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“बिहार में बिताए वो दस दिन, जिन्हें शायद ही मैं कभी भूला पाऊं”

पिछले साल की ही बात है, नवंबर महीने की वो गुलाबी ठण्ड और खिली-खिली धूप के साथ पूरा दिन काफी सुहावना प्रतीत होता था। कहीं भी घूमने जाने के लिए जो सबसे बेहतरीन समय था। शादी-ब्याह का समय भी शुरू हो चुका था, जिस कारण मेरे घर भी शादी के कई निमंत्रण आये हुए थे। उन्ही में से एक निमंत्रण हमारे गाँव से भी आया हुआ था। गाँव में रहने वाले दूर के चाचा जी की शादी थी।

वो पापा की काफी इज़्ज़त करते हैं इसलिए पापा को गाँव आकर पूरे परिवार समेत शादी में शामिल होने को कहा। पापा ने भी उनका मन रखने के लिए शादी में आने के लिए हां कर दी, परन्तु प्राइवेट नौकरी करने वाले व्यक्ति के लिए अपना सारा काम छोड़ कर गाँव जाना काफी मुश्किल होता है, जिस कारण पापा ने बिना कुछ कहे बात टाल दी और अपने काम में मशरूफ हो गए।

आज दो दिन बाद चाचा जी का फिर फ़ोन आया इस बार फ़ोन मैंने उठाया था। चाचा जी ने पूछा और तैयारी कहां तक पहुंची?

जब पापा ने मुझे गाँव जाने को कहा

मैंने भी ज़्यादा कुछ ना सोचते हुए कहा की “हां पापा कोशिश कर रहे हैं मगर दफ्तर में काम ज़्यादा होने के कारण उन्हें छुट्टी नहीं मिल पा रही है। “परन्तु चाचा ने इस सब के बाद भी शादी में आने का अनुरोध किया मगर मैं जानता था की यदि पापा को छुट्टी मिल भी गई, तब भी इतने कम वक्त के रहते लगन (शादी) के समय बिहार जाने वाली ट्रेनों में कन्फर्म टिकट मिल पाना काफी ज़्यादा मुश्किल था और वेटिंग टिकट ले कर पूरे परिवार समेत यात्रा करना और भी मुश्किल !

फिर मैंने चाचा जी को प्रणाम कर फ़ोन रख दिया। देर रात पापा जब दफ्तर से घर आए तो खाना खाते समय मैंने उन्हें चाचा से हुई सारी बात बता दी। पापा ने भी कहा की उन्होंने दफ्तर से छुट्टी लेने की बात की मगर कोई  फायदा ना हुआ।  फिर कुछ ही पल बाद पापा मुझसे एकाएक बोल पड़े की पूरे घर की तरफ से तुम शादी में क्यों नहीं चले जाते? कई सालों से पढ़ाई के सिलसिले में कहीं बाहर घूमने भी नहीं गए हो, यदि कम से कम तुम भी चले जाओगे तो तुम्हारे चाचा जी को काफी ख़ुशी मिलेगी और तुम्हारा भी गाँव घूमना और सबसे मिलना हो जाएगा, तुम कुछ नया जान और सीख भी पाओगे।

पापा की बातें सुनकर मेरे मन में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, जिसका कारण ये था की मुझे नई-नई जगहों पर घूमना और उन जगहों के बारे में जानना बेहद पसंद है और ऐसा ही एक अवसर मेरे सामने था इसलिए मैंने बिना ज़्यादा कुछ सोचे-समझे जाने के लिए हां कर दी। अगले ही दिन रेलवे स्टेशन जाकर मैंने वेटिंग टिकट करवा लिया, क्योंकि  उस वक़्त बिहार जाने वाली किसी भी ट्रेन में कन्फर्म टिकट संभव ही नहीं था।

मेरा टिकट 21 नवंबर का था, जो मैंने गाँव जाने से दो दिन पूर्व ही कटवाया था। मैं ‘विक्रमशिला एक्सप्रैस’ के द्वारा दिल्ली के ‘आनंद विहार’ रेलवे स्टेशन से बिहार के भागलपुर जंक्शन तक का सफर तय करने वाला था, जिसकी दूरी करीब 1200 किलोमीटर की थी। मैं बता दूं की मेरे गाँव का नाम ‘आज़ादनगर गोनूधाम’ है, जो बिहार के भागलपुर ज़िले में स्थित है। मेरी ट्रेन का समय दोपहर के 2;40  का था।

राजनीतिक बहस के साथ काटा लंबा सफर

21 नवंबर की सुबह जाने की उत्सुकता में मैं समय से पहले ही उठ गया  और अपने जाने की तैयारियों में जुट गया। धीरे-धीरे तैयारियां करते हुए कब समय निकल गया पता ही ना चला। करीब 12;30 बजे मैं, अपने घर से रेलवे स्टेशन जाने के लिए निकल गया और तकरीबन 2 बजे तक मैं आनंद विहार रेलवे स्टेशन जा पहुंचा।

