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वाजपेयी कार्यकाल: “हिन्दू राष्ट्र का कच्चा माल”

Atal Bihari Vajpayee

Atal Bihari Vajpayee

अद्भुत अतुलनीय नेता की छवि बनाना, जिस पर उंगली उठाना, देश पर उंगली उठाना माना जाए, आसान नहीं होता है। गांधी, नेहरु, इंदिरा, वाजपयी और मोदी इस मामले में एक जैसे हैं। इन सभी को अपनी छवि का निर्माण और उसका उपयोग करना बहुत अच्छे से आता था। अब ये वाद-विवाद का विषय है किसने इसका सदुपयोग किया एक बेहतर देश बनाने में और किसने देश को पीछे ले जाने में।

आज हम चर्चा करेंगे कि आज के मोदी-हिंदुत्व-साम्राज्य के लिए क्या वाजपयी कार्यकाल में ज़मीन तैयार की गई थी? कई लोग ये भी कहेंगे कि वाजपयी, मोदी को उतना पसंद नहीं करते थे और आडवाणी असल में मोदी को आगे लेकर आये, मैं इस तर्क से तार्रुफ़ नहीं रखता। क्यों? आइये जानते हैं।

वाजपयी जी का छद्मराष्ट्रवाद और उसके कारक

वाजपयी का भाषण वीर रस, सम्मान, गौरव, प्रतिष्ठा, छद्मराष्ट्रवाद इन चीज़ों से ओतप्रोत हुआ करता था। यूं कहूं कि मोदी ने वाजपयी से ही अपने भाषणों में बेमतलब की लुभावनी बातों का ज़िक्र करना सीखा है। मैंने छद्मराष्ट्रवाद इसलिए कहा क्योंकि मोदी और वाजपयी दोनों के राष्ट्रवाद में हिन्दू रेस की अपनी मातभूमि के प्रति समर्पण छलकता है न कि हिन्दुस्तानी रेस में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सूत्रपात।

वाजपयी ने “जय जवान जय किसान” के साथ “जय विज्ञान” का नारा दिया और अब्दुल कलाम उस समय देश के राष्ट्रपति बने। अब आप देखिये छवी का खेल कैसे होता है। वाजपयी और कलाम सत्य साईं बाबा के भक्त थे। सत्य साईं खुद को भगवान का अवतार कहते थे और सचिन तेंदुलकर जैसे लोग आज भी उन्हें भगवान मानते हैं। सत्य साईं पर माइनर सेक्सुअल एब्यूस जैसे कई गंभीर आरोप थे। भारत के और दुनिया के तर्कवादियों ने सत्य साईं और उनके जैसे कई अवैज्ञानिक चमत्कारी बाबाओं को लोगों के सामने एक्सपोस करने के लिए खुले मंच पर चेलेंज किया लेकिन वाजपयी ने ऐसा होने नहीं दिया।

सत्य साईं को बचाया गया और और उन पर दर्ज सारे आपराधिक मामले रद्द कर दिए गये। अब्दुल कलाम को सनल इदाम्रुकू जैसे कई रेशनलिस्टों ने पत्र लिखे कि वे अगर कदम उठाएंगे तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण क तरफ बढ़ते हुए भारत को बल मिलेगा, लेकिन कलाम साहब ने इन पत्रों का कोई जवाब नहीं दिया। जब मुझे ये बात पता चली तो पर्सनली मुझे बहुत दुःख हुआ क्योंकि आज़ाद भारत में पहला वैज्ञानिक राष्ट्रपति ही चमत्कारी बाबाओं का पक्ष लेगा तो ये देश के भविष्य से खिलवाड़ है।

राजनीति का वैज्ञानिक द्रष्टिकोण और चमत्कारिक दृष्टिकोण

वैज्ञानिक द्रष्टिकोण और चमत्कारिक दृष्टिकोण एक मयान में साथ नहीं रह सकते इसलिए मैं कहता हूं कि “जय विज्ञान” का नारा एक बहुत बड़ा ढकोसला था, क्योंकि मैं तो चाह रहा था कि चमत्कारी बाबा चेलेंज स्वीकार करें, इसमें विजय प्राप्त करें और मैं हमेशा हमेशा के लिए बाबाओं का भक्त बन जाऊं, पर अफसोस कि ऐसा हो न सका। तुलनात्मक तौर पर आप देखिये कभी मोदी के मुंह से एक शब्द भी निर्मल बाबा, राम रहीम, आशाराम , नित्यानंद,  साक्षी महाराज जैसे फर्ज़ी बाबाओं के बारे में नहीं सुनेंगे। बनारस में स्वामी बालेन्दु एक नास्तिक बाबा हैं जो चमत्कारों के पीछे के रहस्य लोगों के बीच रखते हैं। स्वामी बालेन्दु ने बनारस में नास्तिकों की एक सभा बुलाई थी। विश्व हिन्दू परिषद् ने यह सभा होने नहीं थी। जो लेगसी कलाम और वाजपयी ने शुरू की थी वो आज भी कायम है।

