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जनसंख्या नियंत्रण विधेयक: चिंता के बजाय काल्पनिक डर से ज़्यादा प्रेरित

जनसंख्या नियंत्रण विधेयक: जनसंख्या वृद्धि नियंत्रण के बजाय राजनीतिक रूप से ज़्यादा प्रेरित है

भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली भाजपा सरकार की ओर से लाया गया प्रस्तावित यूपी जनसंख्या नियंत्रण विधेयक जनसंख्या वृद्धि की किसी भी चिंता के बजाय काल्पनिक डर से ज़्यादा प्रेरित दिखाई देता है। पिछले कुछ दशकों के आंकड़ों से यह साफ दिखाई देता है कि प्रशासनिक कार्रवाई या निष्क्रियता के बावजूद जनसंख्या वृद्धि धीमी हो रही है। ऐसा पूरे भारत में हो रहा है और यूपी भी इसका अपवाद नहीं है।

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ या उनकी पार्टी की तरफ से आधिकारिक तौर पर तो नहीं कहा गया है लेकिन इस कदम के पीछे का जो असली मकसद माना जा रहा है, वह है मशहूर, लेकिन बहुत बदनाम सिद्धांत जिसके मुताबिक मुस्लिम आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और यह आबादी आने वाले दिनों में हिंदू आबादी से आगे निकल सकती है।

आखिर यह कैसे हो सकता है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध प्रामाणिक आंकड़ों से तो ऐसा बिल्कुल प्रमाणित नहीं होता, लेकिन इस सिलसिले में महज़ चिंता को बढ़ा देने से ही शायद राजनीतिक या चुनावी उद्देश्यों को पूरा करने में मदद मिल जाती है। यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि इस हौवे को फिर से ज़िंदा कर दिया गया है।

क्या कहते हैं यह आंकड़े?

समय के साथ आबादी में बढ़ोत्तरी या कमी को मापने का सर्वोत्तम पैमानों में से एक पैमाना है- कुल प्रजनन दर (TFR) या किसी महिला के पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या। आइए इस सिलसिले में यूपी के आंकड़ों पर एक नज़र डालते हैं। ये आंकड़े राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के विभिन्न दौरों की रिपोर्टों से उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से 2019-20 में आयोजित नवीनतम (पांचवें) दौर के लिए यूपी का यह आंकड़ा अभी इसलिए उपलब्ध नहीं है, क्योंकि महामारी की वजह से इसे संग्रहित करने में बहुत बाधा पहुंची है।

1998-99 में यूपी में हिंदुओं, मुसलमानों और कुल आबादी के टीएफआर को संक्षेप में प्रस्तुत करता है, जो 2015-16 तक हुए चौथे दौर में एनएफएचएस का दूसरा दौर था। मुस्लिम महिलाओं में प्रति महिला पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या 1998-99 में 4.76 से तक़रीबन 35% गिरकर 2015-16 में 3.1 हो गई थी। यह गिरावट हिंदू महिलाओं के पैदा होने वाले औसत बच्चों की उस संख्या में आने वाली गिरावट से ज़्यादा है, जो कि 3.87 से गिरकर 2.67 हो गयी थी, यानी लगभग 31% की कमी आई थी।

इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि यूपी की कुल आबादी भी पहले की तरह तेज़ी से नहीं बढ़ रही है। इन 17 सालों में इस सूबे में पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या तकरीबन चार (3.99) से घटकर 2.74 हो गई है।

बढ़ती जागरूकता और शिक्षा, बच्चों के मरने के खतरे में कमी, गर्भनिरोधक विधियों की बेहतर उपलब्धता और सबसे अहम बात कि ज़्यादा बच्चे होने से उनके आर्थिक हितों पर नकारात्मक असर पड़ता है, इन सब कारणों ने मिलकर जनसंख्या वृद्धि में कमी की इस सामाजिक घटना को जन्म दिया है। यह अहसास सभी धर्मों में व्याप्त है।

आबादी बढ़ोत्तरी के पीछे का कारण गरीबी और शिक्षा की कमी

इन एनएफएचएस सर्वेक्षणों में हमें एक अहम जानकारी मिला करती थी, जिसे अज्ञात कारणों से 2005-06 के बाद से साफ तौर पर बंद कर दिया गया था। वह जानकारी थी-प्रजनन दर और महिला/परिवार की आर्थिक स्थिति के बीच का रिश्ता।