गाड़ी समय से पहले ही प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। टिकट वेटिंग में होने के कारण मैं भी तुरंत गाड़ी में चढ़कर किसी खाली सीट की तलाश में जुट गया, जहां मुझे कम-से-कम बैठ कर सफर करने तक की सीट मिल सके। कुछ ही देर में मुझे एक खाली सीट मिल गई, क्योंकि उस सीट पर सफर करने वाले यात्री कानपुर स्टेशन पर चढ़ने वाले थे और गाड़ी के कानपुर पहुंचने का समय करीब रात 10 बजे का था।

थोड़ी ही देर में गाड़ी अपने निर्धारित समय से स्टेशन से खुल गई और साथ-ही-साथ गाड़ी में हो रहा शोर भी धीरे-धीरे कम होता गया और मेरा पूरा ध्यान गाड़ी के बाहर के नज़ारे को देखने में रम गया। कुछ घंटे में शाम हो चली थी और अब हम शहर से काफी दूर निकल आये थे। साथ  ही अब ठण्ड का भी एहसास होने लगा था इतने में एक चाय वाला अपनी दबी आवाज़ में बोलता दिखा “चाय…..चाय….चाय गरमा गर्म चाय।”

चाय की आवाज़ सुन मेरी निगाहें उसे ढूंढ़ने लगी और कुछ ही पलों में वो मेरे सामने था।  मुझे ट्रेन की चाय कुछ खास पसंद नहीं मगर ठण्ड का एहसास होने के कारण मैंने उससे एक कप चाय देने को कहा, उसने तुरंत प्लास्टिक के कप में आधी ठंडी चाय मेरे हाथ में थमा दी।

स्वाद कुछ खास नहीं था परन्तु चाय पीने के बाद ठण्ड का एहसास कुछ कम हो रहा था और इतने में देखते-देखते वो चाय वाला पूरी बोगी को चाय देता हुआ बाहर निकल गया।

ऐसे ही थोड़ा समय और निकला तो साथ बैठे लोगों ने आपस में बातें करना शुरू कर दिया और इतने में सामने बैठे अंकल ने मुझसे मेरा नाम और मेरे बारे में पूछा। मैंने भी बड़ी सहज़ता से कहा कि अंकल मेरा नाम कुणाल झा है और मैं जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन का छात्र हूं।

जब नहीं आए मेरी सीट पर बैठने वाले यात्री

इसी तरह अंकल और मेरे बीच बातें शुरू हो गई और जर्नलिज्म का छात्र होने के नाते वो धीरे-धीरे मुझसे मेरे राजनैतिक दृष्टिकोण के बारे में जानने लगे। मैंने भी बड़ी सूझ-बूझ के साथ अपने विचारों को निष्पक्ष रूप से उनके सामने रखा।

आस-पास बैठे लोग मेरी बात बड़े ध्यान से सुनने लगे और साथ ही साथ अपने विचार भी हमारे साथ साझा करने लगे।  थोड़ी देर तक हुए राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान के पश्चात मैंने अपनी बात एक छोटे से विचार के साथ खत्म की कि राजनीति में मतभेद हो सकते हैं मगर मन-भेद कभी नहीं होने चाहिए। फिर इसी तरह राजनीतिक विचारों पर मंथन करते-करते अब रात के आठ बज चुके थे।

अब मेरे मन में यह विचार आया की मैं रात का खाना खा के थोड़ी देर आराम कर लूं, क्योंकि जब गाड़ी कानपुर रेलवे स्टेशन पहुंचेगी तो जिनकी सीट पर में सफर कर रहा था, उनके आने पर ये सीट खाली करनी पड़ेगी और पूरी रात बैठ के बितानी होगी इसलिए मैंने जल्दी से अपना रात का खाना खाया और बीच वाली बर्थ (सीट) पर जाकर आराम करने लगा। दिनभर की थकान के कारण मुझे जल्द ही नींद आ गई और धीरे-धीरे बाकी के लोग भी आराम करने लगे।

काफी गहरी नींद में होने के बावजूद एक एहसास हुआ की गाड़ी शायद लम्बे समय से रुकी है, आंखों को मसलता हुआ में उठा और मैंने समय देखा तब रात के करीब एक बज चुके थे और हम कानपुर से काफी आगे आ चुके थे और गाडी  ‘दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन’ पर खड़ी थी।

मगर मेरी निगाहें उस यात्री को ढूंढ रही थी जिसकी सीट पर मैं सफर कर रहा था और इतने में नीचे जाग रहे अंकल ने कहा की बेटा वो यात्री शायद चढ़े ही नहीं या फिर उनकी ट्रेन छूट गई होगी। मुझे उस यात्री के लिए एक पल का दुःख हुआ परन्तु अपने लिए अत्यधिक खुशी भी, क्योंकि कहीं-ना-कहीं अब वो सीट मेरी थी और इतना सोच मैं दोबारा चद्दर तान कर सो गया।

सुबह आंख खुली तो गाड़ी पटना जंक्शन पहुंचने वाली थी, मैं गाड़ी के पटना पहुंचने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा, क्योंकि मुझे ‘सबसे ख़राब’ चाय पीना था।

