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“शिक्षा की परम्परागत प्रणालियों के साथ डिजिटल शिक्षा सामंजस्य नहीं बैठा पा रही है”

शिक्षा की परम्परागत प्रणालियों के साथ डिजिटल शिक्षा सामंजस्य नहीं बैठा पा रही है

कोरोना महामारी के दूसरे दौर और दरवाज़े तक पहुंच चुके तीसरे दौर ने शिक्षा परिसरों के सामने कई चुनौतियां पेश की हैं और साथ-ही-साथ विश्वविद्यालय परिसरों में विद्यार्थियों के लिए प्रशासन को हेल्थ सेंटर जैसी सुविधाएं विकसित करने पर मज़बूर किया है।

मशहूर कवि ब्रेख्त अपनी एक कविता में मशीन की शक्तियों पर तंज कसते हुए कहते हैं कि ‘बेशक मशीनें शक्तिशाली होती हैं, पर उनको चलाने के लिए भी हाड़-मांस के एक इंसान की ज़रूरत तो होती ही है।’ कोरोना महामारी के दौरान भारतीय शिक्षा व्यवस्था में डिजिटल डिवाइड की बाध्यता को देखते हुए, यह कविता वर्तमान के दौर में काफी प्रासंगिक लगती है।

कोरोना महामारी के पहले दौर में शुरूआती लॉकडाउन की घोषणा के बाद “ऑनलाइन एजुकेशन” को एक बेहतर विकल्प के रूप में सोचा गया था, लेकिन सनद रहे, इसके पहले के दशकों में रेडियो और टेलीविजन को भी सूचना और मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान के संवर्धन के लिए शुरुआती दिनों में बहुत उपयोगी समझा गया था, उस समय “ज्ञानवाणी”, “युवावाणी” जैसे कार्यक्रम इसी योजना के प्रमुख भाग थे। 

उन दशकों में रेडियो और टेलीविज़न शुरुआत में बेहतरीन विकल्प के रूप में उभरे परंतु ज्ञान-संवर्धन के वाद-विवाद-संवाद जैसे महत्वपूर्ण गुणों के अभाव के कारण ये अधिक प्रासंगिक नहीं हो सके। एक निश्चित तौर पर ऑनलाइन एजुकेशन में इन तीनों गुणों के समावेश के साथ तुरंत फीडबैक की गुणवत्ता भी मौजूद है।

शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत ज़िला शिक्षा सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई प्लस) की रिपोर्ट के अनुसार 

आज जब दूसरी लहर के द्वारा सम्पूर्ण देश में त्राहिमाम मचाने के बाद शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत ज़िला शिक्षा सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई प्लस) की रिपोर्ट बताती है कि 2019-2020 के शैक्षणिक सत्र में देश के सिर्फ 22 फीसदी स्कूलों में ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। इससे जाहिर है कि नई शिक्षा नीति पर अमल के साथ-साथ हमें डिजिटल डिवाइड को दूर करने के लिए एक वृहत स्तर पर काम करने की ज़रूरत है। यह रिपोर्ट हमें बताती है कि देश में मात्र तीन फीसदी स्कूलों के पास कम्प्यूटर उपलब्ध हैं, ग्रामीण भारत में तो बिजली, नेटवर्क के साथ-साथ अन्य भी कई समस्याएं भी हैं।

केरल, दिल्ली और गुजरात को छोड़ कर अन्य राज्यों के स्कूल पूरी तरह से ऑनलाइन एजुकेशन के प्रबंधन में फिसड्डी साबित हुए हैं। इस रिपोर्ट का सबसे दुखद पहलू यह है कि देश के नब्बे फीसदी स्कूलों के पास पीने के स्वच्छ पानी से लेकर शौचालय उपयोग तक की सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। इस रिपोर्ट में छात्रों के अनुपात में शिक्षकों की उपलब्धता में सुधार पर भी प्रकाश डाला गया है। 

लैपटॉप की कमी, इंटरनेट, मोबाइल नेटवर्क का ना होना एक बड़ी चुनौती 

परंतु स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में अभी बच्चों के शैक्षणिक सत्र के बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने की समस्या बनी हुई है। ऑनलाइन एजुकेशन के प्रबंधन में लैपटाप या मोबाइल या फिर इंटरनेट की उचित सुविधा नहीं होने के कारण बच्चों का बीच में ही पढ़ाई छोड़ देना, एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर सामने आया है। 

