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मिथिला की लोकसंस्कृति में मधुश्रावणी पर्व का महत्व

     बिहार के विभिन्न प्रान्तों में प्रायः प्रत्येक माह और सभी ऋतुओं में कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। हिंदू धर्मावलंबियों का महीना सावन शास्त्रों के अनुसार सबसे पवित्र माह है। दरअसल, यह भगवान शिव का सबसे प्रिय माह माना जाता है। वैसे तो भारत में कई तरह के पर्व त्योहार मनाये जाते है, इसी क्रम में मिथिलांचल क्षेत्र में भी प्रत्येक महीना कोई न कोई पर्व मनाने की परंपरा रही है। हिन्दू धर्म में भारतीय संस्कारों की बात की जाए तो सावन को लोकजीवन का, लोकरचना का महीना माना जाता है। वैसे सावन को “श्रावणी” भी कहा जाता है, लेकिन श्रावण मास में मनाया जाने वाला पर्व “मधुश्रावणी” नवविवाहितों के लिए महापर्व है। बहरहाल, इस बार मिथिलांचल में भक्तगण गुरु पूर्णिमा उत्सव 24 जुलाई 2021 को मनाने के साथ ही श्रावण की तैयारी में भी श्रद्धालु जुट चुके हैं। इतिहास साक्षी है कि साल के इस महीने अर्थात “सावन” से ही खेती-बाड़ी से लेकर लोकजीवन तक में एक नई शुरुआत होती है। इसी वजह से भारतीय जनमानस के दिलों पर हमेशा से ही सावन का एक विशेष महत्व रहा है।

      इस बार सावन की शुरुआत 25 जुलाई 2021 को हुई है। आज से मिथिला का लोकपर्व शुरू हो चुका है, वहीं इस बार 26 जुलाई 2021 को प्रथम सोमवार का व्रत प्रारंभ हुआ है। यह सोमवार (सोमवारी) व्रत आगे 02, 09 व 16 अगस्त 2021 को भी बड़े निष्ठा के साथ मनाया जाएगा। श्रद्धालुगण सोमवारी व्रत पर विधिवत पूजा कर जलाभिषेक करने की तैयारी में जुट चुके हैं। कोविड-19 संक्रमण को लेकर वैसे तो कई मंदिरों का दरवाजा अभी तक आम श्रद्धालुओं के लिए बंद है। लेकिन, सोशल मीडिया के सहारे घर बैठे लोगों को कई महादेव मंदिर का दर्शन कराने की भी तैयारियां है। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों के मंदिर इससे प्रभावित नहीं है। वहाँ के शिव मंदिरों में नित्य श्रद्धालु पूजा-पाठ करते हैं।

     आज पहले दिन मां गौरी और विषहारा की पूजा होगी, कोराना के इस दौर में लॉकडाउन का असर इस पर्व पर भी देखने को मिल रहा है, कल शाम में सार्वजनिक स्थानों के बदले नव विवाहित महिलाएं घर के आस पास फूल लोढ़ने निकली।

     सावन का महीना आते ही मिथिलांचल की संस्कृति से ओत-प्रोत नवविवाहितों में काफी उत्साह दिखने लगता है। सोलह श्रृंगार कर फूल की डाली लेकर गीत गाते व सखियों के संग हंसी-ठिठोली करते हुए नवविवाहिताएं मंदिरों के प्रांगण में फूल लोढ़ने का काम करती है। जिससे यहाँ की संस्कृति में “मधुश्रावणी” की गीत गूंजने लगे हैं। लोक पर्व “मधुश्रावणी” की तैयारियों में नव विवाहिताएं जुट गई हैं। पति की लंबी आयु की कामना के लिए चौदह दिवसीय यह पूजा सिर्फ मिथिला वासियों के बीच हीं होता है । यह पावन पर्व मिथिला की नवविवाहिता बहुत ही धूम-धाम के साथ दुल्हन के रूप में सजधज कर मनाती है।

     मैथिल संस्कृति के अनुसार शादी के पहले साल के सावन माह में नव विवाहिताएं “मधुश्रावणी” का व्रत करती हैं। सावन के कृष्ण पक्ष के पंचमी के दिन से “मधुश्रावणी” व्रत की शुरुआत होगी। मैथिल समाज की नव विवाहितों के घर मधुश्रावणी का पर्व विधि-विधान से होता है । इस पर्व में मिट्टी की मूर्तियां, विषहरा, शिव-पार्वती बनाया जाता है।

     “मधुश्रावणी” का पर्व नवविवाहितों के जीवन में सिर्फ एक बार शादी के पहले सावन को ही मनाया जाता है। नव विवाहिताएं बिना नमक के 14 दिन भोजन ग्रहण करेंगी। यह पूजा लगातार 14 दिनों तक चलते हुए श्रावण मास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को विशेष पूजा-अर्चना के साथ व्रत की समाप्ति होती है। इन दिनों नवविवाहिता व्रत रखकर गणेश, चनाई, मिट्टी एवं गोबर से बने विषहारा एवं गौरी-शंकर का विशेष पूजा कर महिला पुरोहिताईन से कथा सुनती है। कथा का प्रारम्भ विषहरा के जन्म एवं राजा श्रीकर से होता है।