जी हां! सबसे ख़राब चाय जो पटना जंक्शन के पास मिलती है मगर वाकई में पूरे सफर में सबसे अच्छा स्वाद उसी चाय का होता है।  मिटटी के कुल्हड़ में गरमा-गर्म चाय जिसका स्वाद मानो अमृत के सामान हो।

खराब चाय जिसका मैं सफर भर करता रहा इंतज़ार

अब मैं जल्दी से ‘पटना जंक्शन’ के आने के इंतज़ार में टकटकी लगाए बैठ गया और थोड़ी ही देर में गाड़ी ‘पटना जंक्शन’ पर आ पहुंची और कहते हैं ना बेसब्र को सब्र कहां, मैं गेट पे जा खड़ा हुआ और इधर-उधर सबसे खराब चाय वाले की आवाज़ सुनने को बेचैन होने लगा मगर मुझे  कोई चाय वाला ना दिखा।

थोड़ी देर बाद मैं मायूस होकर अपनी सीट पर आ बैठा और सबसे खराब चाय पीने की इच्छा को अपने अंदर ही समेट लिया। गाड़ी 10 मिनट रुकने के बाद वहां से चल दी। थोड़ी देर यूं  ही मायूस बैठे रहने के बाद मुझे अपने कानों में धीरे-धीरे एक आवाज़ सुनाई दी और वो आवाज़ थी “सबसे खराब चाय, गरमा-गर्म चाय, सबसे खराब चाय”

ये आवाज़ सुन मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा और ये आवाज़ जैसे-जैसे बढ़ रही थी वैसे ही वो चाय वाले अंकल भी हमारी सीट की तरफ आते दिखाई दे रहे थे और कुछ ही पलों में सबसे खराब चाय गरमा-गर्म मिटटी के कुल्हड़ में मेरे हाथों में थी। मैंने वो चाय बड़े ही धैर्य के साथ चुस्कियां लेते हुए खत्म की।

चाय पीने के थोड़ी देर बाद सुबह का नाश्ता कर अब मैं जल्द से जल्द अपने गाँव पहुंचने का इंतज़ार करने लगा। अब तक मैं सोलह घंटों का सफर तय कर चुका था और अभी भी करीब पांच से छः घंटों का सफर तय करना बाकी था।  इतनी यात्रा कर गाड़ी में बैठे-बैठे थकान हो चली थी वहीं, समय  के साथ-साथ ये सफर मानो और लम्बा होता जा रहा था।

गाड़ी अपने निर्धारित समय से काफी देरी से चल रही थी और अब मानो घर पहुंचना एक जंग जीतने जैसा लग रहा था।  अंततः गाड़ी अपने गंतव्य (भागलपुर जंक्शन) पर अपने निर्धारित समय से 4 घंटे 30 मिनिट की देरी से शाम पांच बजे पहुंची तब जाकर  मैंने राहत की सांस ली। अब मैं उस मिट्टी पर खड़ा था जिस मिट्टी से मेरा वजूद जुड़ा हुआ है।

स्टेशन से बहार निकलते ही मेरी निगाहें मेरे भाई (बुआ का लड़का) संतोष को ढूंढने लगी और एक पल इधर-उधर देखने के बाद वह मेरे सामने था।  मैं उससे काफी समय बाद मिल रहा था।  भाई उत्तर प्रदेश के  ‘नोएडा’ शहर में रहता है मगर  पढ़ाई के सिलसिले में पिछले पांच महीनों से वह गाँव में रह कर ही पढ़ाई कर रहा था और मेरा वहां जाना भी कोई संयोग ना था और हमने पहले ही ये निर्णय कर लिया था की इस बार वो मुझे बिहार घुमाएगा।

28 घंटों के सफर के बाद अपने गाँव की मिट्टी पर खड़ा था

हम दोनों स्टेशन से बाहर निकल एक ऑटो में जा बैठे, जिसे हमने अपने गाँव तक के लिए रिज़र्व कर लिया था। सर्दी का समय था, उत्तर-पूर्वी राज्य होने के कारण अंधेरा जल्दी हो गया था और देखते ही देखते मैं अपने पैतृक घर अर्थात अपनी दादी के घर पहुंच गया था।  घर पहुंचते ही मैंने अपने सभी बड़ों का आशीष लिया। गाँव में  हमारा बड़ा परिवार है, दादी, चाचा-चाची,  भाई-बहन और एक संपन्न गाँव जहां सब एक-दूसरे के साथ प्रेम भावना से रहते हैं।

घर पहुंचते ही हमें तुरंत बारात ले जाने के लिए निकलना था।  मैं लगातार 28 घंटे का सफर तय करके घर पहुंचा और थकान के कारण मेरा जाने का अब बिलकुल भी मन नहीं था मगर भाई  ने बार-बार अनुरोध किया तो मैं भी उसके कहने पर तैयार हो गया।