वाजपयी के इसी कार्यकाल में अमृतानन्दमई माँ जिन्हें अम्मा भी कहा जाता है। उन्हें 2002 में गाँधी किंग अवार्ड दिया गया। अब इन अम्मा पर कम से कम 5 हत्याओं के गंभीर आरोप है तो ऐसे व्यक्ति को अवार्ड देना या दिलवाना अपने आप में गाँधी-किंग अवार्ड का अपमान है।

टीवी चैनल्स का हिंदूवादी विचारधारा का कितना योगदान रहा

2000 में सबसे कमाल की टेकटिक अपनाई गई कि आध्यात्म के नाम पर भारत के घर घर में घुसने की आस्था, संस्कार जैसे चैनलों का उदय हुआ जिन पर खुले आम भड़काऊ विचार बड़े प्रेम के साथ लोगों के दिमाग में बोया गये। जैसे “अगर आपने इस धरती पर रहते हुए राम-कृष्ण की भक्ति नहीं की तो आपका मनुष्य जीवन तुच्छ है”। ‘हिंदु धर्म सनातन (फ़ॉर एवर) है, बाकी धर्म नहीं है’। इन चैनलों की ऑडियंस थी बच्चे, बूढ़े और घरेलू महिलायें।

2 साल के ही भीतर इन चैनलों की लोगों को ऐसी लत लगी कि घर में अगर ये चैनल नहीं चलते तो खाना नहीं बनता था। डीडी 1 पर रामायण और महाभारत की अपार सफलता के समय बाबरी काण्ड हुआ था। अब इन संस्कारी चैनलों में पुराण और भागवत भी सुनाई जाने लगी थी। बाबाओं ने अपने स्वीट काढ़े में हिदुइस्म के नाम पर हिंदुत्व और साथ ही साथ नकली इतिहास भी मिक्स कर दिया और दूसरे धर्मों के प्रति नफरत फैलाई जाने लगी। ये सब वाजपयी के सामने हुआ क्योंकि वे तो आरएसएस में पढ़े हुए कट्टर हिन्दुत्ववादी थे। इन चैनलों की जो ऑडियंस थी वही आगे चल के देश का बड़ा वोट प्रतिशत बन गई।

रामदेव को भी उसी समय हीरो बनाया गया था क्योंकि जब एक साधु जैसे कपड़े पहने हुए व्यक्ति स्वदेशी की बात करे और उसकी फ्लेक्सिबिलिटी भी जिमनास्ट से कम हो, तो यह उत्पाद बिकाऊ हो सकता है। हर संस्कारी चेनल ने रामदेव की बोली लगाई, रामदेव इतने आगे निकल गये कि बाद में उन्होंने वे सारे चैनल ही खरीद डाले। रामदेव ने योगा को अपना औज़ार बनाया। उस समय लोग फिल्मी हीरो-हीरोइनों को देख उनकी तरह बनना चाह रहे थे। फिर छोटे शहर के वो लोग जो जिम के पैसा नहीं खर्च करना चाह रहे थे या जिम जिनके घर से बहुत दूर था उनके लिए योग का घर बैठे फ़्री सब्सक्रिप्शन मिल गया।

जो बाक़ी बची ऑडियंस थी वो योगा के ज़रिये भगवा की कस्टमर बन गई। लोगों को पता ही नहीं चला कि योगा की आड़ में उनका भगवाकरण गया। रामदेव बाबा देश के सबसे बड़े बिज़निसमेन में से एक हैं और फ़ेयरनेस क्रीम से लेकर जींस सब बेंचते हैं। इस बिलिनियर की महान खोज भी वाजपयी कार्यकाल में हुई।

