Site icon Youth Ki Awaaz

“समलैंगिक समुदाय के अधिकांश पेरेन्ट्स समझ ही नहीं पाते हैं कि उनके बच्चे चाहते क्या हैं”

एक समलैंगिक युवा और उसके जीवन संघर्ष की वास्तविकता

लोकतांत्रिक देश पूरे विश्व में मशहूर होते हैं। जहां यह बात आम होती है कि देश में नागरिकों को सर्वोच्च मान दिया जाता है। नागरिकों के मान-सम्मान को प्राथमिकता दी जाती है। नागरिकों को शुरुआत से ही समानता, संप्रभुता, न्याय आदि का पाठ पढ़ाया जाता है। 

यह हर देश की कहानी है। यहां हम इसके परिप्रेक्ष्य में अपने देश भारत को देख लेते हैं और इसकी ज़मीनी हकीकत को जान लेते हैं। यहां कागज़ों में आपको समानता, संप्रभुता, सहानुभूति आदि सब देखने को मिल जाएगी। वहीं जब आप ज़मीनी स्तर पर आएंगे, तो ये सारी अवधारणाएं आपको यहां नदारद मिलेंगी। इस देश के नागरिक समानता और इंसानियत को ताक पर रख कर अपने स्वार्थ की भूख मिटाने के लिए आगे की ओर चल पड़ते हैं।

आमतौर पर एक साधारण बच्चे का जीवन उसके परिवार से शुरू हो कर किसी-ना-किसी संस्था में जाकर रुक जाता है। इसी दौरान वो, अपने खट्टे-मीठे पलों को जीते हुए आगे बढ़ जाते हैं। कभी कोई डॉक्टर बन जाता है, कहीं इंजीनियर, कहीं टीचर तो कहीं-कहीं कोई बिज़नेस पर्सन। कहीं-ना-कहीं बच्चों के अंदर एक प्रकार का आत्मविश्वास होता है। उनको लगता है कि वो भी समाज का एक हिस्सा हैं और कोई-ना-कोई उनकी पीठ को थपथपाने के लिए और सहारा बन कर खड़ा हुआ है।

अब अगर हम बात करें समलैगिंक समुदाय के बच्चों की तो पहली बात तो यह होती है कि माता-पिता यह समझ ही नहीं पाते हैं कि आखिर बच्चे को क्या चाहिए? उनका बच्चा कहीं-ना-कहीं कुछ और सोचता है। उसकी प्राथमिकताएं और बच्चों की तरह नहीं होती हैं। ज़्यादातर पेरेंट्स को यह बात पता ही नहीं होती और अगर उनमें से किसी को पता लग भी जाए तो पेरेंट्स उस बात की भनक किसी को लगने नहीं देते हैं। उसके बाद बच्चे को लेकर मनोचिकित्सक के यहां चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं।

यहां से शुरू होता है समलैंगिक/ LGBTQAI समुदाय के बच्चों का शोषण। उनको इस तरह के मानसिक और शारीरिक शोषण के तूफानों को झेलना पड़ता है कि उनके जीवन में आने वाले तरह-तरह के अवसरों पर विराम लग जाता है।

जब बच्चा मानसिक तनाव से गुज़र रहा होता है, तो ऐसे समय में उसके मन में कुंठा पैदा हो जाती है। वो डरने लगता है। स्कूली शिक्षा के दौरान तो सहपाठियों के ताने, ऐसे बच्चों को उनके अच्छे भविष्य से दूर रखने में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं। ऐसे में जब LGBTQAI समुदाय का कोई बच्चा अपनी स्कूलिंग पूरी करता है तो वो पूरी तरह निचुड़ कर, अपने आत्मविश्वास को अपने अवसर की प्रतियोगिता को सहपाठियों और टीचर्स के तानों के तहत कुचल कर निकलता है। उसको यह नहीं पता होता है कि मैं एक ऐसे रास्ते पर निकल तो चुका हूं, मगर इसकी मंज़िल कहां है? यह नहीं पता। यहीं से शुरू होती है उसके स्वयं के अस्तित्व और समाज की जंग।

समलैंगिक समुदाय का कोई भी बच्चा स्वयं का क्षीण आत्मविश्वास, कमज़ोर व्यक्तित्व और समाज का डर लिए  बारहवीं कक्षा पूरी कर के स्कूल से निकल कर कॉलेज या किसी जॉब की राह पकड़ता है तो यहां तक आने-आने में ही वो इतना कमज़ोर पड़ चुका होता है कि उसका भविष्य, कैरियर, पढ़ाई, जॉब, सब दांव पर लग जाते हैं।

बचपन से अस्वस्थ वातावरण मिलने के कारण LGBTQAI के युवाओं का भविष्य अधर में पड़ जाता है। ऐसे युवा अपनी सोच को इतना संकुचित कर लेते हैं कि वे कहीं भी अपने आप को मज़बूत नहीं पाते हैं और ऐसे में उनका जीवन कठिनाइयों से भर जाता है। ऐसे में इसका सीधा श्रेय जाता है हमारे समाज को, जो हमारा मुंहबोला दुश्मन बन जाता है।

हमारा समाज समलैंगिक समुदाय को समाज का एक हिस्सा मानने से ही इंकार करने लगता है। ऐसे में ना तो उनको अच्छा पारिवारिक वातावरण मिलता है और ना विद्यालय में सहयोग और आखिर में उनके पास ऐसा कुछ मौजूद नहीं होता, जिसको वो अपने सहारे की लाठी बना सकें। समाज इस समुदाय को इतना कुचल देता है, उसे छिन्न-भिन्न कर देता है कि खुद के पैरों पर खड़े होना या परवाज़ करना इस समुदाय के नागरिकों के लिए पूर्ण रूप से नामुमकिन हो जाता है।

समलैंगिक समुदाय के लिए, ऐसे माहौल में जीना शायद नारकीय जीवन ही कहलाता है। ऐसे में समाज को ही आगे आना होगा और ऐसे समुदाय के लोगों का मनोबल बढ़ाना होगा। कई संस्थाए हैं, जो समलैगिंक समुदाय के लिए कार्य कर रही हैं, जिनमें  केशव सूरी फॉउंडेशन दिल्ली और प्राइड सर्किल बेंगलुरु हैं, जिन्होंने फिलहाल अपना काम शुरू किया है। ये संस्थाएं समलैंगिक समुदाय को समाज के साथ मिलाने का काम और उनकी आजीविका के लिए कई कंपनियां मुहैया करवाती हैं। फिलहाल अभी इनके पास टेक्नोलॉजी और विज्ञान के क्षेत्रों में काम कर रही कंपनियों के अधिकार हैं और धीरे-धीरे ये लोग कला के क्षेत्र में भी आगे बढ़ रहे हैं।

समाज को ऐसी संस्थाओं की बहुत ज़रूरत है, जिनमें समलैंगिक समुदाय को समाज के साथ में लेकर चलने की ताकत हो। एक ऐसी ताकत, जो समाज में समानता ला सके और समलैंगिक समुदाय के नागरिकों के जीवन को कठिन बनाने के बजाय, उन लोगों के लिए जीवन आसान कर दे, जो पहले से ही समाज द्वारा नकारे जा चुके हैं।

Exit mobile version