तैयार होकर हम थोड़ी ही देर में बारात के लिए निकल गए। हमारे घर से केवल मैं और मेरा भाई ही बारात के लिए गए थे। थोड़ी ही देर में हाईवे पार कर हम गंगा नदी के पुल पर आ चुके थे, जहां नदी की लहरों की आवाज़ कानों में एक शोर पैदा कर रही थी ।

गंगा नदी पार कर हम अब गांव के रास्ते होते हुए हम ‘भ्रमरपुर’ के लिए निकल गए। बीच रास्ते में हम कई गांवों से होते हुए गुज़रे  और तकरीबन 40 कि.मी. की यात्रा कर, लड़की वालों के घर से कुछ दूर पहले ही एक सरकारी स्कूल में रुके। जहां लड़की वालों की तरफ से बारातियों के आराम करने की व्यवस्था की गई थी।

नाश्ता ख़त्म कर बाराती नाचते-गाते लड़की वालों के घर पहुंचे। थोड़ी ही देर के पश्चात जयमाल की रस्म भी खत्म हुई और सभी बाराती खाने के लिए बैठ गए। बिहार में बुफे सिस्टम का कोई रिवाज़ नहीं है, वहां आज भी मेहमानों को पंगत में बिठा कर सम्मानपूर्वक खाना खिलाया जाता है

जाम के बीच जब गंगा नदी पर बिताई रात

लेकिन इतनी यात्रा करने के कारण मैं काफी थक चुका था और अब आराम करना चाहता था इसलिए मैंने अपने भाई के साथ घर वापस आने का निर्णय लिया, तुरंत ही एक गाड़ी का इंतज़ाम किया गया और हम रात करीब २ बजे वहां से केवल नाश्ता करके घर आने के लिए निकल गए मगर  बारात अब भी वहीं रुकी थी।

थोड़ी दूरी तय करने के पश्चात हम गंगा नदी के पुल पर पहुंचे, जहां सामान ले जाने वाले ट्रकों की एक लम्बी कतार थी, जिस कारण वहां लम्बा जाम लगा हुआ था और जिसके खत्म होने की संभावना बहुत दूर थी इसलिए हम भी अपनी गाड़ी पुल के किनारे लगा कर  गाड़ी में ही सो गए।

करीब सुबह के ६ बजे जब जाम खुला तब हम घर जाने के लिए वहां से निकले लेकिन गंगा नदी के पुल पर बिताई वो मेरे जीवन की एक यादगार रात रही। घर पहुंच कर हमने एक लम्बी नींद ली और दोपहर के वक़्त घरवालों के साथ बैठकर खाना खाया और घर वालों द्वारा शादी के बारे में पूछे गए कई सवालों के जवाब भी दिए जैसे, कब पहुंचे? क्या खाया? लड़की कैसी थी इत्यादि।

दोपहर के खाने के पश्चात हमने शाम में अपनी दीदी के ससुराल “बैजानी” जाने का निर्णय किया। जिनसे मैं करीब पिछले तीन सालों से नहीं मिला था। दीदी का ससुराल हमारे गाँव से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर था। हम दोनों भाई शाम होते ही पैदल गाँव के कच्चे रास्ते से होते हुए मुख्य सड़क पर पहुंचे, वहां से एक ऑटो में बैठ कर हम दीदी के ससुराल ‘बैजानी’ पहुंचे।

ऑटो से मुख्य सड़क पर उतरने के पश्चात हम पैदल मार्ग से दीदी के घर की ओर चल दिए। रास्ते में एक चौंका देने वाली घटना हुई, कुछ देर पैदल चलने के पश्चात पैदल मार्ग दो रास्तों में बंट गया, जिसमें से एक मार्ग दलित जातियों के इलाकों से होता हुआ जाता था परन्तु दूसरा मार्ग ऊंची जाति के लोग जैसे ब्राह्मण एवं राजपूत जाति के लोगों के इलाके से होता हुआ।

भाई ने अनुरोध किया की हम ब्राह्मणों के इलाके से होते हुए जाए परन्तु इस तरह के भेदभाव को देखते हुए, मैंने निम्न जाति के लोगों के इलाके से जाने वाले मार्ग से जाना तय किया। भाई भी बिना संकोच किए मेरे साथ चल दिया।

कुछ देर में हम दीदी के घर जा पहुंचे। मैं उनके घर उनकी शादी के 10 साल पश्चात भी केवल दूसरी बार ही गया था। हमने वहां थोड़ी देर बातचीत की और फिर अपनी भांजी को साथ लिए गाँव घूमने निकल गए।  थोड़ी दूर जाते ही हमे वहां  एक हाई स्कूल दिखाई दिया, जहां मेरे पापा ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी।

जब पिता का स्कूल मेरी आंखों के सामने था

आज इतने वर्ष बीत गए हैं परन्तु वो विद्यालय आज भी वहाँ स्थित है। सामने ही एक कुंड था जिसमें  पानी सूखा हुआ था जिसका इस्तेमाल गांव के लोग गर्मियों के मौसम में पानी की आपूर्ति के लिए करते हैं, हालांकि गांव में हर किसी के घर पानी के कुएं होते हैं, जहां से गांव वाले अपनी रोज़मर्रा की पानी की ज़रूरतों को पूरा करते हैं।