एनएफएचएस-3 की रिपोर्ट में यह डेटा शामिल है। राज्य के लोगों को परिवारों के स्वामित्व वाली संपत्ति के आधार पर उन्हें निम्नतम (सबसे गरीब) से उच्चतम (सबसे अमीर) तक पांच स्तरों में बांटा गया है जैसा कि साफ-साफ देखा जा सकता है कि अमीरों के मुकाबले गरीब तबके में प्रति महिला ज़्यादा बच्चे पैदा होते हैं। सही मायने में सबसे अमीर तबके का टीएफआर सबसे गरीब तबके के टीएफआर के आधे से भी कम है।

इसके पीछे के कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। ऐसा वैश्विक स्तर पर देखा जाता है कि गरीबी, शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन को लेकर कम जागरूकता, कम बच्चे पैदा करने के अधिकार में कमी और बच्चों की ज़्यादा मृत्यु दर साथ-साथ चलते हैं। ये तमाम कारण मिलकर ज़्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिसे भविष्य की सुरक्षा के तौर पर देखा जाता है।

जनगणना कार्यालय के नमूना पंजीकरण प्रणाली (SRS) के हालिया आंकड़े महिलाओं की शिक्षा के स्तर को दर्शाते हैं। अगर महिला ने बारहवीं कक्षा या उससे ऊपर तक की पढ़ाई की है, तो टीएफआर में एक तिहाई तक की गिरावट आ जाती है।

अगर कम महिला साक्षरता वाले राज्यों में टीएफआर की तुलना उच्च साक्षरता वाले राज्यों से की जाए तो महिलाओं की शिक्षा और उनके द्वारा पैदा होने वाले बच्चों की संख्या के बीच की कड़ी हमें एकदम साफ-साफ दिखाई देती है। 2019-20 में किए गए एनएफएचएस – 5 के मुताबिक, असम में महिला साक्षरता 75% थी और टीएफआर 1.87 थी, केरल में 97.4% महिला साक्षरता थी और टीआरएफ 1.79 और पश्चिम बंगाल में महिला साक्षरता 72.9% थी, जबकि टीएफआर 1.64 थी।

दूसरी ओर, बिहार में 55% महिला साक्षरता और 2.98 की टीएफआर थी। यूपी के लिए अभी हालिया नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन 2015-16 में हुए एनएफएचएस- 4 डेटा से पता चलता है कि यूपी में महिला साक्षरता 61% थी और टीएफआर 2.74 थी। इससे तो यही पता चलता है कि साक्षरता (बारहवीं कक्षा या उससे आगे तक की पूरी पढ़ाई नहीं) भी महिलाओं के पैदा होने वाले बच्चों की संख्या को कम करने में मदद करती है। गौर करने वाली बात यह है कि ऊपर जितने उदाहरण गिनाए गए हैं, वे सबके सब राज्य अपेक्षाकृत ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाले राज्य हैं।

निशाने पर मुसलमान और दलित

जाने-अनजाने यह प्रस्तावित यूपी बिल मुसलमानों और दलितों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करेगा, क्योंकि एनएफएचएस के आंकड़ों के मुताबिक इन दो समुदायों की प्रजनन दर अधिक है। ज़ाहिर है कि ये आंकड़े 2015-16 के हैं और अब चीज़ें तेज़ी से बदल रही हैं लेकिन इन सबसे वंचित समुदायों के निशाने पर आने की संभावना अधिक है। यूपी में दलित महिलाओं के पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या 3.09 थी, जो तकरीबन मुसलमानों (3.1) के बराबर थी और राज्य में यह औसत संख्या 2.74 से ज़्यादा थी।

दलित समुदायों (और आदिवासियों के बीच भी, लेकिन यूपी में आदिवासियों की एक बड़ी आबादी नहीं है) में इस टीएफआर के ज़्यादा होने का कारण वही है, जो मुसलमानों के बीच टीआरएफ ज़्यादा होने की वजह है और वे कारण हैं- अमूमन खराब आर्थिक स्थिति और शिक्षा की कमी का होना। हकीकत तो यही है कि मुस्लिम और दलित समुदायों के भीतर भी इसके कई स्तर दिखाई देते हैं जिनके पास पिछली पीढ़ी के मुकाबले बेहतर आर्थिक स्थिति है, उनके बच्चे कम हैं।

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