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“महामारी में भी किसान बिल वापसी नहीं तो घर वापसी नहीं के नारे के साथ सड़कों पर डटा हुआ है”

"महामारी में भी किसान बिल वापसी नहीं तो घर वापसी नहीं के नारे के साथ सड़कों पर डटा हुआ है"

कोरोना की दूसरी लहर में किसान सड़कों पर बैठकर मज़बूती से सरकार और कोरोना दोनों से मुकाबला कर रहे थे। आंदोलनकारी किसान कोरोना की दूसरी लहर से मुकाबला तो कर लिए लेकिन सरकार से इनकी लड़ाई अभी बाकी है।

बीते 2 महीनों में कोरोना की दूसरी लहर से पूरे देश में भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई थी, जिसमें लोगों को अस्पताल में ना बेड मिल पा रहा था, ना ही ऑक्सीजन मिल रहा था। लाखों लोगों ने दवा के अभाव में दम तोड़ दिया। इन सब के बीच में भी किसान अपनी जान दांव पर लगा कर सड़कों पर बैठे रहे।

किसान पिछले 4 महीनों से 3 कृषि बिलों को रद्द कराने और MSP पर उचित कानून बनाने की मांग को लेकर दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर डेरा जमाए हुए हैं। जहां सरकार का दावा है कि इस बिल से कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा, जिसका सीधा लाभ किसानों को होगा और उनकी आय में बढ़ोतरी होगी। वहीं किसानों का कहना है कि इस बिल के बाद किसानों की ज़मीन तक बचानी मुश्किल हो जाएगी और हमें जितना MSP मिल पाता था, वो भी नहीं मिल पाएगा।

सांता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, देश के मात्र 6% किसानों को ही MSP मिल पाता है। वहीं बाकी के किसान खुले बाज़ार पर ही निर्भर रहते हैं। जहां किसानों को कभी उचित भाव नहीं मिल पाता है। वहां आंदोलन में बैठे सभी किसानों का यही कहना है, जब मैं किसानों से बात करने ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर पहुंचा, तो वहां पहले की तरह उतनी हलचल नहीं थी।

कुछ युवा आंदोलनकारी किसान घेरी मार कर बैठे थे, मैंने उनसे बात करने की पेशकश की तो वे शुरू में तैयार हो गए, लेकिन कुछ ही पल बाद आशंकित से हो गए उन्हें लगा मैं किसी और मकसद से उनसे बस सूचना लेना चाहता हूं। इसके बाद मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मेरा आपसे बात करने कोई अन्य मकसद नहीं है। मैं बस आपसे किसानों के मुद्दों पर खुलकर बात करना चाहता हूं।

ये 25-30 के साल युवा किसान भविष्य में इस बिल को लेकर इतने आशंकित और भयभीत क्यों हैं? 

मेरी पहली बात मुज़फ्फरनगर के सीसौली गाँव के नितिन बालियान से हुई। नितिन बताते हैं कि हम लोग 4 सितंबर से ही, यहीं गाज़ीपुर बॉर्डर पर बैठे हैं। यहां पहला जत्था हम ही लोग लेकर आए थे। उस वक्त हमारी संख्या 100-200 थी। शुरुआती दौर में हमारे पास कुछ नहीं था। हम यही ओवर ब्रिज के नीचे रुके थे फिर मैंने पूछा कि आप लोगों को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? उनका जवाब थोड़ा रुखा था, देखो भाईसाहब दिक्क्तें तो बहुत हैं पर बिल वापस करवाए बिना हम अपने घर नहीं जाने वाले हैं।

जब हम लोग ठण्ड में आए थे तो हमने 1 -1 चादर में रात गुज़ारी थी और सर्दी को दूर करने के लिए आस-पास से सूखी लकड़ी तोड़कर जलाई थी। कुछ दिन बाद भयंकर तूफान भी आया। यहां जिस हालात में किसान जी रहे हैं, उसे कोई मज़ा नहीं आ रहा है और सरकार हम पर खालिस्तानी होने का आरोप लगाती है।

ये आंदोलन ज़मीन बचाने का है। हम पर तीन कृषि काले कानून थोप दिए और हम चिल्ला-चिल्ला कर एक कानून की मांग कर रहे हैं कि MSP पर कानून बना दो, लेकिन सरकार हमारी बात सुन नहीं रही है। जब पूरे देश में लॉकडाउन था तब सरकार किसानों के लिए तीन काले कानून लेकर आई। लोकसभा में प्रश्नकाल खत्म कर दिया।

