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“क्यों हमें अपने बच्चों में जातिवाद का ज़हर घुलने से रोकना होगा”

पिछले लगभग 4 वर्षों में हमारे समाज का शांतिपूर्ण ताना-बाना तेज़ी से अस्त-व्यस्त हुआ है। इस तथ्य से कोई भी भला मानुस इन्कार नहीं कर सकता, खासकर वो व्यक्ति जो सामाज का हितैषी हो और जो शांति और सौहार्दपूर्ण सामाजिक परिवेश चाहता हो। सामाजिक ताने-बाने के इस तरह अस्त-व्यस्त होने अथवा बिखरने के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं जो तकरीबन पूरे ही समय विशेष रूप से प्रकाशित रहे हैं। इन सब कारकों में से सबसे बड़ा कारक है जातिवादी हिंसक घटनाओं (छुटपुट अथवा बड़ी दोनों) को अंजाम देने वालों को राजनीतिक शरण आसानी से प्राप्त हो जाना।

आम लोगों का धार्मिक और सामुदायिक लगाव होने के कारण धर्म या समुदाय रक्षा के झूठे आह्वान के प्रभाव में आ जाना, घटना होने के बाद प्रतिक्रिया देने के लिए प्रभावित हो जाना, औसत बुद्धि के लोगों का चपलतापूर्ण बुद्धि के लोगों के उकसावे में आ जाना, फेक न्यूज़ के चंगुल में फंसना, ऐसी स्थिति में शासन-प्रशासन का निष्प्रभावी हो जाना और सबसे ज़रूरी कारक सही और पुष्ट जानकारी का आभाव आदि सभी कारक मिलकर सामाजिक सौहार्द, समरसता और बंधुत्व को नष्ट करने का प्रयास करते हैं।

इस तरह जातिवाद के उन्मादी ज़हर को भोले लोगों की धमनियों में झोंक दिया जाता है और इसके बाद लोगों को ना अपनी परवाह होती है और ना ही किसी और की।

दरअसल, समान रूप से इन्हीं सारे कारकों को मिलाकर धार्मिक अथवा सामुदायिक सौहार्द, सामाजिक समरसता, सद्भाव और भाईचारे को भी नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। मसले को कब धार्मिक से जातिवादी बना देना है और कब उल्टा कर देना है इसके सभी दावपेंच सफेदपोशों और धर्म के ठेकेदारों को अच्छे से पता हैं।

इसकी परिणति हम 2 अप्रैल और 10 अप्रैल के भारत बंद में देख चुके हैं। दरअसल, ये दोनों भारत बंद विशेषकर पहले बंद का बड़ा कारण एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम पर दिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करना और विशेषकर दूसरा बंद राजनीतिक तंत्र तथा शूद्र वर्ग को अपनी अहमियत बताने का तथा अपनी ताकत का भान कराने का अवसर मात्र था सिर्फ अहंकारवश।

2 अप्रैल के भारत बंद का दूसरा बड़ा कारण करीबन 4 सालों में दलित/शूद्र वर्ग के अंदर धीरे-धीरे जन्मा असंतोष है। ऐसा नहीं है कि पहले दलितों और पिछड़ों के साथ समाज में अत्याचार/शोषण नहीं होता था पहले भी होता था लेकिन, तब अत्याचार/शोषण की घटना घटने की दर बहुत कम थी।

बहरहाल, पिछले करीब 4 सालों में दलितों/पिछड़ों के साथ अत्याचार/शोषण की घटनाओं में अप्रत्याशित रूप से बहुत तेज़ी से उछाल आई है। शूद्र वर्ग के अंदर जन्मे इस असंतोष के पीछे प्रमुख कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक के अलावा धार्मिक और जातिगत भी हैं और ये सभी कारण एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हैं इसलिए इन्हें अलग नहीं किया जा सकता।

इस समय अन्तराल जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है में उत्तर और मध्य भारतीय राज्यों में (हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखण्ड और महाराष्ट्र) कालान्तर में दलितों और पिछड़ों के शोषण और उनपर अत्याचार की घटनाएं बहुतायत में घटती रही हैं। इन राज्यों में भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां अधिक घटनाएं अंजाम दी जाती हैं तो कुछ क्षेत्र शांति प्रिय भी हैं।

