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“माँ, क्या तुम रोज़ एक ही काम करते-करते ऊबती नहीं?”

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काम करती हुई माँ की प्रतीकात्मक तस्वीर

पिछले तीन सालों में यह पहली बार है जब मैं इतने लंबे समय से घर पर हूं। ज़्यादातर मैं तीन-चार दिनों से ज़्यादा घर पर रह ही नहीं पाती थी।

इस बीच एक चीज़ और जो पहली बार हुई है मेरे साथ वो ये कि मुझे मेरी माँ के काम की कद्र महसूस हुई है।

आपको हर हफ्ते ये डिब्बे क्यों साफ करने हैं? बगीचे में सब्जी क्यों उगा रही हो? फूल काफी नहीं पानी देने के लिए? मैं आजकल माँ से ऐसे कोई सवाल नहीं करती हूं।

पापा स्पेशल आर्म फोर्स में काम करते हैं। कोरोना वायरस के चलते वो ऑन ड्यूटी हैं और पिछले कई महीनों से घर नहीं आ सके हैं।

लेकिन माँ तो घर पर रहकर भी हमेशा ऑन ड्यूटी ही रहती है। पिछले जितने सालों से मैं उसे देख रही हूं। शायद हर वक्त वो ड्यूटी पर ही है।

कभी मेरे लिए, कभी भाई के लिए, कभी पापा के लिए, कभी दादा-दादी के लिए और शायद शादी से पहले अपने घर के लिए जिसका एहसास शायद मुझे अब जाकर हुआ है।

इन सबके बीच कई बार मुझे लगता है, माँ कि अपनी जिंदगी कहां है? माँ ने शायद हमें और इन कामों को ही अब अपनी जिंदगी मान लिया है।

मैं और मेरा भाई नौकरी और पढ़ाई के चलते कई सालों से बाहर ही रह रहे हैं। अप्रैल का महीना है और पिछले साल की अप्रैल में ही मैंने बैंक की नौकरी जॉइन की थी जो मैंने आठ महीने में ही छोड़ दी। बिना मन के एक ही काम करते-करते मैं ऊब गयी थी।

नौकरी छोड़कर मैंने अपना बैकपैक उठाया और घूमने निकल पड़ी। पॉन्डिचेरी, ऑरोविल, दिल्ली, आगरा, देहरादून, अहमदाबाद और बनारस घूमते-घूमते मैंने तीन महीने बिता दिए। फिर कोरोना और लॉकडाउन के कारण मैं अपने गांव लौट आयी।

लेकिन माँ का क्या? वो पिछले कितने सालों से एक ही काम कर रही है? क्या वो नहीं ऊबी अब तक? या फिर उन्हें वो स्पेस मिला ही नहीं कि वो कह सके कि वो ऊब गई हैं ये सब करते-करते? जैसे मैं कह देती हूं।

मेरी माँ से मैंने यह कभी नहीं सुना कि वो एक ही काम को करते-करते ऊब गयी हैं। शायद उन्हें ऐसा कोई मिला ही नहीं जिसे वो ये सब बताए। या फिर उनकी इन बातों को समझें।

मैं खाने की ज्यादा शौकीन नही हूं, ना ही खाना बनाने में मेरी कोई दिलचस्पी है। लेकिन आजकल मैं ही दोपहर का खाना बना रही हूं। मेरी माँ आजकल गेंहू, दाल, चावल साफ करके उन्हें व्यवस्थित रखने में जुटी है। शाम को वक्त मिलता है तो मुझे ब्याह, सोहर और बाकी लोकगीत भी सिखाती हैं।

लेकिन क्या आज तक उनसे किसी ने ये पूछा है कि वो इतने सालों से ये सबकुछ एक साथ कैसे कर रही हैं?

मैं जब किसी नए शहर घूमने निकलती हूं तो कई बार किसी को इस बात की खबर तक नहीं होती है। मगर मैंने हमेशा ये पाया था कि माँ को अपने मायके तक जाने के लिए पापा का मन टटोलना पड़ता था।

मुझे यह जरा भी नहीं भाता था। वैसे तो मेरे माँ-बाप के बीच कभी तू-तू-मैं-मैं भी नहीं हुई। कहीं-न-कहीं माँ हमेशा एडजस्ट करती आयी हैं।

लेकिन माँ ही क्यों एगजस्ट करती है? पापा भी तो कर सकते है? या फिर माँ के आस-पास जहां भी हमेशा माँ ने अगजस्ट किया दूसरे लोग भी तो कर सकते थे?

लड़की जवान होते-होते कब माँ की सहेली बन जाती है, पता भी नहीं लगता है। माँ-पापा से बात करते-करते मैंने उन दोनों के दिमाग मे यह बात पहुंचाई कि अपने मायके जाने के लिए माँ सबका मन झांके और अपनी इच्छा मारें ये गलत है।

मेरे पहल करने से धीरे-धीरे परिवर्तन आया और माँ कभी भी बिना पूँछे या बिना बताए अब अपने मायके जाने लग गयी। अपनी इस आज़ादी से वो काफी खुश होती हैं।

जिम्मेदारियों को समेटते-समेटते ना जाने कितनी माँएं रिश्तों और भावनाओं के बीच कैद हो जाती हैं। इनकी आज़ादी में ना जाने अभी और कितना वक्त लगेगा।

अपनी माँ के लिए एक दोस्त बनिए जिससे वो ये कह सकें कि अब मैं थक गई हूं, मैं अब और अडजस्ट नहीं करना चाहती हूं, मुझे अब बोरियत होने लगी है एक ही काम करते-करते। माँ को एक स्पेस दीजिए जहां वो आपसे खुलकर अपनी परेशानियां भी बता सकें। माँ के लिए सबसे कम हम इतना ही कर सकते हैं।

एकता सिंह

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