इस बिल के अलावा और आप लोगों की क्या समस्याएं हैं? देखो, हमारे बालक हैं, हमारे बाप-दादा के पास इतनी ज़मीन तो है नहीं कि जो लाखों-करोड़ों की हो। हम फसल तो डाल आए, लेकिन हमें पैसा कब मिलेगा? इसका कुछ पता नहीं। कर्ज लेकर बेटे की फीस देनी पड़ती है। लड़की की शादी और घर के भी खर्चे भी हैं, बीज लेने जाओ तो वहां उधार नहीं मिलेगा। अगर समय पर हमारे ही पैसे मिल जाए तो हमें किसी भी चीज़ की दिक्कत नहीं होगी।

बगल में बैठे भानू प्रताप अपना परिचय देते हुए बताते हैं कि मैं मेरठ से एक मध्यम किसान परिवार से आता हूं और इस किसान आंदोलन से शुरू से ही जुड़ा हुआ हूं। मैंने भानु से सवाल पूछा कि आपने इस आंदोलन से क्या सीखा? जवाब देते हुए उसने कहा कि इस आंदोलन से तो मुझे यही चीज़ सीखने को मिली है कि भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा हथियार प्रदर्शन और भूख हड़ताल करना है, जिससे आप अपनी बात को मनवा सकते हैं। 

भानू का इशारा इस आंदोलन को लेकर था कि हम बिना बात मनवाए कहीं नहीं जाने वाले हैं। देखो 120 दिन से यहां किसान बैठे हैं और कोई बात नहीं कर रहा है। आपके घर किसान आए हैं, उनसे जा कर बात करो। किसान ही तो वोट देता है। कोई प्राइवेट कम्पनी तो है नहीं जो एक बार पास कर दिया तो वही रहेगा। आप जिनके लिए ऑर्डर पास कर रहे हो, उनको नहीं चाहिए। सरकार एक सर्वे ही करा लो लेकिन सरकार कुछ करा ही नहीं रही है। जब देश में लॉकडाउन लगा था तो किसान ही तो खेत में काम कर रहे थे। आप लॉ दो कि हम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदारी करेंगे।

किसानों के बच्चों को किस प्रकार से भेदभाव का सामना करना पड़ता है ?

वहीं पास में बैठे अविनाश ने बताया कि मैं खुद एक किसान परिवार से आता हूं। हमें अक्सर स्कूलों में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। जब प्रिंसिपल हमसे स्कूल फीस मांगते हैं तो हमारे घर वालो के पास पैसे होते नहीं थे और हमें घंटो-घंटो तक परेड में खड़ा कर दिया करते थे। हम बड़े स्कूलों में भी नहीं जा पाते हैं, क्योंकि हमारे बाप-दादा के पास इतने पैसे नहीं हैं।

हमारे यहां के बच्चे बड़े कॉलेज में जाने के बजाय 12वी के बाद भर्ती में जाने लगते हैं। कागज़ों में न्यूनतम समर्थन मूल्य 1975 रुपये है और बेचना 1200 रुपये में पड़ता है। मैंने महामारी को लेकर सवाल पूछा कि आप सब को कोरोना से डर नहीं लगता? देखो भाई जी, मोदी ने तो उसी दिन भय खत्म कर दिया था कि जब पूरा देश बंद था और ये बिहार में चुनाव करा रहे थे। हरिद्वार में कुम्भ चल रहा था, वहां कोई कोरोना नहीं था। असम और बंगाल में भी कोई कोरोना नहीं है, बस दिल्ली एनसीआर में ही कोरोना का भय बनाया जा रहा है क्योंकि किसान लोग प्रदर्शन ना करें।

आखिर किसानों के लिए ये बिल और न्यूनतम समर्थन मूल्य इतना बड़ा मुद्दा क्यों है?

मैंने जब वहां किसानों से बात की तो अधिकतर किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की बात कर रहे थे। इस पर मैंने वहां एक युवा किसान नितिन सागर से बात की तो उनका कहना था कि मेरे घर की कई पीढ़ियां खेती ही करती आ रही हैं। इस देश का किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की लड़ाई कई पीढ़ियों से लड़ता आ रहा है।

मेरे नाना जी और मेरे मामा जी अक्सर कहा करते थे कि जीजी इस बार भी धान का भाव अच्छा नहीं मिला है। इस बिल ने हमारी समस्या बढ़ा बहुत दी है कि किसान को तो रेट मिलेगा नहीं और हमें महंगा खरीदना पड़ेगा। अगर किसान को 5 रुपये में गेहूं बेचना पड़ेगा तो आटा 500 रुपये में खरीदना पड़ेगा। आगे नितिन कहते हैं कि जब भण्डारण होगा तो चीज़ें  महंगी हो जाएंगी।

