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कविता : मैं कल फिर आऊंगी

कविता : मैं कल फिर आऊंगी

शुरुआत लड़ाई की शाम को है
तैयारी में हूं बस अभी काम जो है
दुश्मन सभी हैं, मैं अकेली हूं
विकल्प नहीं हैं फैसला यही ले लेती हूं

लड़ना है शाम को हज़ारों लोगों से
कैसे लड़ूं? गालियों से, हाथों से या हथियारों से
लड़ाई समाज में है कोई बॉर्डर पर नहीं
समाज ही से है, किसी विदेशी ताकत से नहीं

तीस साल की हो गई अब समझी जेल में हूं
समाज के लोग पिंजरे के स्तंभ हैं और मैं अभी भी अंदर हूं
कैसे जाऊं? समाज के रास्तों में मेरे लिए तीखे पत्थर बिछे हैं
और नाली वाले रास्ते के शराबी तो उससे भी बदत्तर हैं

कब तक ढोउंगी समाज को वह गालियों से भी भारी है
खुशी भी नकली है, घर तो वही वाली नाली है
सामाजिक धागों से बंधे रहकर शरीर में निशान गहरे हो गए
समाज के नियमों के सामने कैसे सरकारी नियम तबाह हो गए

यहां तो नहाने के लिए भी पानी समाज देता है
बालों का तेल समाज का, काजल, कपड़े भी समाज देता है
कैसे बनूं, सावित्रीबाई फुले, कल्पना, इंदिरा,
उनको पढ़ने का समय तो समाज कहां देता है?
मेरा पुतला तो मुफ्त के पन्नों जैसा है
कोई भी आता है, कुछ भी लिख देता है

अब शाम हो चुकी है, समय भी लड़ने का है
शायद अब वक्त आ गया है समाज से आगे बढ़ने का
समाज की परिभाषा नहीं जानती, समाज का चेहरा नहीं पहचानती
शुरुआत किससे करूं? घर और समाज में तो अंतर ही नहीं मानती

समाज के बीच से ही शुरू करती हूं लड़ना
धीरे-धीरे लोगों से भी शुरू कर दिया भिड़ना
बातों से लड़ूं, शरीर से या हथियार से
चलो शुरुआत करती हूं बातों के ही वार से

मैं नाकाम रही बातों के वार से
ना पढ़ा है, ना लिखा है
अब शब्द कहां से लाऊं समाज का ज्ञान
सारा ज्ञान तो समाज के शब्दों से ही भरा है

अब लड़ती हूं हथियारों से
हथियार के रूप में पत्थर रखे हैं सामने
पत्थर उठाया तो वही तीखे पत्थर चुभ गए हाथ में
याद आया, समाज ने ही इन्हें बनाया है अपने हिसाब से

अब शरीर से ही लड़ना पड़ेगा अब कोई विकल्प नहीं बचा
लड़ रही थी, लेकिन यह भी नाकाम हो गया
सुबह समाज के पानी से नहाकर आयी थी
तभी शरीर भी लड़ते समय सिकुड़ गया

समाज के दिए कपडे पहने थे
तभी वह धोती बार-बार पैरों में बंध रही थी
काजल भी समाज का था
दुश्मन को भी अच्छे से नहीं देख पाई
तेल भी समाज का था
सिर दर्द कर गया

मैं कब निकलूंगी इस जेल से
कब यहां से बहार जाऊंगी
आज नाकाम रही
कल फिर आऊंगी।

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