Site icon Youth Ki Awaaz

यात्रा संस्मरण : मैं तो अपने पहाड़ों की ओर चली रे

यात्रा संस्मरण : मैं तो अपने पहाड़ों की ओर चली रे

घर के बाहर अभी भी अंधेरा छाया हुआ है, लेकिन आज यह अंधेरा प्रकाश से डर नहीं रहा बल्कि बड़ी बेसब्री से सूरज के उगने का इंतज़ार कर रहा है शायद वह भी जानता है कि आज का दिन मेरे लिए कितना खास है। 5 साल बाद आज मैं अपने गाँव जा रही थी।

मेरे मन में ऐसा उत्साह था, मानो एक नन्हा बच्चा अपनी माँ से मिलने जा रहा हो। आज सुबह के 4:00 बज रहे हैं। हम सभी सूरज का सूरजमुखी की तरह ई-रिक्शे का इंतज़ार कर रहे हैं। एक रिक्शावाला मेरी थोड़ी जान-पहचान का होने के कारण ही इतनी सुबह आने को तैयार हुआ। उसने लगभग 4:30 बजे के आसपा हमें नानकमत्ता चौराहे पर उतारा।

कोहरे में बस का इंतज़ार करने का मज़ा कुछ अलग ही है। मेरे गाँव के लिए दो रास्ते हैं, एक चंपावत से होकर और एक हल्द्वानी से। हमने हल्द्वानी से जाने का फैसला किया, क्योंकि यहां से हमें गाँव जाने के लिए सिर्फ दो गाड़ियां ही बदलनी पड़ती हैं। 5-10 मिनट बाद हमने हल्द्वानी के लिए बस पकड़ी। हमारे मम्मा ने मेरे चाचा और चाची को फोन कर के बताया कि हमें बस मिल गई है।

वह भी सुबह 2:00 बजे दिल्ली से हल्द्वानी पहुंच चुके थे और मच्छरों के साथ गाने गाकर टाइम पास कर रहे थे। अब धीरे-धीरे अंधेरा छटने लगा था, लेकिन यह क्या? आज लोगों से ज़्यादा सड़कों पर पुलिस नज़र आ रही थी! मेरे भाई ने घबराते हुए मम्मा से पूछा कि यहां इतनी पुलिस क्यों है? मेरी ठिठोली करने की आदत तो बचपन से है, मैं धप्प से बोल पड़ी कि पुलिस तुम्हें ढूंढ रही है, तुमने मेरा बिस्किट जो चुराया था। यह सुनकर बस में बैठे, सभी लोग हंसने लगे फिर मम्मा ने हमें बताया कि यहाँ पुलिस अयोध्या-बाबरी के निर्णय के चलते हैं।

कल गुरु पर्व भी है। इसलिए बाज़ार दुल्हन की तरह सजाए जा रहे हैं। ऐसे ही हंसते-हंसाते, गाते-गुनगुनाते 8:00 बजे हम हल्द्वानी पहुंचे। चाचा और चाची से भी मैं एक लंबे समय के बाद मिली। मैं और मेरा भाई उनसे ऐसे चिपक गए जैसे चुंबक से लोहा। हमारे पास ही खड़े एक बुजुर्ग और 3 लड़कियां हमें एलियंस की तरह घूरने लगीं। उनमें से एक लड़की बोली ऐसा लग रहा है कि आप लोग कुंभ के मेले में बिछड़ने के बाद मिल रहे हो। हम सभी इस बात पर जोर-जोर से हंसने लगे।

तभी जिस गाड़ी में हमें जाना था, वह भी आ गई। इस गाड़ी की सबसे खास बात है इसके ड्राइवर। ड्राइवर साहब भी हमारे ही गाँव के हैं। वह रिश्ते में तो हमारे भाई लगते हैं लेकिन नाम है गोधन, सुना ही होगा! नहीं सुना तो मेरी कोई गलती नहीं। गोधन भाई को हमारे गाँव का कपिल शर्मा कहा जाता है। मेरी तो यही इच्छा रहती है कि जब भी पहाड़ आऊं या जाऊं तो उन्हीं की गाड़ी में सफर करूं।

एक बार जो इंसान उनकी गाड़ी में बैठ गया, तो वह रास्ते भर सो नहीं सकता! गाड़ी में बैठने के बाद हमने गाड़ी  के दरवाज़े बंद किए, गोधन भाई ने एक्सीलेटर दबाया, गियर मारा, स्टीयरिंग घुमाई और गाड़ी चल पड़ी। 10-12 मिनट बाद रास्ते में पहाड़ियां आना शुरू हो गईं। पहाड़ों की तो हवा ही अमृत है। ऐसा लग रहा है मानो गैस चैंबर से बाहर आ गई हूं! ज़रूर इन पहाड़ों के अंदर इंसान खींचने वाले चुंबक होंगे, तभी तो हर कोई इनकी ओर खिंचा चला आता है।

ऊंचे- ऊंचे पहाड़ों के बदन पर दौड़ती सड़कें और सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां। ठंडी-ठंडी हवा के साथ ताज़गी, पेड़ों पर छलांग मारते बंदर, मानो द्वारपाल की तरह हमारे ऊपर इत्र छिड़क रहे हों। गोधन भाई की कॉमेडी, पहाड़ों का सौंदर्य और ताज़गी भरी हवाओं का ऐसा मेल मिल रहा है मानो मुझे माइकल जैकसन से डांस सीखने का मौका मिल गया हो! प्रकृति का आनंद लेते हुए चार-पांच घंटे बाद हम शहर फाटक पहुंचे पर यहां कुछ ज़्यादा ही ठंड है। मैंने तो मम्मा से साफ-साफ बोल दिया कि मैं तो गाँव में 3-4 दिन तक नहीं नहाउंगी।

