Site icon Youth Ki Awaaz

बढ़ते शहर और अंतिम संस्कार के लिए कम पड़ती ज़मीन

"बढ़ते शहर और अंतिम संस्कार के लिए कम पड़ती ज़मीन"

एक तरफ जहां पृथ्वी पर इंसानों की आबादी बढ़ रही है ठीक वहीं दूसरी तरफ इंसानों के शवों को दफनाने के लिए ज़मीन कम पड़ रही है। विश्व में दिन-प्रतिदिन बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरों के साथ उसकी आधारभूत संरचना के चलते आज विश्व में सिंगापुर, लंदन, न्यूयॉर्, येरूशलम, इस्तांबुल, सिडनी और वैंकुवर जैसे शहरों में इंसानों के अंतिम संस्कार के लिए ज़मीन कम पड़ रही है। आज पूरे विश्व में ज़मीन की किल्लत इस कदर पड़ गई है कि कब्रों से शव को निकालने तक की मज़बूरी आ गई है।

यह बात ग्रीस के एथेंस शहर के सबसे बड़े कब्रिस्तानो में से एक की है, जहां करीब 28 हज़ार कब्रें हैं। यहां रोज़ाना करीब 15 लाशों का क्रियाकर्म किया जाता है यानी साल में 5000 से अधिक लाशें दफन की जाती हैं। यहां जगह की कमी इस कदर है कि शव दफनाने के लिए, पहले एक कब्र को खाली करना होता है। हर तीन साल में यह काम किया जाता है। वहीं, जो लोग पैसे चुका सकते हैं, वो कुछ सालों तक कब्र किराए पर ले सकते हैं।

अब सवाल यह है कि क्या तीन साल में शव पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं?

इसका जवाब है हो भी सकते हैं और नहीं भी। यह निर्भर करता है कि उस कब्र की मिट्टी कैसी है? उसमें कितने जीवित टिश्यूज को नष्ट करने की क्षमता है और साथ ही वहां का मौसम कैसा है? अगर किसी आदमी के शव को दफनाया गया है तो हो सकता है कि वो तीन साल में पूरी तरह नष्ट ना हो, लेकिन एक बच्चे का शव तीन साल में नष्ट हो जाता है।

वहीं हांगकांग में हर साल लगभग पचास हज़ार लोगों की मौत होती है जिनका दाह संस्कार किया जाता है और उसके बाद मृतकों की राख को कलश में भर कर कोलंबेरियम नाम की इमारत में स्थित छोटी-छोटी अलमारियों में रखा जाता है, लेकिन अब कोलंबेरियम के लिए भी जगह कम पड़ रही है। अभी 20 हज़ार लोगों के कलश, कोलंबेरियम में जगह पाने के इंतज़ार में हैं।

सरकार द्वारा लोगों को जागरूक करने के बाद अब हांगकांग में 90% से ज़्यादा लोग अपने परिजनों के शवों का दाह संस्कार चाहते हैं। कल्चर एंथ्रोपोलॉजिस्ट रुथ स्टोलसन, जो फिलहाल शवों के लिए जगह की कमी के मुद्दे पर एक किताब पर काम कर रही हैं उनका कहना है कि हम शवों का इस्तेमाल कर सकते हैं।

वह आगे बताती हैं कि उनके लैब के छात्रों ने एक तरह के खास पॉड्स डिज़ाइन किए हैं जिनके भीतर शव रख कर उसे गलने के लिए छोड़ दिया जाएगा और उससे एक उर्जा पैदा होगी जिसका इस्तेमाल घरों और सड़कों को रोशन करने में किया जा सकता है। स्टोलसन कहती हैं कि मान्यताओं के आधार पर शवों को दफनाना सही लगता है, लेकिन तार्किक नज़रिए से देखा जाए तो यह ज़मीन की बर्बादी है।

क्या लोग अपने चाहने वालो के शवों को उर्जा में तब्दील होते देख सकेंगे?

इस पर स्टोलसन का मानना है कि मृतक के शव के साथ इंसान का नाता इतना गहरा है कि इस परंपरा को छोड़ पाना आसान नहीं हैं। हमारे लिए ऐसे समाज की कल्पना कर पाना भी मुश्किल है जिसमें इंसान और मृतक के शव के बीच कोई नाता ना हो। मुझे लगता है कि कोई भी इंसान इस बात के लिए राजी नहीं होगा, क्योंकि एक इंसान के तौर पर जो बात हमें सबसे अलग करती है, वो है हमारी एक-दूसरे के लिए भावनाएं, जो एक-दूसरे से जुड़ी हुई  होती हैं। जो हमें कभी भी इस बात के लिए राजी नहीं होने देंगी, क्योंकि इंसान ज़िंदा रहते ही नहीं बल्कि मरने के बाद भी अपनों का ख्याल रखते हैं।

हर धर्म की अपनी अलग-अलग मान्यताएं हैं और लोग उनका पूरी निष्ठा से पालन करते हैं जैसे हिन्दू धर्म में शवों का अंतिम संस्कार जला कर किया जाता हैं और वहीं ईसाई, मुस्लिम धर्म में दफना कर। ऐसे में सवाल यह उठता है कि बढ़ती हुई आबादी और दफनाने के लिए कम पड़ती ज़मीन के बीच क्या शव संस्कार के तरीके बदलेंगे?

इस पर मेरा मानना है कि जैसे इंसानों का दिमाग विकसित हो रहा है और जिस तरीके से उनके सोचने-समझने की क्षमता बदल रही है इसको देखते हुए यही लगता है कि भविष्य में शव संस्कार के तरीके भी बदल जाएंगे।

Exit mobile version