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“रेशम के धागों के लघु उद्योग से आत्मनिर्भर बनतीं ग्रामीण महिलाएं”

"रेशम के धागों के लघु उद्योग से आत्मनिर्भर बनतीं ग्रामीण महिलाएं"

आज वर्तमान में महिलाओं को लेकर समाज में व्याप्त धारणाएं बदल रही हैं। अब महिलाएं अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर भू विज्ञान तक, हर क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों के द्वारा भी महिला सशक्तिकरण के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं।

बिहार सरकार की ओर से भी महिलाओं के रोज़गार से जुड़ी योजनाओं पर बल दिया जाता रहा है, ताकि वे अपने लिए तरक्की का मार्ग चुन सकें। महिलाओं से जुड़ी राज्य में कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं, जिससे ना केवल वे स्वयं आर्थिक रूप से सशक्त बनें बल्कि अन्य महिलाओं के लिए भी रोज़गार उपलब्ध करवा सकें।

क्या है मुख्यमंत्री कोसी मलवरी परियोजना?

अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए बिहार के कोसी क्षेत्र की महिलाओं को रोज़गार से जोड़ने और आत्मसम्मान दिलाने के लिए बिहार सरकार द्वारा मुख्यमंत्री कोसी मलवरी परियोजना की शुरुआत की गई थी। यह योजना किसानों विशेषकर महिला किसानों के लिए एक उम्मीद की किरण है, क्योंकि इससे मलवरी कीट पालन उद्योग (रेशम उद्योग) को रफ्तार मिलने की उम्मीद है। यह पूर्णिया और कोसी प्रमंडल में शहतूती रेशम विकास के लिए 10वीं, 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजना है, जिसे कुछ ज़िलों में चलाया गया था।

लोगों ने इस योजना में अपनी बेमिसाल भागीदारी निभाई। इसके उत्साहवर्धक परिणाम को देखते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से कृषकों के आर्थिक सुधार के लिए शहतूती रेशम कीट पालन को एक कुटीर उद्योग के रूप में स्थापित करने का निर्णय लिया गया है।

मुख्यमंत्री ने कोसी मलवरी परियोजना की घोषणा साल 2012 में सुपौल ज़िले में की थी। वर्तमान में यह परियोजना पूर्णिया और कोसी प्रमंडल के सात ज़िलों- पूर्णिया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, मधेपुरा, सुपौल और सहरसा में सफलतापूर्वक चलाई जा रही है। इस योजना को जीविका (बिहार ग्रामीण जीविकोपार्जन परियोजना) के माध्यम से संचालित किया जा रहा है। महिलाओं के लिए यह परियोजना इसलिए भी लाभकारी है, क्योंकि इसमें उन्हें घर से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं होती है और वह घर से ही इस काम को पूरा कर सकती हैं, जिससे महिलाएं अपने परिवार से भी जुड़ी रहती हैं। जीविका से जुड़े होने के कारण इसमें महिलाओं की भागीदारी भी ज़्यादा देखी जा रही है।

महिलाएं रेशम के धागे के उद्योग से बदल रही हैं अपनी ज़िन्दगी 

महिलाओं और किसानों की बढ़ती दिलचस्पी को देखते हुए बिहार राज्य सेरीकल्चर विभाग और जीविका ने उनकी अधिक-से- अधिक सहभागिता के लिए कई प्रमुख नीतियों को अमल में लाने का प्रयास तेज़ कर दिया है। इसके लिए कम लागत में अधिक उत्पादन बढ़ाना शामिल है, जिससे उन्हें अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त हो और वे ना केवल इससे आर्थिक रूप से सशक्त बनें बल्कि अधिक-से-अधिक रोज़गार भी दे सकें।

इस परियोजना के तहत रेशम के कीड़े को मलवरी के पत्तों पर बढ़ाया जाता है अर्थात रेशम का कीड़ा मलवरी के पत्तों से अपना आहार ग्रहण करता है, जिसके बाद वह बढ़कर कोकून का रूप धारण कर लेता है। कोकून बनते ही उसे पत्ते से उतार लिया जाता है और गरम पानी में उबाल दिया जाता है, जहां से रेशम के धागों की प्राप्ति हो जाती है। इन्हीं रेशम के धागों से कपड़े तैयार किए जाते हैं।

महिलाओं के लिए अपने घर के साथ-साथ अपने काम को करना पहली पसंद होती है, जिसे जीविका के सहयोग ने सही साबित किया है। मलवरी की खेती में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है, क्योंकि महिलाएं रेशम के धागों द्वारा अपनी किस्मत बुन रही हैं। किशनगंज ज़िला गाँव मैदा, प्रखंड मोतिहारा तालुका की रहने वाली शकीला वर्ष 2017 से मलवरी की खेती और रेशम कीट पालन का कार्य कर रही हैं। वह अपने एक बीघा ज़मीन में मलवरी की खेती करती हैं। इसके साथ ही रेशम कीट के सौ अंडों से प्राप्त कीड़ों का पालन करती हैं, जिससे प्राप्त कोकून से वह साल का लगभग 80 हज़ार रुपये कमा लेती हैं।

