हम कितने दूर चले थे
उन गलियों से, उन बगीचों से
यह सोच कर कि अब फिर
वापस नहीं लौटेंगे
आखिरकार लौटने को रखा ही क्या है?
अगर लौटना भी हुआ तो
सिर्फ चिट्ठियां लौटेंगी
क्योंकि कुछ सपनों को
हकीकत में बदलना है
पर एक वक्त ऐसा आया
जब मन किया अब बस, हम लौट चलें
क्योंकि अब शहरी पाखंड
इन ओझल होती नज़रों को भी
साफ-साफ दिखाई पड़ने लगे थे
इस शहर को हमने क्या नहीं दिया
अपनी मेहनत, अपनी ईमानदारी
पर मालूम नहीं था पलभर में यहां
हम चोर और गैर कहलाए जाएंगे
जिसके बाशिंदे हमसे यूं मुख मोड़ लेंगे
जैसे किसी शानदार फसल की बुवाई पर
दलाल ने उसका यथार्थ मूल्य ले लिया हो
हम फसल की तरह ही तो हैं
जहां बोओगे, वहीं पैदा करेंगे
फिर चाहे हमसे आसमान में
इमारतें बनवा लो
या फिर जमीं पर
गड्ढे खुदवा लो
हम कितने दूर चले थे
उन गलियों से, उन बगीचों से
यह सोच कर कि अब फिर,
वापस नहीं लौटेंगे
आखिर अंतिम क्षण में
हमने जाना जिन गलियों को हमने
छोड़ा वही हमारी मंजिल बन जाएंगी।