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“पितृसत्तात्मक संरचना में पुरुष, महिला पर प्रभुत्व जमाता है, उसका शोषण करता है”

क्या आपने अपने पड़ोस में बेटी के जन्म पर खुशी मनाते हुए देखा है? शायद नहीं और देखा भी होगा तो कहीं इक्का-दुक्का। हम बेटियों के साथ कई तरह से भेदभाव करते हैं और उसको महसूस भी करते हैं लेकिन इस भेदभाव के खिलाफ कोई सशक्त पैरवी करने से कतराते हैं।

हमारा समाज दोहरे-मानकों का एक ऐसा समाज है, जहां हमारे विचार और उपदेश हमारे कार्यों से भिन्न हैं। अभी हाल में मेरी एक बहुत प्रिय मित्र से फोन पर बात हो रही थी, उसकी शादी को अभी कुछ ही महीने बीते होंगे, उसकी बातों से महसूस हो रहा था कि वह भी पुरुषत्व की मार झेल रही है।

औरतें अपने जीवन में कितने भी पढ़-लिख जाएं और कितनी ही काबिल क्यों ना हो जाएं लेकिन फिर उनमें से कई औरतें समाज में और अपने ही परिवार में दोयम दर्जे की स्थिति में रहती हैं। शादी के बाद ससुराल में भी उन्हें कुछ ऐसे ही ट्रीट किया जाता है, जैसे शादी नहीं काम करने वाला एक रोबोट खरीद लाया गया हो।

ससुराल जनों के आदेश की तालीम तुरंत हो, अगर थोड़ी सी देर हुई या आदेश नहीं लिया गया तो, क्या होता होगा? आप समझ सकते हैं। ऐसे कई केस दैनिक जीवन में देखने को मिल जाते हैं, जिन पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझते हैं। कुछ देर सोचती भी हूं लेकिन फिर आई गई बात हो जाती है।

मेरा सवाल यह है कि आज हम 21वीं शताब्दी में रहने के बाद भी हमारे साथ हो रहे भेद-भाव को क्यों नहीं रोक पाते हैं? हम इस भेदभाव के खिलाफ एक सशक्त आवाज़ क्यों नहीं बन पा रहे हैं? क्या हमारी समाजिकता में कुछ कमी है?

क्या लैंगिक असमानता आमबात है?

लैंगिक असमानता का अर्थ लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ किए जा रहे भेदभाव से है। एक लंबे अरसे से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में ही देखा गया है। वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेद-भाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के साथ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

नारीवादी विद्वानों ने इसके कारणों की पड़ताल की है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार,

पितृसत्ता सामाजिक संरचना की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें पुरुष, महिला पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और उसका शोषण करता है।

भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है। यहां पर सोचने वाली बात यह है कि जब दोनों बच्चे बेटा और बेटी एक ही माँ की कोख से जन्म लेते हैं, फिर भी उनमें भेद-भाव क्यों किया जाता है?

इन सारे सवालों पर अगर गौर किया जाए तो इसके जवाब हमारे आस-पास ही हैं लेकिन ये इतने अधिक सामान्य हो चुके हैं कि इनको गंभीरता से लेना ज़रूरी ही नहीं समझते हैं हम। हम देखे तो ये सब कुछ हमारे घर में ही विद्यमान है। चलिए आइये हम इसकी पड़ताल करते हैं कि इसके क्या कारण है और क्या भविष्य में इसके उपाय हो सकते हैं।

पुरुष के प्रति समाज की सोच-

हमारी सामाजिक संरचना पितृसतात्मक है, इसको तो मानते ही होंगे, जिनमें बच्चों की परवरिश की प्रक्रिया लिंग भेद के मूल्यों पर टिकी होती है, जिसकी वजह से बचपन में ही लड़कों में आक्रामकता के बीज बोना शुरू कर हो जाते हैं।

दरअसल, यह प्रक्रिया हमारे परिवार से समाजीकरण के रूप में ही शुरू हो जाती है। उदाहरण के तौर पर लड़कों को बचपन से ही बन्दूक, गाड़ी, स्पोर्ट्स जैसे मर्दाना खिलौने दिए जाते हैं। घर के बाहर के कामों को करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इन खिलौनों के मूल में बसी हिंसा की भावना, आज़ादी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगती है। उनके साहस, लड़ाकूपन, आक्रामकता, शारीरिक मज़बूती और पौरुषत्व जैसे लक्षण की प्रशंसा की जाती है।

पुरुष को प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से सिखाया जाता है कि वह मर्द है। मर्द को कभी दर्द नहीं होता है। उसको हर एक परिस्थितियों में अपने आपको कठोर साबित करना है, क्योंकि वह मर्द है। आमतौर पर यह सुना जाता है, “अरे यार तुम तो लडकियों/ औरतों की तरह आंसू बहा रहे हो”।

इन सबका प्रभाव उसके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसको मर्द बने रहने के लिए मजबूर करता है। उसके अन्य गुण विनम्रता, संवेदनशीलता, दयालुता, अनुभूति-प्रवणता जैसे गुणों का मज़ाक उड़ाया जाता है।

लड़कों को घरों के कामों को करने के लिए कभी प्रोत्साहित ही नहीं किया जाता है, क्योंकि उन कामों को करने के लिए तो माँ-बहनें हैं ही और शादी के बाद पत्नी होगी।

