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किताब समीक्षा: कुछ यूं रचती हैं हमें किताबें

किताब समीक्षा: कुछ यूं रचती हैं हमें किताबें

“किताब” केवल एक किताब नहीं है वरन उन अनगिनत पलों का हिसाब है, जिसकी भरपाई कर पाना नामुमकिन है। यह जवाब है, तमाम शिक्षा के विचारणीय सवालों का और बदहाल शिक्षा तंत्र और अनेकों साक्षर शिक्षकों पर भी प्रश्नचिन्ह है, जो साक्षर और सुशिक्षित होने के बीच का बड़ा फासला कभी समझ ही नहीं पाए।

“किताब” आर डी सैनी के व्यक्तित्व निर्माण की वो कहानी है जिसे गढा ही है, एक किताब ने, यह उदाहरण है एक किताब की ताकत का और यह उन अनेकों विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा है, जो हार जाते हैं और निराश वातावरण में कुछ अच्छा ढूंढ ही नहीं पाते हैं।

“किताब” निराशा के उस दौर की वो रौशनी है, जो हमें साहसी बनाती है और हमारे साथ बिना भेदभाव के एक सच्चे मित्र की भांति बर्ताव करती है। उसकी कहानी हमें कुछ अपनी सी लगती है और कब वो कहानी असल में हमारी कहानी बन जाती है, हमें पता ही नहीं चलता है।

“किताब” आर डी सैनी यानी रामजी की कहानी है। रामजी एक बिल्कुल साधारण सा बालक है। बेपरवाह रामजी अपनी माँ की एक आवाज़ में उस जगह जाने के लिए तैयार हो गया, जो उसके लिए बिल्कुल अनजानी थी। इस अनजानी जगह के बारे में जानने के लिए वह बहुत जिज्ञासु था। ऐसे बहुत से सवाल उसके जहन में थे, लेकिन उन प्रश्नों के जवाब देने के लिए ना तो किसी के पास समय था और ना ही किसी ने उसके इन प्रश्नों को तवज्जो देनी चाही। 

ऐसे बच्चों के पास ना जाने कितने सवाल होते हैं लेकिन उन्हें बार-बार चुप करा कर उनकी सवाल करने की इस आदत को ही मार दिया जाता है। पहले तो सिर्फ पूछने की आदत ही मरती है फिर धीरे-धीरे उनके सवाल ही पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं। बच्चों को भक्तिभाव से सभी को सुनने की आदत हो जाती है फिर उन्हें ना कोई चीज़ खटकती है और ना ही उनके मन में सवाल पैदा होते हैं।

राम जी को पता लगता है कि यह अनजानी जगह का नाम स्कूल है और यहां पढ़ाई होती है, लेकिन इससे पहले कि वो स्कूल में जाकर अपने बाकी सवालों के जवाब पाता या सच में पढ़ाई करता उसे एक दृश्य बुरी तरह दहला देता है। मास्टर जी का उसी के बड़े भाई को उसके सामने मारना। उसका साक्षात्कार ही स्कूल से डंडे की नोक पर होता है। उसके लिए स्कूल का मतलब पढ़ना कम और डंडे खाना ज़्यादा हो जाता है। उसके कदम अपनी पहली कक्षा की ओर बढ़ रहे थे और डर का साया उसके दिलों-दिमाग पर गहराई से छा रहा था।

स्कूल में जाने के कुछ दिनों के बाद ही वह समझ गया था कि शिक्षकों को खुश करना ही खुद की शांति का सर्वोत्तम उपाय है। इसलिए रामजी ने हर वो काम किया जो उसके शिक्षकों को खुश करे। उनकी हर आज्ञा का पालन किया और एक कर्तव्यनिष्ठ छात्र बन गया। यह कह पाना मुश्किल है कि रामजी स्वयं व्यक्तिगत तौर पर कितना विकसित हुआ लेकिन वह दूसरी कक्षा तक आसानी से पास ज़रूर हो गया था।

दूसरी कक्षा से तीसरी में दाखिला पाने तक के कठिन सफर का अनुमान शायद ही रामजी ने लगाया हो और मुश्किल से ही कोई ऐसा होगा, जो उसके इस बेहद ही दर्दनाक और कठिन सफर में उसका हमराही बन पाया हो। सामाजिकरण जैसी प्रक्रिया से एक बच्चे का साक्षात्कार अपने घर या मोहल्ले में हो जाता है। जात-पात का भेद, बड़े-छोटे का अंतर, अमीर-गरीब जैसी चीज़ें भी बच्चा यहीं से सीखता है लेकिन है तो वह महज़ एक बच्चा ही। 

इस दिखावे की बाहर की दुनिया से अभी उसका मेल-मिलाप कम ही हुआ होता है लेकिन जैसा उसे सिखा दिया जाए, वो झट से उस मोड में ढल जाता है। बेचारा रामजी तो दिखावा करना भी नहीं जानता था। वो जैसा है, वैसा होना उसे हर जगह मज़ाक का पात्र बना देता है। चहल-पहल के माहौल में भी वह अकेला पड़ जाता है। दुनिया वालों की ज़िन्दगी उसके कारण रंगीन बन जाती है, उन्हें हंसने का मौका मिल जाता है लेकिन उसकी दुनिया अंधकारमय हो जाती है। उसका हाल अंधेरे में काली चादर सा हो जाता है।