थोड़ी देर में गांव घूम कर दीदी के घर वापस लौटे और चाय और नाश्ता किया, थोड़ी ही देर में हम वहां से निकल गए।

शाम का वक्त ढल चुका था और अभी तक चाचा ने गाय का दूध नहीं दुहा था, जिसका कारण यह था की चाचा ने फिलहाल में ही एक नई गाय ली थी और वह अभी घर वालों से ज़्यादा घुली मिली नहीं थी, वो ज्यादा घर के लोगों को पहचानती भी नहीं थी इसलिए जो कोई भी उसके पास जाता वो उसे हमेशा अपने से दूर भगाने का प्रयास करती इसलिए चाचा हमारे आने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि गाय को पकड़ कर हम उसका दूध दुह सके और उसके बछड़े को भी पीने को दे सकें।

ये पल काफी रोमांचक था और काफी यादगार भी और इतनी मेहनत के पश्चात हम सब ने रात में गाय का ताजा दूध पिया जो शहर में मिलना मुश्किल है।  इसके पश्चात हमने रात का खाना खाया और सो गए क्योंकि हमें अगले दिन गाँव की एक और शादी में जाना था और अब मैंने और भाई ने ये तय किया की इस बारात में हम दोनों अगले दिन तक के सभी कार्यक्रमों में उपस्थित रहेंगे ताकि हम शादी की सभी रस्मों को काफी बारीकियों के साथ देख व समझ सकें और वहां के रीति-रिवाजों को भी जान सकें।

चौबीस नवंबर की सुबह दादी ने हमे बताया की आज लड़के वालों के घर पर दोपहर के खाने का निमंत्रण है और हमे सपरिवार वहां जाना है। गांव के सभी घर के आदमी वहां इकठ्ठा हुए और पंगत में बैठ गए फिर एक-एक करके हम सभी को खाना परोसा गया।

हमारा गाँव जहां आज भी  बुफ़े नहीं होता

गाँव के कुछ नौजवान खाना परोसने में घर वालों की मदद करने लगे। दाल, चावल, पापड़, कई प्रकार की सब्ज़ियां खाने में परोसी गई। सभी ने बड़े चाव से गरमा-गर्म खाना खाया, वहां की सबसे अनोखी बात मुझे ये लगी की पंगत में बैठा हर व्यक्ति चाहे बूढा हो या बच्चा सब एक साथ खाने को बैठते हैं और एक साथ की खा के उठते हैं। चाहे कोई थोड़ी देरी से ही अपना खाना ख़त्म क्यों न करे। वहां छोटे बच्चे से लेकर सबसे वृद्ध व्यक्ति को एक जैसा ही सम्मान दिया जाता है।

खाना खा कर घर लौटने के पश्चात हमने थोड़ी देर आराम किया, क्योंकि रात में हमे बारात के लिए भी निकलना था। शाम के वक़्त उठकर हमने गाँव के घर की छत पर बैठ कर गरमा-गर्म चाय का आनंद लिया और फिर बारात में जाने की तैयारियों में जुट गए, तैयार होकर हम सभी एक जगह इक्कठा हुए और थोड़ी ही देर में बारात भी प्रस्थान कर गई।

इस बार बारात बिहार के ‘मुंगेर’ ज़िले  के एक छोटे से गाँव ‘सांढ़ी’ जा रही थी।  हमारे बिहार में पापा के गाँव के सभी लोग एक परिवार सामान होते हैं।

करीब 55 किलोमीटर का रास्ता तय कर हम ‘सांढ़ी’ पहुंचे, वहां बारात का लड़की वालों द्वारा काफी आदर सत्कार किया गया और फिर इस शादी में भी पहले की तरह बारातियों के रुकने का इंतज़ाम किया गया और उन्हें समयानुसार नाश्ता करवाया गया।

पूरी बारात नाश्ता करने के पश्चात गाजे-बाजे के साथ बारात लेकर लड़की वालों के द्वार पर पहुंचे।  कुछ ही देर में भोजन परोसा गया, खाने में मछली-चावल का इंतज़ाम था। रीति  के अनुसार बारातियों को मछली-चावल ही खिलाया जाता है। खाने  के साथ-साथ सफ़ेद रसगुल्ले भी परोसे गए साथ ही पास ही के एक सरकारी विद्यालय में सभी बारातियों के आराम करने की सुविधा की गई थी।

सुबह-सुबह सभी जल्दी ही उठ गए और बारी-बारी करके नहाने लगे।  विद्यालय के आंगन में ही एक नलका था। वहीं, बैठ कर सबने स्नान किया। मैं और भाई भी तैयार हो गए।