     इस व्रत के द्वारा स्त्रियाँ अखण्ड सौभाग्यवती के साथ पति की दीर्घायु होने की कामना करती है। व्रत के प्रारम्भ दिनों में ही नवविवाहिता के ससुराल से पूरे 14 दिनों के व्रत के सामग्री तथा सूर्यास्त से पूर्व प्रतिदिन होने वाली भोजन सामग्री भी वहीं से आती है। शुरु व अन्तिम दिनों में व्रतियों द्वारा समाज व परिवार के लोगों में अंकुरी बाँटने की भी प्रथा देखने को मिलती है। प्रतिदिन पूजन के उपरान्त नवविवाहिता अपने सहेलियों के साथ गाँव के आसपास के मन्दिरों एवं बगीचों में फूल और पत्ते तोडती हुई व्रत का भरपूर आनन्द भी लेती है।

     इस पूजन में संध्या के समय तोड़े गए फूल जो सूबह पूजन के कार्य में लिया जाता है इसका विशेष महत्व है। इसलिए संध्या के समय नवविवाहिता अपने सखी सहेलियों के साथ एक समूह बनाकर पूजन हेतु बांस के डाली में फूल तोड़ती हैं। साथ में महिलाएं गीत गातीं हैं। इस बार 10 जूलाई को पूजा प्रारंभ हुआ है और 22 जुलाई तक चलेगी। लगातार तेरह दिनों तक नवविवाहिता अपने ससुराल का अरवा भोजन प्राप्त करती हैं। तपस्या के समान यह पर्व पति की दीर्घायु के लिये हैं।

     नवविवाहिता के ससुराल पक्ष से विधि विधान में कोई कसर नहीं होने देती हैं। पूजा के अंतिम दिन नवविवाहिता के ससुराल पक्ष से काफी मात्रा में पूजन की सामग्री, कई प्रकार के मिष्ठान ,नए वस्त्र के साथ पांच बुजुर्ग लोग आशीर्वाद देने के लिए पहुँचते हैं। नवविवाहिता ससुराल पक्ष के बुजुर्ग लोगों से आशीर्वाद पाकर हीं पूजा समाप्त करती हैं । मधुश्रावणी पूजा के अंतिम दिन कई विधि विधान तरीके से पूजन का कार्य किया जाता हैं। सुबह शाम महिलाएं समूह बनाकर घंटों गीत गाती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लगातार तेरह दिनों तक पूजा स्थल पर नवविवाहिता की देख रेख में अखंड दीप प्रज्वलित रहती हैं। कथा वाचिका प्रत्येक दिन नवविवाहिता को मधुश्रावणी व्रत कथा सुनाती हैं। पूजा के समय नवविवाहिता नए वस्त्र में आभूषण से सुसज्जित होकर कथा श्रवण के साथ पूजा ,अर्चना करती हैं। पंडितों का कहना है कि मधुश्रावणी पर्व कठिन तपस्या से कम नहीं है।

     मैथिल समुदाय की नवविवाहिता अमर सुहाग के लिए मधुश्रावणी करती हैं। मिथिला की पारंपरिक रीति-रिवाज के अनुसार चलने वाले लोग देश-विदेश में इस व्रत को करते हैं। नेपाल में इस पर्व को बड़े ही पावन तरीके से मनाया जाता है। पूजन स्थल पर मैनी (पुरइन, कमल का पत्ता) के पत्ते पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनायी जाती है।महादेव, गौरी, नाग-नागिन की प्रतिमा स्थापित कर व विभिन्न प्रकार के नैवेद्य चढ़ा कर पूजन प्रारंभ होती है इस व्रत में विशेष रूप से महादेव, गौरी, विषहरी व नाग देवता की पूजा की जाती है।

     प्रत्येक दिन अलग-अलग कथाओं में मैना पंचमी, विषहरी, बिहुला, मनसा, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म, समुद्र मंथन, सती की कथा व्रती को सुनायी जाती है। प्रात:काल की पूजा में गोसांई गीत व पावनी गीत गाये जाती है तथा संध्या की पूजा में कोहबर तथा संझौती गीत गाये जाती है। व्रत के अंतिम दिन व्रती के ससुराल से मिठाई, कपड़े, गहने सहित अन्य सौगात भेजे जाते हैं। अंतिम दिन टेमी दागने की भी परंपरा है। मधुश्रावणी के दिन जलते दीप के बाती से शरीर के कुछ स्थानों पर [घुटने और पैर के पंजे] दागने की परम्परा भी वर्षों से चली आ रही हैं। इसे ही टेमी दागना कहते हैं ।

अनोखा क्यों है यह पर्व :

     यह गौरतलब है कि नवविवाहिता श्रावण पंचमी से पंद्रह दिनों तक नाग देवता की पूजा आराधना करती है नवविवाहिता यह पूजा पंचमी कृष्ण पक्ष से शुरू होकर श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मधुश्रावणी तक नवविवाहिता अपने ससुराल पक्ष से आए हुए अन्न खाती है एवं आये हुए वस्त्र धारण करती है। महिला पंडित संपन्न करवाती है पूजा। लोक कथाओं के माध्यम से संदेश दिया जाता है हालांकि जहां तक पति की यदि हम बात करें तो वे अपनी अधिक व्यस्तता के बाद भी अंतिम दिन इस पूजा में शामिल होते हैं और इसी अंतिम दिन टेमी दागने और सिंदूरदान की परंपरागत सारे विधि विधान से पूजा भी की जाती है। 

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