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“नारी,तुम केवल श्रद्धा हो”

नारी,तुम केवल श्रद्धा हो

श्रद्धा की सीढ़ियों पर खून-ही-खून जमे मिलेंगे। ऐसा कहते हैं कि जीसस क्राइस्ट इन्हीं सीढ़ियों पर अपने सलीब घसीटते चले गए। जख्मों से रिसता लहू, सिर पर सजा कांटों का ताज। जीसस ने सूली पर अपने प्राण त्यागते हुए कहा “हे परम पिता, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।” आये-हाये आतताइयों की मासूमियत को काला टीका लगा देना चाहिए।

जीसस की बात को आगे बढ़ाते हुए हम इसी निष्कर्ष तक पहुंचेंगे कि “तोप के मुंह में अपने माथे को सौंपने की अक्षमता, आदमी को पाषाण बना देती है।” अपने मन में विद्रोह की भावना को पनपने देना ही पाप है, ऐसे आदमी की कठोरता से विचलित हो उठना स्वाभाविक है। हमारी कंडीशनिंग, हमें हमारे शोषक के प्रति स्वाभाविक अनुराग उत्पन कराती है।

गीता के प्रथम अध्याय के छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन, कृष्ण से कहते हैं

पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः

अर्थात यदि हम आतताइयों का वध करते हैं, तो हम पर पाप चढ़ेगा। अर्जुन की मेंटल कंडीशनिंग उसे आतताइयों से लड़ने को अनुचित ठहराती है और त्याग को आत्मसात करके श्रद्धेय होने की ओर आकर्षित करती है। वह तो भला हो कृष्ण का, जो अर्जुन को समझा-बुझा के लाइन पर लाते हैं, लेकिन आज समझाने-बुझाने वाले भी अर्जुन हो चले हैं।

जय शंकर प्रसाद लिखतें है कि

नारी,तुम केवल श्रद्धा हो”

श्रद्धा की सीढ़ियों को देखकर, मैं वापस ठिठक जाता हूं, जिस पर नारी जीसस से बहुत पहले से अपने सलीब को घसीट रही है, लेकिन किसी बाइबिल में उनके सिर पर सजे कांटों के ताज का जिक्र कहीं नहीं आता। बलात्कार के दोषियों द्वारा पीड़िता से विवाह करने की पहल करने पर क्या हम न्यायालयों को कह सकते हैं कि इन्हें क्षमा करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

श्रद्धेय बनने के लिए औरतों के सामने त्याग का रास्ता खोल दिया जाता है। इस पथ पर मन में बगावत को आश्रय देना दैवत्व की प्राप्ति से भटकाव है। पुरुष समाज के चरित्र संहिता की नियमावली के अनुरूप ढलने पर ही औरत को देवी का दर्ज़ा हासिल हो सकता है, नहीं तो चरित्रहीनता का सर्टिफिकेट (प्रमाण पत्र) थमाने में देर नहीं लगती। नारी का केवल श्रद्धेय होना, नारी के लिए निश्चित ही बहुत खतरनाक है। 

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