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“किसी की मौत पर हंसना हमारे सामाजिक मूल्यों का मर जाना है”

"किसी की मौत पर हंसना हमारे सामाजिक मूल्यों का मर जाना है"

एक पत्रकार, एक फोटो पत्रकार जिसको पूरी दुनिया में उसकी तस्वीरों के लिए जाना जाता था। दानिश सिद्दीकी नामक भारतीय फोटो जर्नलिस्ट की की हत्या तालिबानी आतंकवादी संगठन द्वारा अफगानिस्तान में उस समय कर दी गई, जब वो अफगान सेना के साथ इस युद्ध को कवर करने जा रहे थे। 

उनकी हत्या की खबर आते ही भारतीय प्रबुद्ध वर्ग दो भागों में बंट गया, जो कहीं-ना-कहीं अपने-अपने राजनैतिक इन्फ्लुएंस के चलते बंटा लेकिन इस बीच उनकी मौत पर फिर से एक प्रजाति कूदकर शोर मचाने लगी और अट्टहास करने लगी, जिसके दीर्घकालिक प्रभाव पर बात करना बेहद ज़रूरी है। 

दरअसल, देश में यह प्रजाति काफी तेज़ी से बढ़ी है, जो किसी भी मौत में से अपने मतलब की बात निकालकर बिना किसी नैतिक और मौलिक मूल्यों के उस व्यक्ति को नोचना शुरू कर देती है। चाहे वो रोहित सरदाना की मौत हो या दानिश सिद्दीकी की मौत हो, लेकिन इस भीड़ का भारतीय समाज और लोकतांत्रिक स्वतंत्र विचार मंच पर आने वाले भविष्य में काफी गहरा प्रभाव पडने वाला है और हमें आज इस पर बात करनी बेहद ज़रूरी है। 

दानिश सिद्दकी

दानिश सिद्दीकी की मौत जाहिर तौर पर एक इस्लामिक आतंकवादी और कट्टरपंथी संगठन तालिबान द्वारा की गई है, जिसके जन्म में जाएं तो कहीं-ना-कहीं उसका उदय भी ऐसे ही लोगों के शैतानी दिमाग से हुआ है, जिनको किसी की भी मौत में बस अपना एजेंडा निचोड़ना आता है। भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में विगत कुछ वर्षों में ऐसी अमानवीय घटनाएं बढ़ी हैं, जहां मानवता के मूल्यों को ताक पर रखते हुए किसी व्यक्ति की मौत या उसके साथ हुई किसी बुरी घटना का मखौल बनाना लोगों की आदत बन गई है। 

सोशल मीडिया का उपयोग सोशल इंजीनियरिंग और एक साम्यवादी और सरल विचार मंच के तौर पर उपयोग होना था, मगर अफसोस वर्तमान में ऐसा नहीं हो रहा है, जो कि एक आदर्श ऐतिहासिक लोकतंत्र और विचारों की आज़ादी के पैरोकार देश के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।

सवाल यही है कि क्या किसी की मौत का मखौल उड़ाना ठीक है? विचारों की आज़ादी के नाम पर जिस कुरूपता का नंगा नाच ये चंद लोग सोशल मीडिया पर स्वयं की प्रसिद्धि को हासिल करने के लिए करते हैं, वह देश की संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था को एक भयानक दिशा में लेकर जा रहा है।  

रोहित सरदाना

ऐसे में एक ज़िम्मेदार नागरिक के तौर पर हर आम व्यक्ति का यह कर्तव्य बनता है कि वह ऐसी किसी भी विचारधारा को प्रथम सिरे से नकारे। अटल बिहारी बाजपेई की मौत, राहत इंदौरी की मौत, रोहित सरदाना की मौत और अब दानिश सिद्दीकी की हत्या, इन सब घटनाओं के बाद ऐसे हुड़दंगियों को हर स्तर पर चुप कराना अति आवश्यक है। 

ऐसा माना जा सकता है कि दानिश सिद्धिकी की तस्वीरें, रोहित सरदाना की बातें आपके राजनैतिक विचारों से मेल नहीं खाते लेकिन क्या किसी की मौत पर अट्टहास करके आप उसके काम को मिटा सकते हैं? क्या रोहित सरदाना ने जिन विरोधियों को अपने शब्दों के दंगल में पटखनी दी तो आप यह क्रूर अट्टहास करके उन विरोधियों को जिता सकते हैं या दानिश ने जिन तस्वीरों के ज़रिये सरकारी मशीनरी और दुनिया की तमाम कमियों को उजागर किया, क्या आप उस पर इस बेशर्मी के प्रदर्शन से पर्दा डाल सकते हैं? इसका जवाब है नहीं, जिसने जो किया वह उसके साथ चला गया और आप शोर मचाकर महज़ उनके पीछे बच गए लोगों को दर्द दे सकते हैं, जिसके वो कतई हकदार नहीं हैं। 

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