष के लिए कुंठा ना हो। समाज में सबकी अपनी-अपनी मनोवृत्ति है, हमें सबके मूल्यों का सम्मान करना चाहिए।

ऐसा हो सकता है कि कोई व्यक्ति, वस्तु या स्थान आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो और किसी दूसरे के लिए उसका कोई महत्व ना हो तो सब कुछ आत्मनिर्धारित पैरामीटर पर तय नहीं हो सकता। आपके मूल्य या आपके सिद्धान्त आपकी खुद की जीवनशैली है। किसी और के जीवन मूल्यों और सिद्धांतों में अंतर हो सकता है, ज़रूरी नहीं है कि सब एक जैसा ही सोचते हों, हमें सबकी सोच का सम्मान करना चाहिए। अगर आप वास्तविक में नैतिक बनना चाहते हैं तो तीन चीज़ों का विशेष ख्याल रखें।
★ मूल्य तटस्थता
★ तार्किक मस्तिष्क
★ सातत्य दृष्टिकोण

नोट :- इस पोस्ट के माध्यम से मेरी मंशा किसी धर्म, जाति, समुदाय या धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाना नहीं है, उदाहरण के लिए बस कुछ त्यौहारों और कुछ प्रथाओं का जिक्र किया गया है।

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