शाह और मोदी की लीडरशिप और प्रधानमंत्री बनने का सफर

शाह और मोदी की करीबी के बारे में आरएसएस की सीनियर लीडरशिप में हर कोई जानता था। वाघेला ने मोदी की शिकायत की तो मोदी को दिल्ली भेज दिया गया लेकिन शाह को गुजरात छोड़ दिया गया। अगर वाकई वाजपयी मोदी को गुजरात की सत्ता से दूर रखना चाहते तो वे शाह को ज़रूर किसी और राज्य में डालते। अगर शाह गुजरात में है इसका मतलब मोदी गुजरात में है। मोदी दिल्ली में है इसका मतलब शाह दिल्ली में है। मोदी-शाह को इस तरह दो राज्यों की कमान एक साथ मिल गई। जिससे उनके काम में या वाजपयी के काम में या आरएसएस के काम में आसानी हुई।

संजय जोशी और हरेन पंड्या, आरएसएस के दो ब्राह्मण नेता, दोनों का केशु भाई पटेल की गुजरात की विजय में बड़ा हाथ था। इन दोनों को भी दिल्ली बुला लिया गया। केशु भाई पटेल का भी वर्चस्व आरएसएस और आम जन में कम नहीं था। केशु भाई पटेल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी हो सकते थे। इसलिए उनकी जगह पर ऐसा व्यक्ति चुना जाना था जो पटेल से करीबी न रखता हो और वह था नरेंद्र मोदी। संजय जोशी या हरेन पंड्या को सत्ता देना तो ऐसा ही था जैसे केशु भाई को सत्ता देना हो।

पटेल ने वैसे भी गृह राज्य मंत्री का पद पंड्या को दिया था। तो पटेल को शिफ्ट किया गया राज्यसभा में और गुजरात आ गया मोदी के हाथ में। यहां सिर्फ रिवेन्यु मिनिस्ट्री पंड्या को मिली और ज़्यादातर मंत्रालय आ गये अमित शाह के हाथ में। आत्म-सम्मान के चलते पंड्या ने मिनिस्ट्री छोड़ दी और उन्हें वाजपयी ने फिर दिल्ली बुला लिया। पंड्या समझ गया कि उसे अब 2002 चुनाव में टिकिट नहीं मिलने वाला।

गुजरात दंगे और नेताओं के कत्ल

पंड्या ने आउटलुक को दिए इन्टरव्यू में गुजरात दंगे की साजिश में मोदी की मीटिंग के बारे में बता दिया। लोग उम्मीद कर रहे थे कि वाजपयी मोदी को हटा के देंगे। ऐसी स्थिति में पंड्या या संजय जोशी में से एक मुख्यमंत्री बनता और अमित शाह के हाथ से सारे डिपार्टमेंट चले जाते। वाजपयी का उस समय जो कद था, वो मोदी-शाह को पार्टी से आसानी से निकाल सकते थे। पंड्या ने मीडिया में कहा भी कि उनकी जान को खतरा है, लेकिन कुछ नहीं हुआ सिर्फ पंड्या का मर्डर हो गया। जब तक ये केस चला है तब तक मर्डर और एनकाउंटर का सिलसिला रुका ही नहीं।

पंड्या ही वो एक व्यक्ति था जो आरएसएस और भाजपा का होने के बाद भी 2002 दंगों के समय हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कर रहा था। 2002 के मुस्लिम नरसंहार के तुरंत बाद जब संजय जोशी और प्रमोद महाजन ने वाजपयी से मोदी के इस्तीफ़े की मांग की उसके कुछ समय बाद ही वाजपयी ने भड़काऊ भाषण दिया कि “भारत मुस्लिमों और ईसाईयों के आने से पहले ही धर्म-निरपेक्ष था। मुस्लिम दो तरह के होते हैं एक शांतिप्रिय और दुसरे कट्टरपंथी। मुस्लिम शांतिप्रिय ढंग से रहना ही नहीं चाहते। 2002 के माहोल को देखते हुए इससे भड़काऊ और क्या होगा? इस भाषण से ये स्पष्ट हो गया कि वाजपयी किस की तरफ थे।

वाजपयी जी का नेताओं के प्रति दृष्टिकोण

संजय जोशी, और महाजन, वाजपयी से वह उम्मीद कर रहे थे जैसा उनकी छवि को देख लगता था। जोशी को दिल्ली भेज दिया गया और पार्टी का जनरल सेक्रेटरी बना दिया गया। अडवाणी के जिन्ना की तारीफ करने पर जोशी ने अडवाणी का इस्तीफ़ा मांग लिया। भाजपा की 25वीं वर्षगाँठ ( 2005) पर जोशी की भाजपा हेडक्वार्टर के बाहर सेक्स सीडी लीक कर दी गई। सेक्स सीडी में जो लड़की थी वो परिवार समेत गायब कर दी गई. 2006 में महाजन का भी मर्डर हो गया।

