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“पुस्तकालय वह स्थान है, जो हमारे सर्वांगीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है”

"पुस्तकालय वह स्थान है, जो हमारे सर्वांगीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है"

नई पीढ़ी में नाकाफी होती पढ़ने की आदत आज हरेक के विचार-विमर्श का अहम मुद्दा है। अभिभावक इस आदत को बच्चों की वर्चुअल दुनिया की ओर अधिक झुकाव के रूप में देख रहे हैं, तो तमाम शिक्षाविद् इसे नई पीढ़ी में किताबों के प्रति पैदा हो रही अरुचि के रूप में देख रहे हैं। 

कुछ समय तक चिंतन की यह प्रक्रिया एक रुख थी, लेकिन अचानक से आए वायरस ने इस प्रक्रिया में अनेकों नए पहलुओं को जोड़ दिया है पर एक सवाल जो आज भी वहीं खड़ा है, वह यह है कि भला बच्चों में पढ़ने-लिखने की दिलचस्पी कैसे पैदा की जाए? कैसे बच्चों को किताबों की ओर प्रोत्साहित किया जाए?

घर में किताबें ना हों और हो भी, तो वह केवल बदलते समय और धूल की साक्षी बन रही हों। ऐसे में बच्चों के माता-पिता का किताबों से कोई नाता ना हो। बच्चों के हाथों में केवल साल भर कोर्स की चुनिंदा किताबों को थमाया जाए और स्पष्ट शब्दों में एलान कर दिया जाए कि यही तुम्हारा दायरा है। अगर साल भर रटने के बाद भी इस दबावपूर्ण ढांचे में, यदि कोई व्यक्ति फिट नहीं बैठ पाता है तो फिर इस मुद्दे को इस तरह बढ़ाया जाता है जैसे यही ज़िंदगी-मौत का सवाल हो।

यहीं से हमारे भविष्य की उपलब्धियों और नाकामयाबियों का हिसाब भी लगा लिया जाता है। इसके बावजूद भी अगर कभी मौलिकता दिखाने की कोशिश की जाए तो हमारी सीमाओं का बोध शिक्षकगण द्वारा करा दिया जाता है।

चिंताजनक विषय लगता है ना यह! जी हां, यह विषय विचारणीय और अगर आपकी कल्पनाओं में कल सुनहरा है या आप एक समानता वाले कल की आश लगाए बैठे हैं, फिर तो बिल्कुल इस चिंता की छुअन आपके मस्तिष्क में होनी चाहिए। चिंता केवल चिंता के तौर पर ना ली जाए बल्कि इससे उस राह को तलाशा जाए, जो इन चिंताओं पर विराम लगा सकती हो।

आप इस बात को सुनकर असमंजस में अवश्य पड़ सकते हैं कि एक अकेला क्या कर सकता है, क्योंकि यह तो हमारे देश के पूरे एजुकेशन सिस्टम की ही नाकामयाबी है पर यह भी तो सच है कि शुरुआत करने के लिए एक अकेला व्यक्ति ही काफी होता है और क्योंकि सीखना-सिखाना एक सामाजिक कार्य है, तो अवश्य ही आपको व्यापक परिदृश्य में इसके फायदे नज़र आएंगे और हां, आपको बता दूं खोजने से ज़्यादा संतुष्टि देने वाला शायद ही कोई और काम हो, क्योंकि खोजना वास्तव में मानवीय भावना का सार है।

हमारे देश का एजुकेशन सिस्टम सीखने की प्रक्रिया का पूरक होने के बजाय, सीखने की राह पर खाई का काम कर रहा है। अनिश्चितता तो पहले से ही थी, पर इस प्रक्रिया को एक अदृश्य से जीव ने और भी ज़्यादा अनिश्चित कर दिया है और उम्मीद है, आने वाले समय में सीखने को नए सिरे से परिभाषित किया जाएगा। इसी क्रम में उम्मीद की लौ बन प्रकट हुए हैं देवलथल, रामनगर और नानकमत्ता के तमाम विद्यार्थी और उनके मार्गदर्शक। कोरोना काल में ही नहीं बल्कि इस अंधकारमय माहौल को उजागर करने का यह अभियान तो बहुत पहले ही शुरू हो गया था।

वह अभियान जो प्रेरणा है, अनुभवों का खजाना है, गतिविधियों का ठिकाना है, अनेकों की उम्मीदों को पिरोए है और नन्हीं कल्पनाओं को जगह देने का माध्यम भी है, यह है “सामुदायिक पुस्तकालय अभियान”। इस अभियान की राह पिथौरागढ़ के शिक्षक साहित्यकार महेश पुनेठा जी ने दिखाई। उनके सन्निध्य से उनके छात्रों ने पिथौरागढ़ के देवलथल में पुस्तकालय स्थापित किए। समाज की सीखने की संकुचित परिभाषा ने उन पुस्तकालयों को भी केवल समय की बरबादी का एक जरिया समझा, लेकिन देवलथल के साथियों के बुलंद हौंसले और निरंतर कोशिश आज अनेकों पुस्तकालय की नींव की प्रेरणा बन रही है।

महेश जी, वहीं शख्स हैं, जिन्होंने दीवार पत्रिका की नींव रख पहले ही बच्चों में लिखने-पढ़ने की जिज्ञासा को उत्पन्न कर दिया था। वह कहते हैं लिखना और पढ़ना दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। पढ़ना आपको लिखने के लिए प्रेरित करता है और लिखना और पढ़ने के लिए। देवलथल के इन साथियों की यह मुहिम सिर्फ पिथौरागढ़ में ही नहीं बल्कि प्रांत के कई हिस्सों के लिए मील का पत्थर साबित हुई है।

