भाग्य से ज़्यादा अपने आप पर विश्वास करो अक्सर ऐसे कथन लोगों के जीवन में प्रेरणा का काम करते हैं। कुछ देर ही सही पर शायद हर कोई ऐसे कथनों से प्रेरित होता है, पर अगर हम कुछ ऐसे शख्सों की बात करें जिन्होंने जीवन भर इस कथन को सिद्ध किया है, तो इसका एक उत्तम उदाहरण बाबासाहेब अम्बेडकर जी हैं।
किसी भी व्यक्ति का जन्म उसके वश की बात नहीं है। हमारे देश में पैदा होते ही धर्म और जाति आपके साथ जुड़ जाते हैं। किसी भी शख्स के लिए खुद से धर्म-जाति को अलग करना चाय में चीनी को अलग करने जैसा है, परन्तु जीवन को बनाने और बिगाड़ने वाला ऊंचा कुल नहीं बल्कि आपके ऊंचे कर्म होते हैं। अम्बेडकर जी भी अस्पृश्य मानी जाने वाली महार जाति में जन्मे थे।
मैंने अक्सर अपने गुरुजनों से अम्बेडकर जी के बारे में बहुत सुना है। उनका व्यक्तित्व मुझे हमेशा से ही प्रभावित करता आया है। सातवीं कक्षा में प्रार्थना सभा के दौरान हमारे विद्यालय के कमल सर ने अम्बेडकर जी का परिचय दिया था। हालांकि, उनका नाम तो मैंने पहले भी कई बार सुना था पर उनसे प्रभावित होने का सफर यहीं से शुरु हुआ। कई किताबों और अखबारों में भी अम्बेडकर जी के बारे में पढ़ने को मिला। लॉकडाउन के दौरान वसंत मून द्वारा लिखित अम्बेडकर जी की जीवनी को पढ़ने का अवसर मिला और इस महान व्यक्ति से अच्छे तरीके से इस किताब के माध्यम से मुलाकात हुई।
14 अप्रैल, 1891 को भीमाबाई और रामजी सकपाल जी को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर रखा गया। एक अस्पृश्य जाति से होने के कारण उनके पिताजी के लिए उन्हें स्कूल भेजना आसान कार्य नहीं था। इसलिए उनके पिताजी परिवार सहित रत्नागिरी तहसील के दापोली नगर को छोड़कर मुंबई आ बसे और अम्बेडकर जी का बचपन वहीं बीता और प्राथमिक शिक्षा भी वही संपन्न हुई।
6 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था। उसके बाद उनका लालन-पालन उनकी अपंग बुहा मीराबाई ने किया। इस बीच उनको अस्पृश्यता के प्रहारों को भी सहन करना पड़ा। भीमराव जी के पिताजी ने उनकी माँ की मृत्यु के कुछ समय बाद दूसरा विवाह किया। इस घटना से उनका घर से मन खट्टा सा हो गया था। एक दिन परेशान होकर सिद्धार्थ की तरह वह भी अपना घर छोड़कर चले गए मगर जीवन की कठिनाइयों के ज्ञात होने पर वे वापिस अपने घर लौट आए।
अम्बेडकर जी जैसे-जैसे ऊपरी कक्षाओं में प्रवेश कर रहे थे, वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकों का भी अध्ययन करने लगे। एल्फिस्टन हाई स्कूल में पढ़ते समय ही उनकी शादी रमाबाई के साथ संपन्न हो गई थी। 1907 में अस्पृश्य छात्रों में मैट्रिक की परीक्षा पास करने वाले भीमराव अम्बेडकर पहले छात्र बने और अगले ही वर्ष उनको एल्फिंस्टन कॉलेज ने दाखिला मिला। 1912 तक उन्होंने बॉम्बे कॉलेज से अर्थशास्त्र और राजनैतिक विज्ञान में बी.ए. की डिग्री हासिल की। 1913 में उनके पिताजी का भी निधन हो गया।
अम्बेडकर जी ने गायकवाड़ छात्रवृत्ति के चलते अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एम.ए. की पढ़ाई पूरी की। 1916 में उनके दूसरे शोध कार्य “नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया- ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी” के लिए उन्होंने एम. ए. की डिग्री प्राप्त की और अपने तीसरे शोध “इवोल्यूशन ऑफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया” के लिए अर्थशास्त्र विषय में पीएचडी की डिग्री हासिल की। उन्होंने बैरिस्टर कोर्स के लिए ग्रेज इन में प्रवेश लिया और लंदन स्कूल ऑफ इकोनमिक्स में डॉक्टरेट थीसिस पर काम करना शुरू किया, लेकिन छात्रवृत्ति समाप्त होने के कारण उन्हें वापिस भारत लौटना पड़ा और उनके पास अपनी थीसिस जमा करने के लिए 4 साल का समय था।
