रीठी की हवाओं में साम्प्रदायिक ज़हर की बू आने लगी है, जिसका चश्मदीद एवं पीड़ित मैं भी बना। एक घटना ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या मेरा मुसलमान होना गलत है?
आज एक श्रीमान जी ने मुझसे कहा कि चलो जाओ यहां मुसलमान लोग नहीं बैठ सकते। हालांकि इसका विरोध मेरे दोस्तों ने किया और मेरे हिन्दू दोस्त ही मेरे साथ खड़े हैं, इससे ज़्यादा कुछ चाहता भी नहीं मैं।
बस यही सोच रहा हूं कि यह कहीं आगाज़ तो नहीं, जिसका अंजाम ये लोग कुछ और चाहते हो। अगर यह हुआ तो रीठी जो कि हिन्दू-मुस्लिम के भाईचारे के लिए जाना जाता है, उसकी आत्मा के लिए खतरा है। कुछ लोगों को यह सौहार्द पसंद नहीं आ रहा है, जिसका नमूना मैंने आज देखा।
आप सबको बता दूं कि अगर मुझे कुरान की आयत याद है, तो गायत्री मंत्र भी याद है। अगर मैं मस्जिद जाता हूं, तो मंगलवार को हनुमान मंदिर भी जाता हूं। अगर मैं दशहरा मनाता हूं, तो महावीर जयंती में जैन मंदिर में आरती भी करता हूं।
अगर कृष्णजन्माष्टमी में हांडी फोड़ कार्यक्रम करता हूं, तो हनुमान जयंती में सबको शरबत भी पिलाता हूं। अगर मैं गणेश जी का जुलूस धूमधाम से मनाता हूं, तो भागवत में बाइक रैली में सबसे पहले खड़ा रहता हूं।
किसी के कहने से नहीं ये सब मैं स्वेच्छा से करता हूं। आज भी मेरे 99% हिन्दू दोस्त हैं और बहुत अच्छे दोस्त हैं, जिनके बिना शायद मैं कुछ नहीं। मैं यह सब क्यों बता रहा हूं, इसलिए क्योंकि आज मुझे सिर्फ यह पता चला कि लोगों की सोच कहां तक है, इनका बस नहीं चल रहा है, नहीं तो यह रीठी की शांत हवाओं में हिन्दू-मुस्लिम का ज़हर घोलकर सद्भाव और प्रेम खत्म कर दे।
इतनी घृणा क्यों, इतनी नफरत क्यों, इतना ज़हर क्यों, इतनी दुश्मनी क्यों? सिर्फ इसलिए कि मैं मुस्लिम हूं, यही दोष है मेरा?
या मैं कट्टर विचारधारा वाला नहीं हूं इसलिए? या मेरे हिन्दू दोस्त ज़्यादा हैं इसलिए?
आप जितना भी ज़हर घोलने की कोशिश कीजिए कुछ नहीं होने वाला है। सोचने वाली बात है कि इतनी नफरत की उपज कहां से हो रही है? कौन है वे जो सौहार्द और सद्भाव खत्म करना चाहते हैं?
अंत में राहत इंदौरी की चार लाइनें-
हमारे मुंह से जो निकले वही सदाकत है
हमारे मुंह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है