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“मुस्लिम महिलाओं की आज़ादी इस्लाम के निराधार कानूनों में जकड़ी हुई है”

"मुस्लिम महिलाओं की आज़ादी इस्लाम के निराधर कानूनों में जकड़ी हुई है"

हमारा संपूर्ण विश्व दो भागों में बंटा हुआ है, एक है नारीवादी विचारधारा को मानना वाला भागा और दूसरा भाग हमारे समाज की पितृसत्तात्मक विरासत। आज भी पूरे विश्व में रूढ़िवादी विचारधारा को मानने वालों के लिए महिलाएं दोयम दर्ज़े पर विराजमान हैं।

महिलाओं को पुरुषों के समांतर लाकर खड़ा करने के लिए हमारे समाज का बुनियादी ढांचा अत्यंत कमज़ोर है। वर्तमान में महिलाओं की चिंताजनक और दयनीय स्थिति के लिए हमारा समाज पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार है। हमारे समाज में महिला और पुरुष में समानता का आयाम और इससे जुडी हुई बातें ज़मीनी स्तर पर हास्यास्पद प्रतीत होती हैं। 

वहीं हमारे समाज में, धर्मों के ठेकेदारों ने समानता के बीज को मिट्टी में कहीं ऐसी जगह दबा दिया है, जहां से समानता का उपजना एक प्रकार से नामुमकिन सा हो गया है। विश्व में महिलाओं के लिए सबसे कट्टर नियम-कानूनों के लिए मुस्लिम समुदाय को प्रतीक माना जाता है, जहां तीन तलाक से लेकर शरिया कानून का सहारा लेकर महिलाओं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का चलन कोई नया नहीं हैं।

पूरे विश्व में इस्लाम धर्म महिलाओं के अधिकारों का कट्टर विरोधी माना जाता है

इस्लाम धर्म में महिलाओं से जुड़े हुए अधिकारों का मुद्दा मुस्लिम समाज और बाकी देशों में, अर्थात दोनों के बीच चर्चा और गहन बहस का एक विवादास्पद क्षेत्र रहा है। इस समुदाय की मुख्यधारा के दो प्रमुख आख्यानों ने मुस्लिम महिलाओं को अलग-अलग तरीकों से पीड़ित किया है। एक तरफ, कई मुस्लिम और मुस्लिम सरकारें महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को सही ठहराने और महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता पर सामाजिक और कानूनी प्रतिबंध लगाने के लिए इस्लामी पाठ को उपयुक्त बनाती हैं। 

दूसरी ओर जहां मुस्लिम महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए इस्लामिक तौर पर जानकारी है। वे पुरानी और रूढ़िवादी विचारधारा का पूरी तरह से खंडन करती हैं। इस्लाम में साफ तौर पर निहित है कि “इस्लाम महिलाओं का सम्मान करता है और उनकी रक्षा करता है और उन्हें उनके पूर्ण अधिकार एवं स्वतंत्रता प्रदान करता है।” इस विषय को समझाने में नारीवादी समाज को कई दशक लग चुके हैं मगर अंदरूनी कानून की वजह से यह महज़ एक धोखा ही साबित हुआ है।

इस बीच, मध्य पूर्व में महिलाओं के अधिकारों और स्वतंत्रता पर चर्चा करने के किसी भी प्रयास को पश्चिमी वर्चस्ववादी की सोच करार दिया जाता है, जो इस्लामी नैतिक ताने-बाने और परंपराओं की पवित्रता को भ्रष्ट करते हैं। ऐसा बोला जाता है कि ये अंग्रेज़ों और ईसाईयों के हथकंडे हैं, जो हमारे समुदाय की महिलाओं को बहकाने का कार्य कर रहे हैं।

इस्लामी विद्वानों के अनुसार, कुरान में महिलाओं की महत्ता

जैसा कि कई इस्लामी विद्वान बताते हैं कि कुरान स्पष्ट रूप से सभी मनुष्यों के बीच समानता के सिद्धांत को स्थापित करता है। कुरान (कुरान 49:13 और अन्य आयतों के साथ) में निहित है ईश्वर ने मनुष्यों को नर और मादा से बनाया और मनुष्यों के बीच अनुभवजन्य मतभेदों (जाति, लिंग, आदि के आधार पर) के बावजूद कुरान उनका सम्मान करता है और समानता के साथ महिला और पुरुष को बराबर मानता है।

तीन तलाक की पीड़िता अफसरी बानो, जो दूसरों के घरों में काम कर के अपने तीन बच्चों का और अपना पेट पाल रही हैं, वो बताती हैं कि 2016 में मेरे पति ने शराब के नशे में मुझे तलाक दे दिया था। मेरे लाख मना करने के बावजूद उसने मुझे तीन बार तलाक बोल दिया। मैंने कहा इस्लाम में गुस्सा करना हराम बताया गया है और गुस्से में कही हुई बातों का कोई मतलब नहीं होता है। इस पर उसने मुझे बहुत पीटा और कहा तू मुसलमान भी नहीं है तू मुर्तिद (धर्म से निष्काषित) हो गई है।

कुरान में तीन तलाक का ज़िक्र लेकर, मैं मस्जिद में गई और मौलाना साहब से पूछा कि तीन तलाक का  कानून मुझे आप कुरान में दिखाइए। इस बात से ,वो भी मेरे ऊपर भड़क गए और मुझे डांट कर वहां से भगा दिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इस्लाम का शरा (नियम) समुंदर से ज़्यादा गहरा है। उनके पास भी इस बात का कोई सही और उचित जवाब नहीं था, जब हमारी पवित्र धार्मिक पुस्तक इस बात की कोई जानकारी नहीं देती ,तो मैं इस तलाक को क्यों मानूं? मैंने अदालत का रुख किया और यही हवाला देकर अपने पति का सामना किया। मैं ज़ल्दी ही केस जीत जाऊंगी।

मुस्लिम समुदाय में, जितने भी कानून महिलाओं के लिए बनाए गए हैं। वे सभी कानून मानव निर्मित ही कहलाएंगे, क्योंकि इस्लाम धर्म की किसी भी किताब में यह नहीं पाया गया है कि महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव किया जाए। इसका ताज़ा उदाहरण तीन तलाक और अब अफगनिस्तान में शरिया कानून है, जिसका इस्लाम से कुछ भी लेना- देना नहीं है।

यह सिर्फ हमारे मर्दवाद समाज की संकीर्ण एवं घृणित मानसिकता की उपज है। मुस्लिम समाज ने पर्दा प्रथा को आधार बना कर मुसलमान महिलाओं की जो दुर्गति की है, उसकी दूर-दूर तक कोई तुलना नहीं। पर्दा प्रथा का भी ज़िक्र कुरान में सिर्फ इतना है कि वो केवल महिलाओं को सिर्फ अपने बालों को ढंकने की इजाज़त देता है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप महिलाओं को और उनकी प्रतिभाओं को इस तरह कुचल दें कि वो दोबारा उठ खड़ी होने लायक ही ना रहें।

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