दरअसल, हमने कार्यों का बंटवारा भी स्त्री-पुरुष के नामों से कर दिया है, ये महिलाओं का काम, वो पुरुषों का काम है। इसे घरेलू श्रम विभाजन कहते हैं।

फोटो प्रतीकात्मक है।

घरों में लड़कों को राजा बेटा होने की संज्ञा से नवाज़ा जाता है, क्योंकि वह उसके कुल का रखवाला होता है और माँ-बाप के स्वर्ग पहुंचने का एकमात्र मार्ग होता है, जबकि बेटी के लिए इसके समतुल्य संबोधन अभी तक हमारे व्यवहार में नहीं आ पाया है।

इस तरह के समाजीकरण से वह खुद को औरत का मालिक समझने लगता है। जिस तरह उसकी माँ उसके पिता की गुलामी झेलती है, वैसे ही वह भी अपनी पत्नी के रूप में गुलाम की खोज करता है। वह औरत को तथाकथित आर्थिक सुरक्षा देकर बदले में उसकी आज़ादी ही नहीं छीन लेना चाहता है बल्कि उसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करने का हक भी हासिल कर लेना चाहता है।

महिलाओं के प्रति समाज की सोच-

लड़कियों को गुड्डे-गुडियों, घर-घर खेलना, रसोई से संबंधित खिलौने देना, माँ के साथ रसोई के कार्य, भाई से डरना, ऊंची आवाज़ में बात ना करना आदि सिखाने पर बल दिया जाता है। उसका शर्मीला, विनम्र, संवेदनशील, कम बोलना ये अच्छे गुण माने जाते हैं।

यही सब परिवार में समाजीकरण के माध्यम से सिखाया जाता है, जिसका प्रभाव इनके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
गौरतलब है कि पितृसत्तात्मक समाजों में एक महिला की पूरी ज़िन्दगी पुरुष के आधिपत्य में ही गुज़रती है। अगर देखा जाए तो बचपन और किशोरावस्था में वह अपने पिता के सानिध्य में रहती है। अपने यौवन में वह अपने पति या भाई के सानिध्य में रहती है और वृद्धावस्था में अपने बेटों पर निर्भर रहती है। हालांकि कई मामलों में परिस्थितियां बदली हैं लेकिन अभी भी एक बड़े वर्ग की सच्चाई यही है।

उसका जीवन इस बात पर टिका होता है कि उसका पति और परिवार उसे बेघर ना कर दे अर्थात स्त्री की यह विवशता हो गई है कि वह परिवार जैसी संस्था पर आश्रित रहे। भले ही इस संस्था से उस पर शोषण को वैधता मिलती हो।

लड़कियों को आमतौर पर ना शिक्षा मिलती है, ना ही पैत्रिक संपत्ति में हिस्सा। उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा जुआ यही है कि उन्हें कैसा पति और ससुराल मिलेगा? इसलिए बेटी की परवरिश का केन्द्रीय बिंदु यही होता है कि कैसे उसे बेहतर पति के लायक बनाया जाए।

अभी हाल में इसी मुद्दे को लेकर “सिटी ऑफ ड्रीम्स” नाम से वेब सीरीज़ दिखाई जा रही है कि कैसे एक पिता ने अपने बेटी को लड़की होने की वजह से अपना उत्तराधिकारी नहीं चुना, जबकि वह अपने भाई से ज़्यादा काबिल है। पिता ने उसको अपनी राजनीति में उत्तराधिकारी नहीं माना और नालायक लड़के को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया।

इस समस्या का समाधान भी है-

लैंगिक असमानता कोई एक ही दिन में आ जाने वाली बुराई नहीं है। असल में इसका संबंध हमारी दृष्टिकोण और परवरिश से है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी परिवार की होती है। इसी परवरिश के दौरान ही हम लैंगिक असमानता के बीज बो देते हैं। ये ही बीज आगे चलकर हमारे समाज में लैंगिक अपराध को जन्म देते हैं।

आज जब लड़का-लड़की दोनों वर्किंग हैं तो क्या सदियों से चली आ रही यह बेटी और बेटों की परवरिश का प्रतिमान सही है? इस पर ध्यान आकर्षित करना चाहिए।

जहां तक मेरा मानना और सोचना है कि हर तरह की समस्या का समाधान होता है, कोई समस्या अपने साथ समाधान भी लेकर आती है, बस ज़रूरत है तो उसे खोज निकालने की। इसकी शुरुआत हमें अपने परिवार से करनी चाहिए। हालांकि इसके समाधान की सुगबुगाहट को देखा जा सकता है।

आज आधुनिक समाज में कुछ माँ-बाप की सोच में परिवर्तन आया है। कुछ परिवार लड़का-लड़की में भेद नहीं करते हैं। आज के पेरेंट्स पढ़े-लिखे हैं और पुरानी रुढ़ियों और संकीर्णता को तोड़ रहे हैं। बच्चों को हर तरह के काम की महत्ता को समझाते हुए उसे करने पर बल दे रहे हैं।

आज पेरेंट्स अपने बच्चों को सबके प्रति संवेदनशील व्यवहार को सिखा रहे हैं लेकिन ऐसा अभी भी हर जगह और हर परिवार में नहीं हो रहा है। आज ज़रूरत है कि हर परिवार में इसकी शुरुआत हो, तो निश्चित तौर पर हम समाज में व्याप्त इस लैंगिक असमानता को पूरी तरह से मिटाने में सफल होंगे।

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