10 वीं कक्षा में वाजपयी ने हिन्दू तनमन , हिन्दू जीवन, हिन्दू मेरा परिचय कविता लिखी। उनके भाषणों में आप देखिये उन्होंने अपने हिंदुत्व को बाकी आरएसएस के हिंदुत्व से अलग परिभाषित करने की कोशिश की। ये वैसी ही बात है जैसे एक वहाबी खुद को दुसरे वहाबी से अलग करे। वाजपयी ने कभी भी लोगों को हिंदुत्व और हिन्दुवाद का अंतर बताने की कोशिश नहीं की बल्कि दोनों को एक बता कर अपना वोट बैंक का बनाया। पुणे में अपने भाषण में उन्होंने बुनियादी तौर पर भारत को हिन्दू राष्ट्र बताया धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र नहीं और सावरकर की बातें दोहराई।

जोर्ज फर्नांडिस को वाजपयी कार्यकाल में रक्षा मंत्री बनाया गया। जोर्ज फर्नांडिस पर बरोदा डायनामाईट ब्लास्ट, हम रेडियो प्लानिंग, वेपन रोबरी प्लानिंग इन ट्रेन, गवर्नमेंट ऑफिस ब्लास्ट प्लानिंग जैसे आरोप थे। अगर ऐसा व्यक्ति देशद्रोह में नहीं पकड़ा गया तो कैसा व्यक्ति पकड़ा जायेगा? वाजपयी ने ऐसी विचारधारा वाले व्यक्ति को अपना रक्षा मंत्री बनाया।

तमाम पार्टियों, नेताओं, मीडिया ने कई बार वाजपयी को समझाने की कोशिश की वे तो सही व्यक्ति हैं जो एक गलत पार्टी में हैं लेकिन उन्होंने कभी ये बात नहीं मानी। अगर वाजपयी वाकई में सिद्धांतों वाले व्यक्ति थे और वे जनसंघ छोड़ सकते थे तो उन्होंने भाजपा क्यों नहीं छोड़ी?

वर्ष 1998 और नरसंहार एक सिक्के के दो पहलू

वाजपयी ने 1992 में पहले खुद मस्जिद की ज़मीन समतल करने का भड़काऊ भाषण दिया और फिर बाद में आंसू बहाए कि मस्जिद तोड़ी नहीं जानी चाहिए थी। मतलब जब मन हुआ शक्तिशाली नेता बन गये और जब मन हुआ असहाय बन गये। शक्तिशाली सिद्धांतों वाला आदमी तब भी खुद को पार्टी से किनारे कर सकता था।

2004 में बाजपयी और हिंदुत्व के क़रीबी जयेंद्र सरस्वती पर जब सवाल उठे तो 2004 में सवाल उठाने वाले शंकरारमन की ही हत्या हो गई और जैसा कि प्रचलन में रहा है कि ऐसे किसी भी केस में जिस से भारत की ब्राह्मणवादी सोच को ठेस पहुंचे उस केस में कभी कोई पकड़ा ही नहीं जाता। सबूत, गवाह सब गायब हो जाते हैं। केस हमेशा हमेशा के लिए बंद हो जाता है।

भारत में जितने नरसंहार 1998 से शुरू हुए हैं उतने शायद ही का कभी हुए होंगे। 1999-2000 में कारगिल युद्ध हुआ था। युद्ध में विजय का वाजपयी को खूब राजनैतिक फायदा हुआ। इसी समय राष्ट्रवादी भाषणों के पीछे दुनिया का सबसे शर्मनाक ताबूत घोटाला हुआ। भारत ने अमेरिका से कई गुना ज़्यादा कीमत में ज़्यादा वजन वाले ताबूत खरीदे। बराक मिसाइल घोटाला भी हुआ लेकिन जैसा कि भारत के ज़्यादातर हाई प्रोफ़ाइल घोटालों में होता है पकड़ा कोई नहीं गया। सिद्धांतवादी माने जाने वाले वाजपयी और जोर्ज फर्नांडिस दोनों से इस्तीफ़े की मांग उठी, मगर उनने दिया नहीं।

