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जीविका दीदियों की पर्यावरण संरक्षण के लिए अनूठी पहल इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां

जीविका दीदियों की पर्यावरण संरक्षण के लिए अनूठी पहल इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां

रक्षाबंधन का त्यौहार भाई-बहन के प्यार को दर्शाता है। ऐसे में हर बहन अपने भाई के लिए बेहद खास राखियों का चयन करती है और इसे लेकर बाज़ार भी सजा हुआ है। भले ही भाई-बहन के प्यार में कोई बदलाव ना आया हो, लेकिन बदलते वक्त के साथ राखी का स्टाइल ज़रूर बदला है।

अभी लेटेस्ट ट्रेंड में इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां काफी पसंद की जा रही हैं। प्राकृतिक रूप से इसे रेशम के कीड़े से तैयार किया गया है। रेशम के कीड़े कोकून में रहते हैं और उनके निकाले जाने के बाद रेशम का धागा तैयार किया जाता है, लेकिन कई बार मौसम खराब होने पर कोकून से कीड़े निकल जाते हैं, जिससे वह बेकार हो जाते हैं और ऐसे में उन्हें फेंकने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रह जाता है। इससे जहां समय की हानि होती है, वहीं आर्थिक रूप से घाटा भी होता है, लेकिन अब इन कोकून को फेंकने की जगह पूर्णिया की जीविका दीदियों ने एक नायाब तरीका निकाला, जिससे वह इस कोकून को बर्बाद नहीं होने देती हैं और वह इससे इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां तैयार कर रही हैं।

दरअसल, उत्तर बिहार के पूर्णिया और आसपास के कई ज़िलों में मलबरी बोर्ड के अंतर्गत बड़े पैमाने पर रेशम के कीड़ों से कोकून तैयार कर रेशम के धागे बनाए जाते हैं। इसके लिए बाकायदा कई स्वयं सहायता समूहें काम कर रहे हैं, जिन्हें बिहार सरकार की जीविका परियोजना के अंतर्गत प्रशिक्षित किया जाता है।

जीविका दीदियों की अनूठी पहल इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां 

इनमें काम करने वाली महिलाओं को जीविका दीदी के रूप में पहचाना जाता है। इस ज़िले के पश्चिम धमदाहा ब्लॉक स्थित मुगलिया पुरनदाहा गाँव और उसके आसपास के गाँवों के करीब छह समूहों से जुड़ी तकरीबन 60 महिला सदस्या इस कार्य में जुटी हुई हैं। उनका लक्ष्य 40,000 राखियां तैयार करने का है और अब तक उन्होंने 37,000 से ज़्यादा राखियां तैयार कर ली हैं। इन राखियों की कीमत बाज़ार में 15 रुपये से लेकर 50 रुपये तक की है।

इस संबंध में पूर्णिया के मलबरी सलाहकार अशोक कुमार मेहता बताते हैं कि जीविका से जुड़ी दीदीयां राखी आने से 15 दिन पहले से हज़ारों की संख्या में कोकून की राखियां तैयार करती हैं। इसके लिए वह पहले कोकून को काटकर एक आकार देती हैं, जिसमें सफेद और पीला रंग शामिल होता है। अगर उन्हें अलग से कुछ कलर तैयार करना होता है तो वह सफेद कोकून को अन्य हल्के रंग से कलर करती हैं। इसके बाद सजाने के लिए बाज़ार में मिलने वाले उत्पादों और धागों से राखियां तैयार की जाती हैं।

यह सामान उपलब्ध कराने में जीविका के सदस्यों की अहम भूमिका होती है। अभी इन्होंने 37,000 हज़ार से ज़्यादा  राखियां तैयार कर ली हैं, जिसे किशनगंज, भागलपुर, समस्तीपुर, गया, बोधगया, नालंदा, दरभंगा, धमदाहा पूर्णिया पूर्व, जलालगढ़, सुपौल और पटना भेजा गया है। पिछले साल कुछ ही दीदियों ने राखियां तैयार की थी, लेकिन इस बार समूह से जुड़कर ज़्यादा संख्या में राखियां तैयार की जा रही हैं।

कैसे तैयार की जाती हैं इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां? 