सरकार का तर्क है कि बिल से किसानों को बहुत फायदा होगा। देखिए पहली बात कृषि बिल बनाने का अधिकार तो केंद्र सरकार के पास तो है ही नहीं, ये तो राज्य का मामला है फिर मोदी जी ने ऐसा क्यों किया? नरेंद्र मोदी से यही कहेंगे कि हम कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग नहीं चाहते हैं, क्योंकि ये जहां-जहां हुई है वहां किसानों को नुकसान ही उठाना पड़ा है।

मोदी जी को तो अधिकतर किसानों ने ही वोट दिया है, जितना प्रेम इन्हें मिला है उतना किसी नेता को नहीं मिला है। मोदी जी इस कानून को नाक का सवाल बना लिए हैं, जो बिल केवल अम्बानी और अडानी को फायदा देगा। मैंने पूछा आप कब तक यहां बैठोगे? जी, हमें पता है कि बिल वापसी नहीं तो घर वापसी नहीं, अगर हम आज नहीं लड़े तो हमारे बच्चे नहीं लड़ पाएंगे।

66 वर्ष के किसान नेता शंकर सिंह यादव का मानना है कि लोकतंत्र में सरकार को लोगों की बात सुननी चाहिए, लेकिन सरकार तानाशाही रवैया अपना रही है। अभी तक 300 से ज़्यादा किसान शहीद हो गए हैं। किसानों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। सरकार और उसके समर्थक लगातार किसान आंदोलन के फंडिंग पर सवाल खड़े करते रहे हैं लेकिन इस किसान आंदोलन को किसान अपने खुद के पैसे से चला रहे हैं। 

वो आगे बताते हैं कि काम तो खराब होता ही है लेकिन इस बार हमारी पूरी फसल चौपट हो गई, कोई फायदा नहीं हुआ और नुकसान हो गया। ये सरकार अम्बानी और अडानी के चक्कर में बिल्कुल अंधी हो गई है। मैंने जब पूछा कि बीते दिनों में आपको किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़ा ? देखो, जो गाँव में गेहूँ काट रहा है, उससे तो यहां ठीक ही है। वैसे, किसान तो हर तरह से मौसम चाहे बरसात हो या ठण्ड सब झेल जाता है। गन्ने की पिराई और कटाई दोनों चल रही हैं और इस बीच हम आंदोलन भी चला रहे हैं।

जब तक सरकार हमारी बात नहीं मानेगी तब तक हम यहां से नहीं जाने वाले हैं। कोविड की तीसरी लहर को लेकर डर नहीं लगता? जब चुनाव होते हैं तो कोविड नहीं होता, बंगाल चुनाव हुआ और अभी यूपी में पंचायत चुनाव हुआ क्या वहां कोरोना नहीं था? मैं धान की खेती करता हूं, सरकार ने धान का मूल्य 1866 रुपये तय किया, लेकिन एक दो प्रतिशत किसानों को छोड़कर बाकी किसानों को 1000 रुपये किवंटल खुले बाज़ार में अपना धान बेचना पड़ा। पिछली बार मेरा गेहूं 1500 रुपये किवंटल पर बिका था। धीरे-धीरे मंडिया खत्म हो जाएंगी तो बताओ छोटा किसान 10 किवंटल गेहू बेचने बाहर तो नहीं जायेगा, वो तो पास की मंडी में ही जाएगा।

मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य का एक सीमित दायरा है

हम अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदारी की बात करें तो यह पंजाब और हरियाणा 80% हो जाती है। पंजाब में धान की सरकारी खरीद लगभग 9 5% होती है। वहीं हरियाणा में लगभग 70% तक हो जाती है। यूपी में मात्र 3. 6% और वहीं बिहार में मात्र 1% गेहूं की सरकारी खरीदारी होती है।

एक बात बताते चलें कि बिहार(APMC ACT 2004) में ही खत्म हो चुका है और किसान पूरे तरीके से बाज़ार पर निर्भर है। सांता कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि मात्र 6% किसानों की ही फसल सरकारी खरीदारी हो पाती है, वो भी मात्र 6 फसलों पर ही खरीदारी होती है बाकी की 18 फसलों पर सरकारी खरीदारी नहीं हो पाती है। 

इण्डियन काउंसिल रिसर्च पर इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन ने एक डाटा दिखाया है कि 2000 से 2017 तक भारतीय किसानों को 45 लाख नुकसान हुआ है। किसानों को इसी बात का डर है कि कहीं जो हमे मिल रहा है शायद आगे चल कर वो भी ना मिले। सोशल इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के पूर्व निदेशक एन सिन्हा का कहना है कि जब बिहार में (APMC ACT) हटने के बाद भी बिहार के किसानों को आधे दर पर फसल बेचना पड़ता है। जब ये खुले बाजार का प्रयोग बिहार मे ही असफल रहा है तो पूरे देश में इसकी सफलता की गारन्टी सरकार किस आधार पर दे रही है? 

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