इस सबके अलावा दलितों/पिछड़ों के खिलाफ नेताओं तथा उनके चमचों के बेतुके बयानों की भरमार रही और आरक्षण की समीक्षा की मांगे भी उठी तथा संविधान बदलने और मनुस्मृति लागू करने के भी उलटे-सीधे बयान दिए गये तिसपर भी देश के शीर्ष नेताओं द्वारा कोई ढंग के कदम नहीं उठाये गये या फिर आनन-फानन में बहुत साधारण से कदम उठाने के बयान दिए गए लेकिन, संतोषजनक प्रतिक्रिया दलित तथा पिछड़े वर्ग को नहीं मिली। इस पूरे घटनाक्रम ने दलित/पिछड़े वर्ग में अविश्वास पैदा किया और उनके गुस्से/रोष को उबाल दिया जिसका परिणाम 2 अप्रैल के भारत बंद के रूप में हम सबके सामने आया।

जातिवाद का ये पूरा दृश्य तो संचार माध्यमों और सोशल मीडिया के ज़रिये देश के सामने घूमता ही रहा है लेकिन, ज़मीनी स्तर पर भी इसका हाल बहुत संतोषप्रद नहीं है जिसकी बानगी आप मेरे अपने शब्दों में जानेंगे।

शुरुआत में जब मैं दिल्ली आया तो मैंने 10वीं की परीक्षा दी थी और परीक्षा के नतीजे का इंतज़ार काल जारी था। उसी समय हमारी सोसाइटी से मेरे कुछ नये दोस्त बने थे। अब दोस्ती हमारे आपस के घरों तक पहुंच चुकी थी। उसी दौरान मई में परीक्षा के नतीजे भी आ गये थे तो हम सब दोस्तों में से मेरा सबसे अच्छा परिणाम आया था। ये बात सब दोस्तों के घरों में पुष्प की सुगंध की तरह फैल गयी थी, दोस्ती की इस औपचारिकता में सभी दोस्तों के घर बारी-बारी से जाना हुआ।

अब जब जाना हुआ तो वहां दुआ-सलाम के बाद बातचीत भी हुई तो इसी वार्तालाप से छूटते ही एक दोस्त की माताजी ने मुझसे पूछा, “बेटा शर्मा हो?” जबाब स्वरूप मैंने असमंजस में हां में सिर हिला दिया और चुपचाप वहां से अपने घर चला आया फिर सोच में पड़ गया कि अब किसी और दोस्त के घर फिलहाल कुछ दिन तो नहीं जाऊंगा और आगे सोचने लगा कि यदि मेरा अच्छा परिणाम आया है तो मैं जाति से शर्मा बन गया और यदि संयोग से परिणाम अच्छा ना रहा होता तो फिर मेरे लिए कौन सी जाति निर्धारित की जाती? इस प्रश्न के उत्तर को खोजते-खोजते मैं सो गया… खैर!

एक अन्य घटना अभी हाल ही में मेरे साथ घटी। हुआ क्या अभी गत मई माह में सपरिवार अपने गांव जाना हुआ तो एक दो दिन बाद मम्मी और दादी ने शहर जाकर कुछ कपड़े खरीदने का प्लान बनाया तो हम लोग यानी मम्मी-पापा, दादी, मैं और मेरा छोटा भाई कुल पांच लोग अपनी गाड़ी से जलालाबाद शहर (उत्तर प्रदेश) में कपड़ों की मार्केट में पहुंच गये। हालांकि कपड़े सिर्फ मम्मी और दादी जी को ही लेने थे तो कई दुकानों पर देखने के बावजूद उन्हें समझ नहीं आये।

मम्मी और दादी की इस दुकान-दुकान के मुआयने की प्रक्रिया को एक दुकानदार बड़े चाव से समझने का प्रयास कर रहा था। जब हम लोग उस दुकानदार के सामने वाली दुकान में जाने के लिए मुड़े तो दुकानदार भाई से रहा नहीं गया और हमें आवाज़ लगा दी कि यहां हमारी दुकान में आइये माताजी, बहनजी यहां भी एक नज़र डाल लीजिये। अभी कल ही कपड़ों का नया स्टॉक मंगाया है ऊपर जाकर नये स्टॉक में से फाइनल कर लीजिये तो मम्मी और दादीजी दोनों लोग ऊपर कपड़े देखने चले गये।