तैयार हुए ही थे की नाश्ता करने का बुलावा आ गया था, हम सबने जाकर वहां नाश्ता किया।  नाश्ते में छोले-भठूरे और गरमा-गर्म उड़द दाल की जलेबी परोसी गई। नाश्ता भी बेहद स्वादिष्ट था।  नाश्ता कर हम थोड़ी देर गाँव घूमने के लिए निकल गए। चारों ओर हरियाली, दूर-दूर तक गेहूं की फैसले और गाँव इतना छोटा की जिन्हे हाथों की उंगलियों पर गिना जा सके।

गाँव घूम के आने के बाद हमारे पास खास कुछ करने को था नहीं बाकी गांव के कुछ बड़े लोगों ने मुझे अपने पास बुला कर बैठाया और मुझसे मेरी पढ़ाई, मेरे काम के बारे में पूछने लगे। पढ़-लिख कर कुछ बनने की ललक देख वो मुझसे बेहद प्रसन्न थे बाकी उन्होंने मुझसे मेरे परिवार का हाल समाचार लिया और ऐसे ही बाते करते-करते समय कब बीत गया पता ही नहीं चला।

अब दोपहर के तीन बज चुके थे ओर सब ‘घूंघट’ की रस्म के लिए तैयार होकर लड़की वालों के घर पर पहुंचे जहां पहले ‘घूंघट’ की रस्म अदा की गई, जहां सभी बड़े-बूढ़ों ने नव-विवाहित जोड़े को अपना आशीर्वाद दिया। घूंघट की रस्म के पश्चात बारातियों को भोजन कराया गया। अबकी बार भोजन में ‘मीट-चावल’ का इंतज़ाम किया गया था। खाना वाकई बेहद स्वादिष्ट था, लोगों ने खाना बनाने वाले की भी बहुत तारीफ की, खाना खाने के पश्चात कुछ रीति-रिवाज़ों के साथ दुल्हन को विदा किया गया और रात होते-होते हम अपने गाँव आ पहुंचे।

गाँव जहां आज भी बाज़ार नहीं हटिया लगता है

अपने घर पहुँचने के पश्चात हमने निर्णय किया की अब हम कल सुबह सात बजे की ट्रेन से मेरी नानी के घर जाएंगे । रात आराम कर हम सुबह जल्दी-जल्दी तैयार हो गए और स्टेशन पर जाकर गाड़ी के आने का इंतज़ार करने लगे। गाँव का स्टेशन हमारे घर से कुछ कदम की दूरी पर ही था। थोड़ी देर में गाड़ी भी आ गई और हम वहां से ‘बाराहाट’ स्टेशन जाने के लिए निकल गए।

मेरी नानी का घर बिहार के ही ‘बांका’ जिले के एक छोटे से गाँव ‘लखपुरा’ में स्थित है। ‘बांका लोकल’ ट्रेन से सफर करते हुए जब हम ‘बाराहाट स्टेशन’ पहुंचे तो मेरे मामा का लड़का ‘अंकित’ वहां मोटरबाईक ले कर खड़ा था, जो हमे सीधा हमारे नानी घर ले जाने आया था।

हम मोटरबाईक पर  सवार हो कर सीधा नानी के घर जाने के लिए निकल दिए। हम थोड़ी ही देर में मेरी नानी के घर जा पहुंचे। नानी के घर पहुंचकर मानो मेरी आत्मा को कितनी ख़ुशी मिली हो। मैं इससे पहले भी 2017 में बिहार आया था परन्तु किसी कारणवश अपनी नानी के घर नहीं आ सका था और आज मैं अपनी नानी के घर करीब दस सालों बाद आया था।

नानी के घर पर नानी, मामा-मामी, ममेरे भाई-बहन थे। घर में ताज़ा दूध मिल सके इसलिए मामा ने एक गाय भी पाल रखी थी। हमने घर पहुंच कर सभी बड़ों का आशीष लिया और फिर बाहर आंगन में बिछी हुई चारपाई पर धूप सेकने के लिए बैठ गए। नाश्ता ख़त्म कर हम भाई की मोटरबाइक पर बाकी रिश्तेदारों से  मिलने निकल गए।

शाम तक हम अपने रिश्तेदारों से मिल के नानी के घर वापस लौटआए। संयोग से उस दिन मंगलवार था और नानी के घर के पास हर मंगलवार एक बहुत बड़ा ‘हाट’ लगता है जिसे हम शहरों में बाज़ार के नाम से जानते हैं।

इसलिए हम फिर थोड़ी देर में बाज़ार घूमने निकल गए। ताज़ी सब्ज़ियां, जो सीधा खेतों से तोड़ कर लाई हुई थीं, खाने-पीने की ढेर सारी दुकानें, गुप-चुप और आलूचाप के ठेले और भी बहुत कुछ ऐसा था जो मन को भा रहा था।

हटिया घूम लेने तक शाम हो गई थी और अब पास ही के ‘काली माता’ मंदिर में संध्या आरती का समय हो गया था। हम दोनों भाई सीधे मंदिर चले गए, काली माता का मंदिर मेरी नानी के कुल देवी का मंदिर भी है इसलिए वहां संध्या आरती के समय जाकर हमने माँ का आशीर्वाद लिया और प्रसाद ग्रहण कर घर वापिस लौट आए।

