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कविता : भेड़ की ये जो नई नस्ल है

कविता : भेड़ की ये जो नई नस्ल है

भेड़ की ये जो नई नस्ल है

लोगों को जन्म से ही बांटती है

अपने आकाओं के तलवे चाटती है

बच्चा सवाल पूछे तो उसे डांटती है

अपने हुज़ूर के इशारे पर किसी मज़लूम को काटती है

 

भेड़ की ये जो नई नस्ल है

अंधविश्वास ही जिनका भगवान है

वट्सएप्प ही जिनका संपूर्ण ज्ञान है

खोखली डाल सा जो इनका ईमान है

हर सहानुभूति, हर संवेदना से वो अनजान है

 

भेड़ की ये जो नई नस्ल है

अपनी हर गलती से ये मुकर जाती है

खुद से विपरीत बात पर ये बिगड़ जाती है

हर अन्य ख्याल से ये झगड़ जाती है

बात हो तर्क-वितर्क की, तो यह पिछड़ जाती है

 

भेड़ की ये जो नई नस्ल है

इन भेड़ों को यूं ही टालना मत

इनके झूठे छलावे को मानना मत

भूल कर भी इनके आवरण में खुद को ढालना मत

धोखे से भी एक भेड़ अपने घर पालना मत

 

भेड़ की ये जो नई नस्ल है

दुविधा ये कि अभी इस भेड़ का अच्छा वक्त है

खाल भेड़ की पर अंदर भेड़िए का रक्त है

हर भेड़ यहां दूजी भेड़ से संयुक्त है

पर ये देश की नहीं बस अपने स्वामी की भक्त है।

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