कुछ दिन पहले ही जमशेदपुर शहर में एक बच्ची अपनी ऑनलाइन एजुकेशन को जारी रखने के लिए सड़क किनारे आम बेचते हुए पाई गई, वह आम बेचकर अपने लिए पैसा जमा कर रही थी, जिससे वह मोबाइल खरीदकर अपनी पढ़ाई जारी रख सके। यह खबर दैनिक अखबार में प्रकाशित होने के साथ-साथ सोशल मीडिया पर भी काफी वायरल हुई थी।

परम्परागत शिक्षा प्रणाली का स्थान नहीं ले सकती ऑनलाइन एजुकेशन 

शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत ज़िला शिक्षा सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई प्लस) की इस रिपोर्ट ने सरकार की ऑनलाइन एजुकेशन परियोजना की हकीकत के साथ-साथ इस मिशन के सामने मौजूद चुनौतियों को भी सबके समक्ष सतह पर लाकर रख दिया है। जो हमें यह बताती है कि ऑनलाइन एजुकेशन की नीति को सुचारु रूप से लागू करने के लिए सरकार को एक मिशन मोड के रूप में काम करना होगा।

हालांकि, शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत ज़िला शिक्षा सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई प्लस) की रिपोर्ट ऑनलाइन एजुकेशन के कारण बच्चों के साथ परंपरागत तरीकों की जगह पर हो रहे प्रयोगात्मक शैक्षणिक गतिविधियों के प्रभावों के बारे में मौन है। वह शिक्षा पद्धति के सैद्धांतिक तर्को के पक्ष रटवा देने की जगह पर उसके व्यावहारिक पक्ष को विकसित करने के संबंध में भी कोई बात नहीं करता है और ना ही वह यह बताता है कि ऑनलाइन एजुकेशन में खेल-खेल में परियोजना विधि, समस्या समाधान विधि और गतिविधियों के माध्यम से ऑनलाइन एजुकेशन में इन विकल्पों को कैसे पुर्नजीवित किया जा सकता है? इस पर भी हमें चुप्पी ही देखने को मिलती है।

ऑनलाइन एजुकेशन के लिए हमें एक बेहतर एवं गुणवत्ता पूर्ण मॉडल की ज़रूरत है 

कोविड महामारी के दौरान शिक्षा क्षेत्र में मौजूद चुनौतियों को देखते हुए आने वाले बजट सत्र में शिक्षा को लेकर विशेष घोषणाएं हो, यह तो शिक्षा क्षेत्र में डिजिटल बाध्यता को दूर करने के लिए बहुत ही ज़रूरी है। शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत ज़िला शिक्षा सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई प्लस) की रिपोर्ट ऑनलाइन एजुकेशन की तमाम चुनौतियों को प्रस्तुत करने के साथ-साथ अपनी मौन अभिव्यक्ति उन विकल्पों के तलाश की तरफ भी रखती है, जिसका एक छोटा सा प्रयास झारखंड के गाँवों के घरों के दीवारों को ब्लैक बोर्ड में बदल कर शुरू किया गया था। 

इस प्रयास में बच्चों के बीच में दो गज की दूरी रखी जा रही है बल्कि पूर्ण निष्ठा से बच्चों के द्वारा मास्क भी पहना जा रहा है और समय-समय पर हाथ भी स्वच्छ किए जा रहे हैं। गाँव की दीवारों पर स्कूल के पाठ के साथ-साथ कोविड महामारी के संदेश सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के संदेश बच्चों के साथ-साथ समाज के लोगों को भी शिक्षित और ज़िम्मेदार बना रहे हैं।

ग्रामीण और दूर-दराज के इलाकों में, जहां इंटरनेट और बिजली की समस्या है और लोग महंगे लैपटाप और मोबाइल नहीं खरीद सकते हैं, उनके लिए यह एक बेहतरीन विकल्प है। फिलहाल तो देश के कमोबेश शिक्षा संस्थान बंद हैं, शिक्षा संस्थानों के परिसर खुलने शुरू हुए ही थे कि दूसरी लहर ने फिर सब कुछ बंद करवा दिया। तीसरी लहर का बच्चों पर अधिक प्रकोप की आशंका ने अभिभावकों के माथे पर चिंता की लकीरों को पहले से ज़्यादा और गाढ़ा कर दिया है।

ऐसा कहा जाता है कि विपदाएं विकल्पों को सीमित एवं संकुचित कर देती हैं, किंतु आदमी की जिजीविषा नई चुनौतियों के संदर्भ में अपने लिए नए विकल्प तलाश ही लेती है, यह भी एक सत्य है। हम कोविड महामारी के दौर में अपने नौनिहालों को शिक्षित करने का बेहतर विकल्प तलाश लेंगे, अभी भी यह उम्मीद कायम है।

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