अशोक कुमार के अनुसार, एक राखी बनाने की कीमत 7 रुपये है। वहीं इसे डेकोरेट करने के लिए, जो भी सामान लगता है उसकी कीमत 6-7 रुपये है। ऐसे में एक पूरी राखी की कीमत 14 रुपये है, जिसमें 1 रुपये पैकिंग का होता है। हर दीदी को एक राखी के लिए 7 रुपये से लेकर 12 रुपये तक दिए जाते हैं। राखी के त्यौहार में बनने वाली इन कोकून की राखियों से इन्हें कुछ दिनों में काफी अच्छी कमाई हो जाती है। धीरे-धीरे इन राखियों की मांग भी बाज़ार में बढ़ रही है।

कैसे आया इको फ्रेंडली और बायोडिग्रेडेबल राखियां बनाने का आईडिया? 

इस संबंध में कोकून की राखियां बना रही रीना कुमारी बताती हैं कि उन्होंने जीविका की ओर से मिलने वाले रेशम के कीड़े की खेती की ट्रेनिंग ली थी। इससे उनकी ज़िन्दगी में काफी बदलाव भी आया है, जब उन्होंने मेले में लगने वाले स्टॉल को देखा तो कोकून की राखी बनाने का आइडिया आया जिसे उन्होंने जीविका के अशोक जी से शेयर किया और इसके बाद हमें राखी बनाने की ट्रेनिंग मिली। 

पिछले साल उन्होंने खुद से कोकून की राखियां तैयार की थीं,  जिससे उन्होंने 40 हज़ार रुपये कमाए थे। इस साल वह समूह में अन्य महिलाओं के साथ मिल कर राखियां बना रही हैं। कोकून की एक राखी बनाने में 20-25 मिनट का समय लगता है और एक दिन में वह लोग 30 से 40 राखियां तैयार करती हैं। इन राखियों की वजह से इनकी आर्थिक स्थिति में भी काफी बदलाव आया है। 

जीविका योजना ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना रही है 

मुगलिया पुरनदाहा पश्चिम गाँव की रहने वाली कल्पना देवी बताती हैं कि वह जीविका से 2014 में आर्थिक परेशानियों की वजह से जुड़ी थीं, जब मलबरी परियोजना आई तो उन्होंने इसकी ट्रेनिंग ली। कोकून से परिवार की  आय पहले से बेहतर हुई है। तीन और चार अगस्त को उन्होंने कोकून की राखियां बनाने की ट्रेनिंग ली और इसके बाद उन्होंने अब तक 2500 राखियां तैयार की हैं। उन्हें एक राखी के लिए 12 रुपये मिले हैं और इन 15 दिनों में उन्होंने 30,000 रुपये कमाए हैं। वह आगे बताती हैं कि उनके इस काम को लेकर आस-पास के लोग हमेशा प्रोत्साहित करते हैं और उन्हें अपने परिवार का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है।

जीविका समूह से जुड़ने से पहले अपनी पारिवारिक स्थिति की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि एक समय था, जब उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके पास खाने के लिए अन्न नहीं था। एक वक्त की रोटी का बड़ी मुश्किल से जुगाड़ हो पाता था, लेकिन समूह से जुड़ने के बाद आज उनके घर में जहां समृद्धि आई है, वहीं वह स्वयं को आत्मनिर्भर भी पाती हैं।

एक महिला के रूप में समाज के प्रति अपने योगदान को लेकर वह काफी उत्साहित भी हैं। उनका मानना है कि इससे जुड़ने के बाद ना केवल उनका परिवार बल्कि क्षेत्र के ऐसे कई परिवार भी हैं, जिनकी आर्थिक हालत में बहुत सुधार आया है और अब अधिक-से-अधिक महिलाएं भी इससे जुड़ना चाहती हैं। 

बहरहाल, पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए कोकून की यह राखियां बायोडिग्रेडेबल होने के साथ इको फ्रेंडली भी हैं।  इनसे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है और इसके साथ ही कोकून 5-6 सालों तक खराब भी नहीं होता है। ऐसे में इन राखियों को, जहां संजो कर रखा जा सकता है ठीक वहीं इन्हें डेकोरेटिव आइटम के तौर पर भी घर में सजाया जा सकता है। पर्यावरण अनुकूल राखी की यह मज़बूत डोरी एक तरफ भाई-बहन के रिश्ते को जहां मज़बूत बना रही है, वहीं यह कई बहनों की आर्थिक समृद्धि का कारण भी बन गई है।

नोट- यह आलेख पटना, बिहार से जूही स्मिता ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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