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वर्तमान में बदलता विवाह का स्वरूप और उसके पड़ने वाले प्रभाव

वर्तमान में बदलता विवाह का स्वरूप और उसके पड़ने वाले प्रभाव

शादी का लड्डू ‘जो खाए पछताए, जो ना खाए पछताए’ कहावत तो हम सबने सुनी ही होगी। शादी बंधन ही ऐसा है, जो कुछ खट्टे तो कुछ मीठे पलों को सहेज कर ज़िन्दगी के कई रंगों को दिखाता है।

एक समय था, जब किसी घर में लड़की के पैदा होते ही माँ-बाप को उसकी शादी और दहेज-दान की चिंता होने लगती थी। कुछ लोग घर में लक्ष्मी आई है कहकर बधाई देते थे तो कुछ लड़की के पैदा होने पर दुःख मनाते थे, पर जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे लोगों की मानसिकता में थोड़ा ही सही बदलाव तो हुआ ही है। अब वो बदलाव सकारात्मक है या नकारात्मक, वो हमारे चिंतन का विषय है।

क्या है पुरुष प्रधान समाज में नारी की वर्तमान स्थिति?

21वीं सदी के भारत में नारी हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है, पर आज भी बलात्कार, भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रथा जैसे शब्द समाज के लिए एक अभिशाप बने हुए हैं। आज भी शादी के समय रीति-रिवाज के नाम पर लड़का-लड़की के परिवार वाले एक-दूसरे को शगुन के नाम पर धनराशि या जेवर आदि वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं। ऐसे बहुत कम ही मामले सुनने में आते हैं कि जहां किसी विवाह में एक भी पैसे का लेन-देन ना हुआ हो, पर ये इक्का-दुक्का उदाहरण ही समाज में मिसाल बन जाते हैं।

जब भी किसी लड़के को लड़की देखनी होती है तो उसके परिवार वालों के लड़की को पसंद करने के पैरामीटर कुछ इस प्रकार हैं-
1 .  लड़की सुंदर होनी चाहिए।
2 . पढ़ी-लिखी होनी चाहिए।
3 . घर के कामों में निपुण होनी चाहिए।
4 .  इसके साथ-साथ नौकरी करती हो तो ‘सोने पर सुहागा’।

वहीं दूसरी ओर लड़की के परिवार वालों के भी लड़का पसंद करने के कुछ पैरामीटर होते हैं। जैसे कि-

1 .  लड़का पैसे वाला होना चाहिए।
2 .  किसी ऊंचे पद पर हो या सरकारी नौकरी करता हो।
3 .  ज़मीन-कारोबार संतोषजनक होना चाहिए।

इन सब की देख दिखाई के बाद जब शादी तय की जाती है तो बारातियों के स्वागत से लेकर कपड़े, तोहफे, गहने और अन्य चीज़ों के ऊपर लंबी लिस्ट तैयार कर ली जाती है। मध्यम वर्गीय लोगों का खर्चा लाखों में तो उच्च वर्गीय लोगों का खर्चा करोड़ों में पहुंच जाता है। रिश्तेदारों का भी पहला सवाल यही होता है कि दहेज़ में क्या आया या क्या दिया?

भले ही देश के कानून में दहेज़ लेना कानूनी अपराध है पर फिर भी शगुन के नाम पर इसका प्रचलन बदस्तूर जारी है। शादी की गाड़ी पटरी पर चल जाए तो ठीक वरना ऊंट कब किस करवट बैठ जाए आप कुछ कह नहीं सकते।

लव या अरेंज मैरिज के अपने-अपने इफेक्ट या साइड इफेक्ट हैं

अगर लव मैरिज है तो भी और अगर अरेंज मैरिज तो भी यह कोई प्रमाणिकता नहीं है कि आपकी शादी कितनी चल पाएगी? अक्सर देखने को मिलता है कि शादी के कुछ दिनों या महीनों बाद ही जोड़ों के बीच मनमुटाव की ऐसी स्थिति बन जाती है कि बात डिवोर्स तक पहुंच जाती है। हमारे समाज में किसी लव मैरिज में तो लड़का-लड़की पर सारा ठीकरा फोड़ा भी जा सकता है पर जब शादी अरेंज हो तो फिर किसकी गलती निकाली जाए?

