वे लड़कियां जिन्हें कॉलेज की जगह ससुराल में मिला दाखिला
जो ऑफिस बैग, राइफल, कलम की जगह संभालती रहीं बच्चे
डिग्री को अलमारी में बंदकर, हाथ में लिए पति, बच्चों के काम
धारण किए रखा सास-ससुर के परंपरागत मूल्यों का मुकुट
उसपर भी जिन्हें मिलता नहीं कभी लाख कोशिश करने पर
ससुराल की दीवारों में अपनी बातों के लिए अपनापन
उस वक्त वे अपने पास रखती हैं मात्र दो विकल्प
वे जो मान लेती हैं मायका भी पराया है जैसे ससुराल
जिन्हें उम्मीद रहती है, वे मायके चले जाना चुनती हैं
ससुराल को अलविदा कहने वाली लड़कियां
जब आती हैं लौटकर अपने मायके, पिता के घर, तब
याद आया, बताया गया था मायका नहीं ससुराल ही अब घर है
कुछ वक्त हंसी खुशी रहने के बाद,
मायके को सताने लगता है डर कि चार लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे
बेटी घर बैठी है, बेटी को सही जगह ब्याह भी ना पाए
एक वक्त में, वह लड़की सबके लिए उस तरह हो जाती है
माँ के लिए वह सबसे बुरी घड़ी की औलाद हो जाती है
भाई-भाभी के लिए हो जाती है वाहियात खर्चे वाली कोई वस्तु
एक समय पर वह हो जाती है
काम के बाद किसी कोने में बची रखी हुई सीमेंट की बोरी
जिसपर कोई ध्यान नहीं देता
जो पत्नी, बहू तो नहीं रही, वह अब बेटी, बहन भी नहीं रहती,
तब ससुराल से लौटी हुई लड़की मायके के लिए सिर्फ बोझ होती है
लेकिन फिर भी वो लड़की फांसी का फंदा नहीं चुनती
उस वक्त वह लड़कियां ठीक वैसे ही होती हैं
जैसे युद्ध के मैदान में अभिमन्यु अकेले जीवन के लिए लड़ते हुए,
हम उस वक्त इन लड़कियों से आंख तो नहीं मिला पायेंगे
लेकिन कभी मिले तो देखना शरीर से कमज़ोर
ये लड़कियां दुनिया की सबसे हिम्मती, ताकतवर लगती हैं।