मैं और पापा दो लोग नीचे बैठकर अखबार बांचने लगे तभी दुकान वाले भाईसाहब बोले, “भाई साहेब आप यहां नहीं रहते हैं ऐसा लगता है।” पापा ने जबाब में कहा हाँ! हमलोग दिल्ली में रहते हैं। दुकानदार ने फिर दूसरा सवाल दागा, “क्या काम करते हैं, मतलब किस डिपार्टमेंट से हैं?” पापा ने फिर जबाब दिया कि एजुकेशन डिपार्टमेंट से हूं, अध्यापक हूं।

इस वार्तालाप के बीच मैं ये सोच रहा था कि उसका अगला प्रश्न क्या होगा लेकिन भाईसाहब ने अपने दिमाग में एक तगड़ी कैलकुलेशन की और कहा, “अच्छा आप यादव हो।” ये सुनकर मैं और पापा मन ही मन ये कैलकुलेट कर रहे थे कि इस बंदे ने ये नतीजा कैसे निकाला? तभी पापा ने उस प्रतीक्षारत देवतत्व को सिर हिलाकर हां में जबाब दिया क्योंकि मैं और पापा दोनों ही इस बार ठीक जबाब देकर उसका स्वाद बिगाड़ना नहीं चाहते थे लेकिन, हमारा स्वाद अंदर ही अंदर पूरी तरह से बिगड़ चुका था। भईया मम्मी और दादीजी ने कपड़े उस दुकान से भी नहीं खरीदे बल्कि उसकी दुकान के ठीक सामने वाली दुकान में अच्छा-खासा वक्त लगाकर कपड़े खरीदे गये। खैर, मलाल इस बात का रहा कि हम इस खरीदारी में बेमन से एक बेस्वाद अपितु कड़वी याद भी मुफ्त में घर ले जा रहे थे।

एक अन्य वाकया ये है कि इसी बार जब गांव गये थे तो अपने मौहल्ले के एक भैया से मिला जिनकी अभी हाल में ही प्राइमरी स्कूल में सरकारी नौकरी लगी है तो मैंने उनसे पूछा कि आपकी नौकरी कैसी चल रही है? स्कूल में विद्यार्थी अच्छे से पढ़ते हैं और आपको उन्हें पढ़ाने में मज़ा आ रहा है कि नहीं? आप अपने काम से खुश हो या नहीं? मेरे इन प्रश्नों को सुनते ही उनके चेहरे पर मुस्कान की जगह मायूसी ने ले ली, जब मैंने इसकी वजह पूछी तो वे बोले, “यार छोड़ो… सब ठीक ही चल रहा है। लेकिन, मेरे बहुत आग्रह करने पर उन्होंने कहा, “बोले यार स्कूल में विद्यार्थी मेरे बारे में बोलते हैं कि हमारे गुरूजी तो चमार हैं।” इतना बताते ही उनका गला रुंध गया फिर मैंने ही बातचीत का विषय बदल दिया ताकि माहौल थोड़ा खुशनुमा हो जाये।

इतना सबकुछ जानने के बाद आप लोग समझ गये होंगे कि समस्या उतनी भी छोटी नहीं है जितनी बताई जाती है। क्या हमारे समाज के लिए जाति ही सबकुछ है? आज इक्कीसवीं सदी में आकर क्या अब भी हमें जाति को ही अपनी पहचान बनाना चाहिए? क्या हमें इस बात से खौफ नहीं खाना चाहिए कि हमारे बच्चे क्या सीख रहे हैं? उनके ज़हन में ये जाति का ज़हर क्यों और कैसे पनप रहा है? अरे, प्राइमरी स्कूल के विद्यार्थियों की उम्र ही क्या होती है, अगर नई पीढ़ी ही जाति को इतनी अहमियत देगी तो वह वयस्क होकर भविष्य में कैसे समाज का हिस्सा बनेगी, ये सोच कर ही डर लगता है। यदि इस बारे में विचार नहीं किया गया या इस महत्वपूर्ण विषय को हल्के में लिया गया तो भविष्य में हमारे समाज में लोगों में भयंकर द्वन्द होगा और जातिवाद का ये ज़हर हमारे समाज को सबसे हल्का बना देगा।

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