घर पहुंचे तो मामा के बेटे ने स्वयं मिट्टी के चूल्हे पर चिकन बनाया और हमने बीच-बीच में उसका हाथ भी बटाया। करीब नौ बजे रात में हम चिकन बना कर पास वाले चौक तक टहलने निकल गए, जहां हम तीनों भाइयों ने कुछ गपशप की और करीब आधे घंटे बाद घर लौट कर स्वादिष्ट ‘चिकन और चावल’ का आनंद लिया। खाना खाकर हम सभी सोने चले गए।

यात्रा हरपल एक नया अनुभव थी

उन दिनों हर पल कुछ नया हो रहा था। हम हर पल एक नई चीज़ का आनंद ले रहे थे, मानो ज़िन्दगी कितनी हसीन हो। ना कोई गम ना कोई चिंता बस रोज़ कहीं नई जगह जाना और बेफिक्री से पूरा दिन गुज़ार देना परन्तु हमने अपनी इस यात्रा में बहुत कुछ देखा और सीखा और उनके मायने भी समझे।

सुबह होते ही हम समयानुसार अपने काम करने लगे।  सुबह की चाय पीने के बाद हम दोनों भाई जल्दी से नहाकर तैयार हो गए, क्योंकि आज हमें ‘झारखण्ड’ के लिए निकलना था। जहां हमें अपनी एक ‘बुआ’ के घर भी जाना था। खाने के तुरंत बाद हम नानी के घर से निकल गए।

ममेरा भाई हमे अपनी मोटरबाईक पर ‘झारखण्ड’ ले गया। उसने हमे झारखण्ड के ‘गोड्डा’ जिले तक छोड़ दिया। अब हमें वहां से अपनी बुआ के घर ‘महेशपुर’ किसी ऑटो के द्वारा जाना था।  हम वहां जाने के लिए ऑटो में बैठ गए और कच्चे रास्तों से होते हुए हम ‘महेशपुर’ के लिए निकल गए। तकरीबन एक घंटे का सफर तय कर हम बुआ के घर जा पहुंचे।

बुआ घर पर नहीं थी हमारी मुलाक़ात बहन से हुई। निक्की से मैं पहली बार ही मिल रहा था। हम भाई बहन २२ सालों में पहली बार मिले थे। थोड़ी देर में बुआ भी आ गई वो पड़ोस में ही किसी के घर गई हुई थीं।  बुआ और फूफा जी मुझे आज कई सालों के बाद देख रहे थे और बुआ की आंखों में भी एक चमक थी, क्योंकि बुआ की शादी के बाद पापा कभी उनके घर नहीं जा पाए थे।

आज सीधा उनका बेटा इतने सालों बाद उनके घर आया था। हर तरफ ख़ुशी का माहौल था। मैंने घर में लगे हुए अमरूद के पेड़ से कई अमरूद तोड़ कर खाये। थोड़ी देर में बुआ चाय और पेड़े ले आईं, हमने चाय पी और फिर बैठ कर ढेर सारी बातें की लेकिन फूफा जी को किसी शादी में जाना था इसलिए वो शाम तक निकल गए।

धान की फसल पर की जाने वाली पूजा ‘नेमान’

रात के खाने के बाद हम सब ये सोच-विचार लगे की कल सवेरे ‘नेमान’ की पूजा कौन करेगा? ‘नेमान’ बिहार और झारखंड में मनाया जाने वाला पर्व है, जो ‘धान की फसल’ की कटाई के उपलक्ष्य में मनाया जाता है और नियमानुसार ये पूजा पुरुषों के द्वारा ही की जाती है, परन्तु फूफा जी बारात में जा चुके थे।

वहीं, हम दोनों भाइयों को सुबह की सात बजे वाली बस से वापस  अपने दादी के घर ‘गोनूधाम’ जाना था। बुआ इस चीज़ को लेकर चिंतित थी इसलिए हम सबने ये तय किया की हम सुबह चार बजे उठकर ही मिलकर सारे काम कर लेंगे और समय से पूजा करके गोनूधाम के लिए निकल जाएंगे।

सुबह समयानुसार हमने उठ कर पूरा आंगन साफ  किया और जल्दी से स्नान कर हम पूजा करने के लिए बैठ गए। बुआ के कहे अनुसार हम पूजा की हर विधि पूर्ण कर रहे थे और थोड़ी ही देर में हम पूजा समाप्त कर दोबारा बहन की शादी पर आने का वादा कर घर जाने के लिए निकल गए।

सुबह सात बजे ‘गोड्डा से भागलपुर’ जाने वाली बस के ज़रिये हम करीब तीन घंटे में अपने गाँव पहुंच गए। गांव पहुंच कर मैंने “नेमान” की पूजा चाचा जी के साथ मिलकर भी की। पूजा समाप्त करते ही हम साथ खाना खाने बैठ गए। हमने साथ में खाना खाया और खाना खाने के तुरंत बाद हम अब ‘बुआ’ के घर जाने के लिए तैयार हो गए।