पहले वह अपनी ज़मीन में धान और मकई की खेती किया करती थीं, जिससे उन्हें 15 से 20 हज़ार तक की ही कमाई हो पाती थी। शकीला का परिवार बहुत बड़ा है। उनके दस बच्चे हैं, वहीं पति हैंडपंप मिस्त्री हैं। उनकी आय नियमित नहीं है, ऐसे में इतने बड़े परिवार को संभालना बहुत मुश्किल काम था, मगर कोकून निर्माण से प्राप्त आय से शकीला को अपने परिवार का भरण-पोषण करने में बहुत मदद मिली है। हाल ही में उनके एक लड़के ने बीए पास किया है। जीविका और उद्योग विभाग की ओर से शकीला को मलवरी के पौधे, रेशम कीट के अंडे, उपस्कर, कीटगृह निर्माण और सिंचाई की व्यवस्था के लिए पैसों के साथ-साथ प्रशिक्षण भी दिया गया है।

 राधा देवी के मलवरी की खेती से जुड़े अनुभव 

वहीं सुपौल ज़िले के त्रिवेणीगंज प्रखंड स्थित बरहकुरवा पंचायत की रहने वाली राधा देवी पिछले चार सालों से लगातार मलवरी की खेती और कोकून उत्पादन कार्य से जुड़ी हुई हैं। इससे ना केवल उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी है बल्कि उन्हें घर पर रह कर ही अतिरिक्त आमदनी भी होने लगी है। राधा का परिवार परंपरागत रूप से खेती और पशुपालन से जुड़ा हुआ है। मलवरी की खेती और रेशम उत्पादन के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी, मगर परियोजना की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने इसे सीखा। ट्रेनिंग के दौरान ही उन्हें मलवरी खेती से जुड़े सभी तकनीकी पहलुओं से अवगत कराया गया। इसके साथ ही उन्हें इसका विधिवत प्रशिक्षण भी दिया गया।

राधा ने कोशिकी जीविका मलवरी उत्पादक समूह के तहत जुलाई 2016 में मलवरी की खेती शुरू की थी, जिससे उन्होंने अपने पहले वर्ष में लगभग 25 किलोग्राम कोकून का उत्पादन किया था, जिसे उत्पादक समूह ने 350 रुपये प्रति किलोग्राम के दर से खरीदा था, इससे उन्हें 8,750 रुपये की आमदनी हुई थी। महज़ ढाई माह की मेहनत के बाद अच्छी आमदनी मिलने पर राधा का मनोबल मज़बूत हो गया। अब वह साल के सभी सीज़नों में मलवरी कोकून का उत्पादन करती हैं, जिससे उन्हें सालभर में औसतन 35 से 40 हज़ार रुपये तक की आमदनी हो जाती है।

 मलवरी परियोजना का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक स्तर पर सक्षम बनाना है 

यह परियोजना मलवरी स्टेट कंसलटेंट डॉ आरके पांडे द्वारा साल 2014-15 में सात ज़िलों में लागू की गई थी, जिसमें पहली लिस्ट में सहरसा, सुपौल और मधेपुरा को शामिल किया गया था। साल 2015-2016 में चार अन्य ज़िलों को शामिल किया गया, जिसमें अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार सम्मिलित हैं।

इसका उद्देश्य हर ज़िले से लगभग एक हज़ार किसानों का चयन कर शहतूत की खेती द्वारा मलबरी कीटपालन को बढ़ावा देना है, जिससे कोकून का उत्पादन किया जा सके। अभी तक इस परियोजना से किशनगंज, अररिया, मधेपुरा, सहरसा और सुपौल के तकरीबन 4668 किसान जुड़ चुके हैं। इस परियोजना से 97 प्रतिशत महिलाएं जुडी हैं, जिन्हें ना केवल आर्थिक लाभ हो रहा है बल्कि वे आर्थिक रूप से सशक्त भी हो रही हैं।

शुरुआत में महिलाओं को मलवरी की खेती और कीड़ा पालन को लेकर मन में बहुत डर था, वह इस रोज़गार को शुरु करने से पहले बहुत उधेड़बुन में थीं। एक तरफ, जहां उनके लिए यह एक बिल्कुल नया काम था, वहीं वह उत्पादन में लगने वाली लागत पर भी संशय में थीं।

मगर महिलाओं ने अपने हौसलों को मज़बूत करके अपने कदमों को आगे बढ़ाया। वहीं दूसरी ओर जीविका द्वारा कराए गए प्रशिक्षण और मदद से धीरे-धीरे उनका सारा डर खत्म हो गया। आज महिलाएं अपने घरों की बागडोर थामे आगे बढ़ रही हैं। वे कुशलतापूर्वक कोकून का उत्पादन कर रही हैं, जिससे समाज में उनका सम्मान बढ़ा है। कोसी क्षेत्र की यह महिलाएं रेशम के धागों से अपनी पहचान बुन रही हैं।

नोट- यह आलेख पटना, बिहार से जूही स्मिता ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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