कभी लड़के वालों द्वारा लड़की पर घर के कामों को लेकर तो कभी पैसों को लेकर अतिरिक्त दबाव भी बनाया जाता है,जो कि उनकी छोटी मानसिकता, स्वार्थ और नारी विरोधी सोच को दर्शाता है।

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं 

जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। उसी तरह ज़रूरी नहीं कि दहेज़ या प्रताड़ना की लिखवाई गई रिपोर्ट हर बार सच हो। हमें कई बार यह भी देखने को मिलता है कि लड़की के परिवार वाले लड़की की मर्जी के खिलाफ उसकी शादी तो करवा देते हैं फिर वो यह नहीं देखते हैं कि वो शादी चल भी पाएगी या नहीं?

मनपसंद जीवन साथी ना मिलने या विचारों में मतभेद के चलते नए-नवेले रिश्ते की गाड़ी भी शुरू होने से पहले ही ब्रेक लग जाती है। छोटे-छोटे मतभेद कब कानूनी प्रक्रिया का रूप ले लेते हैं, आपको पता ही नहीं चलता। चाहे लड़के वाले बेकसूर हो पर अगर उन पर पैसों की मांग या मारपीट को लेकर एक अर्जी लग जाए तो उन पर कयामत समझो।

ऐसे ही बस सालों-साल कोर्ट-कचहरी के चक्कर में दोनों पक्ष पिसते रहते हैं। अगर दोनों परिवार सामर्थ्यवान हैं तो ठीक वरना गरीब परिवार तो मारा ही गया। ऐसे में या तो आपसी सुलह से समझौता कर लो वरना सालों साल कोर्ट में केस लड़ते रहो। इन सब में धन और समय का तो व्यय होता ही है, पर इसके साथ-साथ जो तनावग्रस्त जीवन परिवार के सदस्यों को बिताना पड़ता है, उसे शब्दों में बयान कर पाना भी मुमकिन नहीं है। ऐसे में अगर विवाहित जोड़ा अभिभावक है तो बच्चे के ऊपर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, ज़्यादातर पुरुष अपनी पत्नियों के कारण तनाव ग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं। यह संख्या महिलाओं की आत्महत्या की घटनाओं की अपेक्षा दोगुने से भी अधिक है। इन आंकड़ों के मुताबिक हर 4 मिनट में एक महिला दहेज़ एक्ट की धारा 498ए के तहत पुरुष पर झूठे आरोप लगाती है।

दहेज़ प्रताड़ना के कानून जिस सकारात्मक सोच से बनाये गए थे। आज उसका दुरूपयोग किया जा रहा है, हम इस सत्य को भी नकार नहीं सकते हैं। कसूरवार ना होते हुए भी जेल, कचहरी, अदालतों के चक्कर में लड़के का परिवार हिचकोले खाता रहता है। जो सामान, कैश, कपड़े और गिफ्ट्स आदि लड़की की तरफ से आते हैं, उसे हम दहेज़ की संज्ञा देने में वक्त नहीं लगाते हैं, पर क्या यह सब चीज़ें लड़के वालों की तरफ से लड़की वालों को नहीं दी जाती?

क्या मुंह दिखाई, रिबन कटाई, जूता छिपाई, गहने और रिसेप्शन में लड़के के परिवार की खर्च होने वाली राशि दहेज़ नहीं? किसी वैवाहिक जीवन में लड़के और उसके परिवार वालों द्वारा लड़की को प्रताड़ित करना गलत है, पर कानूनी चक्कर में किसी बेकसूर लड़के और उसके परिवार वालों को जानबूझ कर प्रताड़ित करना कितना सही है?

मेरे जहन में ऐसे सवाल तो अनगिनत हैं, पर कानून का उपयोग अपने अधिकार पाने के स्थान पर अगर किसी के अधिकार और जीवन की मुस्कान छीनने के लिए किया जा रहा हो तो इस पर पुनर्विचार करना अति आवश्यक हो जाता है। 

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