संतोष की बुआ का घर बिहार के ‘खगड़िया’ ज़िले के ‘अगुवानी डुमरिया’ गाँव में स्थित है, जो की गंगा नदी के उत्तर में पड़ता है।

वहां जाने के लिए हम अपने गाँव से एक बजे की लोकल ट्रेन पकड़ कर पहले ‘भागलपुर जंक्शन’ पहुंचे और फिर ऑटो के ज़रिये से  ‘सुल्तानगंज’ रेलवे स्टेशन पहुंचे और उसके पश्चात हमने स्टीमर वाली नाव के ज़रिये सुल्तानगंज घाट से ‘गंगा’ नदी पार की और नदी पार कर हम फिर एक ऑटो में बैठ कर अगुवानी डुमरिया पहुंचे। ऑटो से उतरकर थोड़ी देर पैदल चलने के पश्चात हम बुआ के घर जा पहुंचे।

पहुंचेते -पहुंचते  शाम हो चली थी, मैं ज़्यादा किसी को वहां जानता नहीं था इसलिए काफी देर तक शांत ही रहा मगर धीरे-धीरे सबसे बातचीत होते हुए वहां भी मन सा लग गया। चाय नाश्ते के बाद हम फूफा जी के साथ पास के मंदिर में दर्शन करने के लिए गए।

इस गाँव की ख़ास बात यह है की ये गांव गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है, यहां के लोग दूध-दही का सेवन ज़्यादा करते हैं, यहां के हर घर में गौ माता को पाला जाता है साथ ही यहां  खड़ी बोली का प्रयोग ज़्यादा किया जाता है।

दर्शन करके लौटने के पश्चात हमने खाना खाया, मैं वहां पानी का ग्लास और खाने की कटोरियों को देख कर दंग रह गया था, ग्लास इतने बड़े की बहुत देर का प्यासा व्यक्ति भी पानी पिए तब भी थोड़ा पानी ग्लास में रह जाए और कटोरियों का साइज़ डोंगे जितना था। मुझे एक कटोरी सेवई खाने को दी गई, जिसे मैं पूरा खा भी ना सका।

खाने के पश्चात हमने थोड़ी देर गाँव-देहात की बातें की और अगुवानी के बारे में और ज़्यादा जानने की कोशिश की।  बातचीत का सिलसिला ख़त्म कर फिर हम सोने चले गए और अगले दिन सुबह-सुबह ही घर की ओर निकल गए। बुआ ने शुद्ध एवं ताज़े  दूध के पेड़े बना कर हमें दिल्ली ले जाने को दिए लेकिन दुखद ये था  गंगा पार करने से पहले हम जिस ऑटो में बैठे थे वो सारे पेड़े उसी ऑटो में ही छूट गए।

10 दिन जिसकी यादें अब भी मेरे साथ हैं

इस बार गंगा नदी पार करते वक्त हमें एक डॉल्फिन भी दिखाई दी। करीब तीन घंटे के बाद हम अपने गाँव गोनूधाम वापिस आ गए और अपने सामान की पैकिंग करने में जुट गए, क्योंकि अगले दिन हमारी दिल्ली जाने की ट्रेन थी। दोपहर तक हमारी सारी पैकिंग भी हो चुकी थी। पैकिंग करने के पश्चात हमने दोपहर से शाम तक का पूरा वक़्त अपने घर वालों के साथ बिताया।

अब तक के बिताए हुए समय के बारे में भी घरवालों ने हमसे चर्चा की शाम तक सबके साथ वक्त  बिताने के बाद हम चाय पी कर दोबारा दीदी के घर ‘बैजानी’ चले गए ताकि जाने से पहले एक बार उनसे मिलते हुए आएं।  गोनूधाम से बैजानी तक की दूरी मात्र पांच किलोमीटर की ही है इसलिए इतने कम वक़्त में वहां जाकर उनसे मिलना और वापिस आना मुमकिन हो पाया।

दीदी के घर से आने के पश्चात हमने रात का भोजन किया और सोने चले गए। सुबह समयानुसार उठकर हम तैयार हुए और अपने सभी बड़ों का आशीर्वाद लेकर दिल्ली जाने के लिए रवाना हो गए। हम ऑटो के ज़रिये पहले ‘भागलपुर जंक्शन’ पहुंचे, जहां हमारी ट्रेन दिल्ली जाने के लिए अपने निर्धारित समय से प्लेटफार्म पर लग चुकी थी।

हमारी ट्रेन सुबह 11 बजकर 20 मिनिट पर, अपने निर्धारित समय से वहां से निकल पड़ी और हम अगले दिन दोपहर एक बजे तक अपने घर दिल्ली लौट आए परन्तु मैं दिल्ली अकेला नहीं लौटा था।

मेरे साथ वो तमाम यादें थीं, जो मैंने इन दस दिनों में इक्कठा की थी। मेरे साथ हर वो पल भी यहां आया था, जिन्हे मैंने इन दस दिनों में जिया था और आज उन्ही कुछ पलों के बारे में आप सभी से अपना अनुभव साझा कर रहा हूं।

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