गोवा में 2000 में आरएसएस और संघ परिवार के पुराने प्रचारक मनोहर परिकर मुख्यमंत्री बनाये गये और उसी साल वहां भारत के सबसे बड़े हिन्दू आतंकी संघठन माने जाने वाले  सनातन संस्था की स्थापना हुई। स्थानीय लोग खूब आपत्ति उठाते रहे, न परिकर ने सुनी, न वाजपयी ने परिकर ने अगले ही साल 51 सरकारी प्राइमरी स्कूल भी आरएसएस की विद्या भारती को दे दिए। (सोचिये अलग-अलग राज्य में ऐसे कितने सरकारी स्कूल विद्या भारती को दिए गये होंगे) उस दौरान इस पर भी सवाल उठे, जवाब कभी नहीं आया। वैसे परिकर की जीवन शेली को आप देखें तो आपको वाजपयी की याद आएगी क्योंकि वे भी वाजपयी जैसी छवि बनाने में कामयाब रहे। लेकिन परिकर के भाषण सुने तो उनमें वही आरएसएस वाली नीति आपको साफ दिखेगी जो वाजपयी में भी दिखती है।

वाजपयी जी और उनकी छवि को खंगालते हुए कुछ तथ्य

2001 में पार्लियामेंट अटैक हुआ। जिस तरह से अटैक हुआ था यह बात तो साबित हो ही गई थी कि इंटेलिजेंस में भारी चूक हुई है और पार्लियामेंट में से कोई न कोई इस अटैक में इन्वोल्व था। जी न्यूज़ वालों ने पुलिस इन्वेस्टीगेशन के आधार पर एक डोक्यु-ड्रामा बनाया जिसे टीवी पर टेलीकास्ट किया जाने लगा। अडवाणी और वाजपयी को पूरी जांच होने से पहले इस तरह के टेलीकास्ट को रोकना चाहिए था उन्होंने इस डोक्युड्रामा की खुले आम तारीफ की। जबकि बाद में पता चला गिलानी जिसे मास्टरमाइंड बताया गया था वो तो निर्दोष निकला। अगर गिलानी की माने तो बाकी पकड़े गये लोग भी आम कश्मीरी थे जिन्हें अटैक से एक-दो दिन पहले ही गिरफ़्तार कर लिया गया था। कुछ कुछ आपको इशरत जहां वाले केस की याद आई होगी।

मिनाक्षीपुरम 1981 में जब अछूत माने जाने वाले दलितों ने इस्लाम स्वीकार लिया तो वाजपयी वहां गये थे। वाजपयी और हिन्दू ताकतों ने ये बताया कि हिन्दुओं का धर्मांतरण हो रहा है जबकी वहां के दलितों ने बताया कि वे छुआछूत से परेशान हो कर और पैसे के लालच में धर्म बदल रहे हैं। 1991 जब बाबरी मस्जिद डेमोलिशन की ज़मीन तैयार हो रही थी तो वे कन्वर्टेड मुस्लिम वापस हिन्दू बन गये। इस बार ये कहा गया कि वे स्वेच्छा से और इस्लाम से नाख़ुशी के कारण वापस हिन्दू में कन्वर्ट हो गये हैं।

2004 में चुनाव हारते ही वाजपयी ने मुखर्जी की मौत नेहरु की साजिश बताई थी बिलकुल वैसे ही जैसे मोदी यही हथकंडा अपनाते हैं। इस तर्क पर तो दीन दयाल उपाध्याय की मौत भी एक साजिश लगती है जिसके तुरंत बाद वाजपयी के हाथ में कमान आ गई थी।

इसमें कोई शक नहीं कि वाजपयी एक बेहतरीन कवि थे। लोगों के साथ मिल-जुल काम करने वाले थे, तानाशाह प्रवत्ति के नहीं थे। उनकी विदेश नीति भी सफल रही। खासतौर पर इकोनॉमी उनके समय में बहुत अच्छी चली। रिसर्च का बजट बढ़ा कर उनने जीडीपी का 1.1% किया था। सड़क और शिक्षा की कई सफल योजनायें चलाई। लेकिन उनके कार्यकाल में हिंदुत्व राष्ट्र की ज़मीन भी तैयार की गई और हिंदुत्व राष्ट्र, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र नहीं हो सकता। मोदी को वाजपयी ग़लती से आगे लाये या फिर जान-बूझ कर, ये कभी पता नहीं चलेगा। अगर मोदी की जगह आज वाजपयी भी प्रधानमंत्री होते तो भले भारत इकोनॉमी के लेवल में बेहतर हो सकता था लेकिन धार्मिक मामलों में लगभाग वहीं होता जहां आज है।

मेरी दिक्कत सिर्फ इतनी है कि मैं वाजपयी को मूर्ख और मजबूर नहीं देखना चाहता। अब या तो उन्हें मैं मासूम मान लूं या फिर ये मान लूं तो कि बेकग्राउंड में चल रहे इतने बड़े बड़े षड्यंत्रों में वे शामिल थे।

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