पब्लिक स्कूल की शानों शौकत में, स्कूल के असल मूल्य कहीं छुप से जाते हैं। जिस जगह बच्चों को विविधता का उत्सव मनाना सीखना चाहिए। वहां हम विविध लोगों के अस्तित्व तक को स्वीकार करने तक के लिए तैयार नहीं होते हैं। यह सब चीज़ें, हम अपने समाज, अपने अभिभावकों और अपने शिक्षकों से ही सीखते हैं। वैसे, वास्तव में होना तो यह चाहिए था कि स्कूल एक लोकतांत्रिक जगह होनी चाहिए थी, जहां आपको सोचने के नए सिरे दिए जाएं, सोचना कैसे है यह सिखाया जाए? क्या सोचना है ये नहीं और ऐसी शिक्षा अर्जित करने का कोई फायदा नहीं, जो आपको शिक्षित अनपढ़ बना कर छोड़ दे। 

शिक्षकों को भी यह समझने की ज़रूरत है कि उनकी महानता बच्चों में उनके लिए पैदा खौफ से सिद्ध नहीं होगी। शिक्षक तो वह इंसान है, जो बच्चों के लिए स्कूल को उनकी सबसे पसंदीदा जगह भी बना सकता है और उन्हीं बच्चों के मन में स्कूल के लिए नफरत भी पैदा कर सकता है।

भाषा अपने विचारों को आदान-प्रदान करने का एक सशक्त माध्यम है लेकिन रामजी के लिए तो हाई क्लास कही जाने वाली अंग्रेज़ी भाषा फांसी का फंदा ही बन गई। यहां तक की अंग्रेज़ी भाषा ने, उसे खुद के लिए ही मज़ाक बना दिया। इन सभी चीज़ों ने मिल कर रामजी को इस कदर मज़बूर कर दिया कि घर से भागना उसका पसंदीदा काम हो गया, क्योंकि इससे वह कुछ समय के लिए ही सही पर स्कूल से दूर रह पाता था। स्कूल में फेल होने ने तो उसे उस हीनता का अनुभव करा दिया, जिसका हकदार वो कभी था ही नहीं। उसे कोई यह समझाने वाला नहीं था कि हारना ज़िन्दगी का हिस्सा है, अंत नहीं।

एक बच्चा अनुभवात्मक तरीके से सीखने पर विश्वास रखता है। वो देखता है, घूरता है, कुछ समझ ना आए तो मुस्कुरा देता है। धीरे-धीरे अपने शरीर को संभालना सीखता है, बैठना सीखता है और फिर खड़ा होने का प्रयास करता है। इस दौरान उसे, उंगली की ज़रूरत पड़ती है, क्योंकि वह गिरने से डरता है, लेकिन एक ही बार रोता है गिरने पर और फिर उसका यह डर भी एक दिन पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। वो बार-बार खड़ा होता है, कई बार गिरता है लेकिन चलना सीख जाता है। चंद शब्दों से शुरुआत कर अब वो कई शब्द भी बोलना सीख चुका होता है। वो अपने परिजनों को पहचानने लगता है। इन्सान और जानवरों में अंतर समझने लगता है।

अब वह लड़की-लड़के का अंतर भी समझता है। वो वाक्य बनाना भी सीख लेता है और-तो-और वाक्य को काल, वचन और लिंग के अनुसार सुव्यवस्थित करना भी सीख जाता है। अब तो उसे बिना प्रश्नवाचक वाक्य के ज्ञान के सवाल पूछना भी आ जाता है। क्या यह सब उसे कोई शिक्षक सिखाता है या कोई ट्यूशन? या वह स्कूल जाता है यह सब सीखने? या फिर उसके अभिभावक उसे घर पर ही हर दिन पढ़ाते हैं? नहीं ना!

अरे जब इतना सब कुछ वो देखकर, सुनकर और समझकर सीख सकता है तो उसे पढ़ाई के नाम पर अलग-थलग करने की ज़रूरत ही क्या है! उसे ऐसा महसूस करा देना कि वो असाधारण है और कुछ नहीं कर सकता भला ये हमारी किस स्तर की समझदारी है? कैसा बड़प्पन है, क्यों किसी को परवाह नहीं की एक छोटे से बच्चे पर किस कदर इस सब का प्रभाव पड़ेगा? यही कुछ तो राम जी के साथ भी था, जब आशाएं ही भौतिकवादी हो तो भला कोई कैसे उन आशाओं पर खरा उतर पाएगा? 

लेकिन, कहते हैं ना किताब जैसा वफादार कोई दोस्त नहीं, “किताब” की भाषा में कहें तो:

“इंटरनेट से ज़्यादा

जादुई है

गूगल से कहीं

करिश्माई है

किताब”

बिना दोस्तों के रामजी को उसका सबसे अच्छा और पक्का दोस्त मिला तो वह किताब के रूप में मिला। उस किताब ने रामजी को असल ज़िन्दगी में हीरो बना दिया था। एक किताब ने हैरान, परेशान और बेचैन से रहने वाले रामजी को आत्मविश्वासी और साहसी बना दिया था। एक अच्छी किताब का कोई अंत नहीं होता। उस किताब ने रामजी की ज़िन्दगी का रुख बदल दिया और उसे फिर से जीना सिखा दिया।

रामजी ने किताबों के साथ-साथ अपने और भी दोस्त बनाए। रामजी कहानियां पढ़ते-पढ़ते कहानी लिखना भी सीख गया था। एक समय था, जब उसे फेल होने के कारण स्कूल से निकाल दिया गया था, पर अब वो शिक्षकों और अपने साथियों के बीच कहानियां सुनाने और लिखने के लिए प्रसिद्ध था। उसके इस बदले स्वभाव से, उसके घरवाले भी बहुत खुश थे। सच में, एक बार जब आप पढ़ना सीख लेते हैं ना तो हमेशा के लिए आज़ाद हो जाते हैं। शुक्रिया महेश सर “किताब” से साक्षात्कार करवाने के लिए।

 

कृति अटवाल (11वीं)

नानकमत्ता पब्लिक स्कूल

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