छात्रवृत्ति की शर्त के अनुसार, भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पढ़ाई पूरी होने के बाद बड़ौदा नरेश के दरबार में सैनिक अधिकारी और वित्तीय सलाहकार का दायित्व उन्होंने स्वीकार किया। यह पद स्वीकार करने के बाद ज़ल्द ही उन्हें सामाजिक असमानता के कारण वह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद शहर में, उन्हें किसी ने किराए के लिए कमरा तक नहीं दिया था। इसके कारण वह ज़ल्द ही बंबई लौट आए और उन्होंने वहां के एक कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में नौकरी की।
इसके बाद वे अपने एक पारसी मित्र की सहायता से इंग्लैंड जाने में सफल हो पाए और 1921 में उन्होंने विज्ञान में एम.एस.सी की डिग्री प्राप्त की। 1923 में उन्होंने डी.एम.सी की उपाधि प्राप्त की और फिर वह तीन महीने जर्मनी रुके और वहां की बॉन यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र का अध्ययन ज़ारी रखा और कई सम्मानित उपाधियां प्राप्त कीं।
इसके बाद वे भारत लौटे और बॉम्बे हाईकोर्ट में कानून की प्रैक्टिस करने लगे और इसके साथ-ही-साथ वे दलित लोगों की शिक्षा के लिए भी प्रयास कर रहे थे। बहिष्कृत हितकारिणी सभा उनका पहला प्रयास था। उन्होंने कई पत्रिकाओं का सहारा लेकर भी यह प्रयास जारी रखा। 1927 में उन्होंने छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीति के खिलाफ आंदोलन का निश्चय किया और हिन्दू मंदिरों में प्रवेश तथा मैन टैंक से पानी लेने का अधिकार लेने की कोशिश की। इस प्रकार के लगातार आंदोलनों से उच्च जातियों के स्वामित्व पर सवाल उठाने से उनकी मेहनत रंग लाई और 25 सितंबर 1932 को एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार, दलितों को प्रांतीय विधायिकाओं में रिज़र्व सीट दी गईं और इस समझौते को पूना पैक्ट कहा गया।
एक समाज सुधारक, दलित नेता होने के साथ-साथ वह भारतीय संविधान के भी शिल्पकार थे। 15 अगस्त, 1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में बनी नई सरकार में अम्बेडकर को पहला कानून मंत्री नियुक्त किया गया। संविधान की रचना के लिए उन्हें ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। संविधान को जिस दिन अपनाया गया उस दिन उन्होंने कहा कि, “संविधान साध्य है, लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों परिस्थितियों में जोड़ कर रख सकता है।” वास्तव में, मैं कह सकता हूं कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य ही गलत था।
1951 में संसद में अपने यूनिफार्म कोड बिल को रोके जाने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया, जिसमें उन्होंने उतराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों की लैंगिक समानता की बात की थी। 1952 में उन्हें राज्य सभा के लिए चुना गया और अपनी मृत्यु तक वह राज्य सभा के सदस्य रहे।
भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव अम्बेडकर के कई सपने थे। भारत जाति-मुक्त हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, सदैव लोकतांत्रिक बना रहे। हमें ज़रूरत है कि हम अपना विश्लेषण करें कि क्या हम अब तक उनके इन सपनों को साकार कर पाए हैं? आज भी समाज में पाई जाने वाली असामनता का शायद हम एक पात्र ना हों, पर इसके अस्तित्व पर सवाल उठाना और एक बार खुद से ही तर्क-वितर्क करना तो बनता है। उन्होंने कहा था, “यह स्वतंत्रता हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए मिली है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीज़ों से भरी हुई है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करती है।”