हम पास के ही एक होटल में चले गए। हम घर से पूड़ियां लाए थे, पर शहरफाटक के गरमा-गरम चनों के बिना खाने में, वो मज़ा कहां! खाने से पहले हाथ भिगोना का रिवाज़ तो हर जगह ही होता है पर यहां का पानी ही बहुत ठंडा है और उस से हाथ धोना भी बहुत मुश्किल है। हम भरपेट खाने के बाद फिर से चल पड़े हैं। अब शाम के लगभग 4:00 बज रहे हैं और हम अपने गाँव पहुंच चुके हैं। अपने गांव को देखने के लिए ना जाने कब से मेरी आंखें तरस गई थीं। गाड़ी से उतरते ही मन कर रहा था तुरंत वहीं लेट जाओ और यहां बिताए पलों को सहेज लूं लेकिन सूरज ढलने में अब ज़्यादा समय नहीं है।

अब रोड से हमें कुछ ऊपर चढ़ना है। इतने समय बाद चढ़ाई चढ़ी है। ज़ाहिर सी बात है मेरी सांसें फूल रही हैं। दो-तीन मिनट चढ़ने के बाद दुकानें शुरू हो गई। पहाड़ों की तो यह खासियत ही होती है कि पूरा गाँव एक परिवार की तरह रहता है। अगर परिवार का सदस्य बहुत समय बाद मिले तो एक अलग ही खुशी होती है। ऐसी ही खुशी सभी गाँव वालों को हो रही थी। गाँव में सब लोग आज इतने खुश हैं कि मानो आज दिवाली हो। दुकान वालों से तो मिल लिए, अब बाकी गाँव वालों से भी मिलना है।

अब हमें लगभग 1 किलोमीटर और चलना है। मुझे चलते-चलते यहां बिताए हुए पल याद आ रहे थे। रास्ते के पेड़, घास, चिड़िया सब मेरे घर आने की खुशी मना रहे हैं। अब मैं अपने घर की दहलीज़ पर खड़ी हूं। मुझे देख भाभी और ताई चौंक गए। उन्होंने बड़े उत्साह हम सब का कुशल-मंगल पूछा। उनसे बात करके, मैं पूरे घर में घूमने लगी। मेरी दादी भी छत पर बैठी हुई थी। मैं उनसे चुंबक की तरह चिपक गई थी और मेरे पीछे-पीछे मेरा भाई भी दादी से चिपक गया था।

हमारी दादी की आंखों में खुशी के आंसू हीरों की तरह चमक रहे थे। मेरे सभी भाई-बहनों ने मुझे घेर लिया। 20-30 मिनट तो हम सब लोग गपियातेे (बातें करते) रहे। इसके बाद मैं कपड़े बदलने अंदर कमरे में चली गई। कुछ देर में सूरज ढल गया। छोटी चाची रसोई में रोटियां बना रही थी। इतने समय बाद चूल्हे पर रोटियां बनते हुए देख रही हूं।आज तो खाने में भी मडुवे की रोटी और पिडा़लू (अरबी)की सब्जी है। गरमा-गरम खाना खाने के बाद हम सोने के लिए चले गए। 1 दिन के सफर की थकान के कारण क्या आरामदायक नींद आई! रात को पहाड़ों में इतनी शांति होती है कि घड़ी की सुई के अलावा कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देती।

जब सुबह उठकर मैं बाहर आई तो इतनी हरियाली, साफ हवा और चिड़ियों की आवाज़ सुनकर मेरा मन खुश हो गया। ऐसी चीज़ें शहरों में तो ना के बराबर होती हैं फिर मुझे याद आया कि आज हमने गाँव के मंदिर में भंडारा और पूजा रखवाई है। इसलिए नहाना तो पड़ेगा ही, वह भी इतनी ठंड में!बड़ी हिम्मत जुटाकर और दिल पर पत्थर रखकर मैं नहा ही ली। इसके बाद नहाने की आफत टली तो एक और आफत सिर पड़ गई वह यह कि जब तक पूजा संपन्न नहीं होती घर का कोई सदस्य खाना नहीं खाएगा। इसके बाद मैंने जैसे-तैसे भूख सहन की, चलो पूजा के बहाने ही सही दूर-दूर के रिश्तेदार तो मिल गए नहीं तो मेरी तो यह हालत हो गई थी कि मैं अपनी बुहाओं के नाम भी भूल गई थी।

पहाडों में यह नियम होता है कि खाना पंडित जी बनाते हैं और सबसे पहले पंडितों को ही खिलाते हैं। मैंने तो सोचा था कि पंडित जी कहां उतना अच्छा खाना बना पाएंगे लेकिन पंडित जी तो कमाल कर गए। उन्होंने ऐसा खाना बनाया कि लोग उंगलियां चाटते रह गए! सारा काम निपटाने में शाम हो गई। रात को खाना बनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि हम सब ने पूजा वाला खाना ही गर्म करके खा लिया।

आज मैंने इतना काम किया था कि मैं खाना खाने के बाद तुरंत सो गई लेकिन मम्मा ने बहुत देर तक कल की पैकिंग करी। सुबह भी मम्मा ने मुझे बहुत ज़ल्दी उठा दिया लेकिन आज मेरे मन में उत्साह नहीं बल्कि एक उदासी सी छा रही है, क्योंकि आज मुझे फिर से मेरा गाँव छोड़कर वापस जाना पड़ेगा। 

Exit mobile version