लॉकडाउन में हो रहे डिजिटल दुनिया पर ही केंद्रित सारे बदलाव भी विचारणीय थे, जिसने बच्चों को इस असंवेदनशील प्लेटफॉर्म पर इस तरह से झोंका कि वह अपनी जड़ों से ही दूर हो रहे थे। डिजिटल प्लेटफॉर्म में गुंजाइश भले ही बहुत हो पर वह प्रत्यक्ष रूप से मिलने-जुलने कि जगह नहीं ले सकता।

इसी बारीकी का ख्याल कर रचनात्मक शिक्षक मंडल व रामनगर के वरिष्ठ अध्यापक नवेंदु मठपाल जी के नेतृत्व में पुस्तकालय खोले गए। वर्तमान में, उनके द्वारा तकरीबन 20 से अधिक सामुदायिक पुस्तकालय की नींव रखी जा चुकी है। सबसे  प्रशंसनीय बात यह है कि इन पुस्तकालयों का संचालन स्कूली छात्र-छात्रा ही कर रहे हैं और अनेकों गतिविधियां कर अपने साथियों का रुझान किताबों की ओर लाने के प्रयास में रत हैं।

अभियान की इस हवा ने ऊधम सिंह नगर के नानकमत्ता में स्थित नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के साथियों को भी प्रभावित किया। स्कूल के बच्चों ने विद्यालय प्रशासन के सान्निध्य से अलग-अलग गाँव में खाली मैदानों, सरकारी स्कूलों और कई जगह पर तो अपने घरों को भी लाइब्रेरी सेंटर बनाकर उजागर किया। सूखे पड़े पेड़ ने अपनी जड़ों की गहराइयों का एहसास कराया और इसकी शाखाओं में एक-के-बाद-एक पत्ते उगते गए। एक-एक करके इसी तरह 17 लाइब्रेरी खुल गईं नानकमत्ता में भी और अभी भी यह क्रम जारी है। इस पर मार्गदर्शक कमलेश जोशी जी कहते हैं यह कारवां बेहतरीन चल रहा है। यूं ही पढ़ने-पढ़ाने की ललक पैदा होती रहे क्षेत्र में।

वह कहते हैं ना कि हम अकेले ही चले थे जानिब-ए-मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। इसी कड़ी में रामनगर का शाइनिंग स्टार्स स्कूल भी इस अभियान से प्रभावित होकर इस कारवां से जुड़ चुका है और वहां के साथी अपनी पहली लाइब्रेरी खोल चुके हैं।

किसी ने कहा है कि पुस्तकालय ऊर्जा को संग्रहित करते हैं, जो कल्पना का ईंधन है। वे दुनिया के लिए खिड़कियां खोलते हैं, हमें पता लगाने और हासिल करने के लिए प्रेरित करते हैं और हमारे जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में अपना योगदान देते हैं। वास्तव में, ये पुस्तकालय केवल पुस्तकालय नहीं हैं। एक तरीके के वैल्यू एडिशन हैं, जो हमारी उन स्किल्स को विकसित कर रहे हैं, जिसकी उम्मीद शायद ही किसी ने की होगी।

आलोचनात्मक विवेक, अनुकूलन क्षमता, समस्या समाधान, सामाजिक बोध, नेतृत्व क्षमता और रचनात्मकता जैसी स्किल्स विकसित कर रहे हैं ये गतिविधि सेंटर। इस अभियान के कारण अनेकों साझेदारियां भी हो रही हैं। इसके साथ ही स्टूडेंट्स की समूह में काम करने की स्किल भी विकसित हो रही हैं। यह स्किल्स केवल स्किल्स नहीं हैं बल्कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित की गई इक्कसवीं सदी के कौशल हैं। यह वहीं स्किल्स हैं, जिन्हें विकसित करने के लिए लोग अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं और यह नन्हें साथी तो जानते भी नहीं कि ये कितना बड़ा काम कर रहे हैं!

पुस्तकालय अभियान को निरंतर विद्वानजनों का सहयोग मिल रहा है। देवन मेवाड़ी जी, अनुराग शर्मा जी, संजय जोशी जी और शंकर बसेड़ा जी ने तो लाइब्रेरी में अपनी ओर से किताबें देकर इस अभियान को अपना अमूल्य योगदान भी दिया है। लाइब्रेरी के बच्चों से मिल शंकर बसेड़ा जी अपनी एक फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं कि “यह वाकई में बहुत ही सुखद और प्रेरणादायक अनुभव रहा कि छोटे-छोटे बच्चे गाँव, घरों में, मोहल्लों में लाइब्रेरी का संचालन कर रहें है।”

सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में यह मेरे जीवन का अब तक का अद्भुत अनुभव रहा है। इस अभियान की व्यापकता का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि गुज़ारिश बुक्स फॉर आल नामक एन.जी.ओ ने नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के छात्रों द्वारा चलाई जा रही लाइब्रेरी को अपना ब्रांड एम्बेसडर चयनित किया है। गुज़ारिश समय-समय पर सस्ते दामों पर नानकमत्ता के पुस्तकालयों को किताबें उपलब्ध कराता रहा है।

वह कहते हैं ना कि भविष्य उन लोगों का है, जो अपने सपनों की सुंदरता में विश्वास करते हैं। सभी साथियों का यह जज़्बा और निस्वार्थ मेहनत सच में एक बेहतरीन कल का संकेत देती है, जिस तरह अनेकों प्रसिद्ध व्यक्तित्व और स्कूली साथी अपने सपनों को आकार देने में लगे हुए हैं, उनकी यह मेहनत एक दिन अवश्य ही साकार होगी। यूं ही, यह कारवां चलता रहेगा और अनेकों प्रतिभाएं इस कारवां से जुड़ती रहेंगी, बस यही आशा है कल से। 

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