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देश की मुख्यधारा की राजनीति में युवाओं की भूमिका नगण्य क्यों है, आइए जानते हैं

देश की मुख्यधारा की राजनीति में युवाओं की भूमिका नगण्य क्यों है, आइए जानते हैं?

युवा शब्द एक समरूप इकाई नहीं है, इसमें विभिन्न समूह शामिल हैं। कुछ समाजसेवा गतिविधियों में शामिल हैं तो कुछ राजनीतिक दलों में सक्रिय हैं और अन्य गैर सरकारी संगठन, नारीवादी आंदोलन और मानव अधिकारों के संरक्षण में अपनी प्रतिभागिता दे रहें हैं।

‘उठो ! जागो और तब तक मत रुको जब तक कि तुम्हारा लक्ष्य पूरा ना हो जाए।’ – स्वामी विवेकानंद ने 19वीं शताब्दी में उपनिषद से प्रेरणा लेकर इस नारे को सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय बनाया था। आज भी भारत सहित पूरा विश्व उन्हें युवा शक्ति के प्रतीक के रूप में देखता है, जिन्होंने दुनिया भर में भारतीय परंपरा और संस्कृति का परचम लहराया और शिकागो की धर्म संसद में दिया गया उनका भाषण इस बात को बखूबी प्रमाणित करता है।

देश को अधिकतम युवा, ऊर्जावान, उत्साही, नैतिक रूप से मज़बूत और मेहनती प्रतिनिधियों की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत ने आज़ादी के समय से लेकर आज तक एक सार्थक प्रगति की है लेकिन यह पहलू भी विचारणीय है कि अगर यहां युवाओं को राजनीति में भाग लेने और जनहित में निर्णय लेने का मौका बढ़ चढ़ कर दिया जाए तो भारत के समावेशी विकास को और भी तेज़ी से गति मिलेगी।

देश की मुख्यधारा की राजनीति में युवाओं का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है  

हाल में ही, भारत सहित 15 देशों में इप्सोस द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि युवा वर्ग पुरानी पीढ़ी की तुलना में भविष्य के बारे में अधिक आशावादी है। इन करोडों युवाओं का आशावाद, किसी भी समाज और देश की सबसे बड़ी ताकत है जिससे क्रांतिकारी बदलाव संभव हैं। 1999 (13 वीं लोकसभा) में सांसदों की औसत आयु 52 थी। 2004 में यह बहुत अधिक थी। 2009 में लोकसभा की औसत आयु 54 हो गई, वहीं 2014 में यह आंकडा 59 की आयु पर पहुंच गया। इसके बाद लगातार तीन चुनावों की बढ़त के साथ, संसद की औसत आयु 55 वर्ष से कम हो गई है। 2014 के लोकसभा चुनावों में युवा मतदाताओं की सबसे अधिक संख्या देखी गई थी, फिर भी देश की मुख्यधारा की राजनीति में पुराने उम्मीदवारों के ही लगातार सांसद बनने का उच्चतम अनुपात देखा गया है।

संसद में ना केवल युवा प्रतिनिधित्व घट रहा है बल्कि पिछले 20 वर्षों में सांसदों की औसत आयु भी बढ़ी है। भारत में 25 वर्ष से कम आयु वाले वयस्कों की आबादी लगभग 50 प्रतिशत है। भारत की औसत आयु 29 है, पर यहां की राजनीति इसके विपरीत है। अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राज्यसभा के सदस्य अभी भी बड़े हैं और उनकी औसत आयु 63 वर्ष है।

हमारी आबादी का लगभग 65 फीसदी हिस्सा 35 वर्ष की आयु से नीचे है, पर देश में केवल 22 फीसदी लोकसभा के सदस्य 45 वर्ष से कम आयु के हैं। अगर हम वैश्विक स्थिति कि बात करें तो कई राष्ट्रीय संसदों में युवाओं का प्रतिनिधित्व कुछ खास बेहतर नहीं है। विश्व में युवा औसत आयु 31 है और औसत सांसदों की उम्र 53 वर्ष है यानी दुनिया भर में केवल 28 फीसदी सांसद युवा हैं, जो हमारे लिए एक चिंताजनक बात है।

जेपी का विद्यार्थी आंदोलन युवा वर्ग की शक्ति का परिचायक है

भारत के परिप्रेक्ष्य में, जब युवा और राजनीति के विषय में बात होती है तो हमें “युवा ऊर्जा” के इतिहास को याद करना चाहिए। आपातकाल के दिनों में (1975-1977), भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अरुण जेटली, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, प्रकाश जावडेकर जैसे युवाओं की संख्या बढ़ी थी। कैंटीन फीस में बढ़ोतरी पर हुए छात्रों का आंदोलन गुजरात और बिहार में कॉंग्रेस सरकार के करारी हार का कारण बना था।

काँग्रेस के पतन ने ना केवल उसकी विफल नीतिओं को परिभाषित किया बल्कि देश को जन आंदोलन की ताकत को भी समझाया। जेपी नारायण ने उस समय उस ताकत को “युवा शक्ति”  का नाम दिया था। इन युवा नेताओं ने जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में कई रैलियां और क्रांतिकारी आंदोलन किए। यह विचारणीय है कि कई अवसरों पर, ये ‘छात्र आंदोलन’ शांतिपूर्ण नहीं थे। इसमें आगजनी और पथराव के ज़रिये सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना शामिल था, लेकिन उन्हें कभी भी देश-विरोधी नहीं कहा गया।

देश की मुख्यधारा की राजनीति में वंशवाद का होना युवा शक्ति पर संकट

अगर हम राजनीतिक परिदृश्य पर युवा चेहरों को सूचीबद्ध करते हैं तो हम वंशवादी राजनीति से अवगत होते हैं। यह केवल नेहरू-गांधी परिवार तक ही सीमित नहीं है। यह कहना बेशक गलत नहीं होगा कि उमर अब्दुल्ला से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया या सचिन पायलट से लेकर तेजस्वी यादव और चिराग पासवान तक, सभी को राजनीति किसी-ना-किसी तरह से उनके पिता से विरासत में मिली है।

एक अलग टिप्पणी यह भी हो सकती है कि इन्हें जनता लोक संवाद या समाजसेवा की वजह से चुनते हों, पर परिवार के राजनीति में होने का फ़ायदा तो इन्हें मिलता ही है। वहीं सामान्य परिवारों के 25-30 वर्ष के युवाओं को उनके कार्यों को देखते हुए, उन्हें आसानी से राजनीति में मौके नहीं मिल पाते हैं। इस विशेषाधिकार ने ऐसे युवा नेताओं को आम जन मानस के साथ आत्मीय जुड़ाव विकसित करने से वंचित कर दिया है। अतः हम यह कह सकते हैं कि वे अपने क्षेत्र में सफल हैं, सत्ता में बने हो सकतें है लेकिन उनका राजनीति में होना, यह इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि वे राजनीति में नए मूल्यों को लाने के लिए तैयार हैं।

सोशल मीडिया की देश एवं युवा राजनीति में अहम् भूमिका

वर्तमान में युवाओं के लिए सोशल मीडिया रोज़मर्रा के विचारों को समाज के सामने रखने का एक साधन बन गया है। सोशल मीडिया सामाजिक है और इसकी शक्ति के अनुसार लोगों को एक-दूसरे से  सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। हमारे जीवन के कई पहलूओं की तरह, राजनैतिक चर्चाएं सोशल मीडिया के मंच पर चली गई हैं। यह बात भी गौर करने योग्य है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा राजनेता, इसलिए युवा पीढ़ियों के बीच अधिक लोकप्रिय हैं, क्योंकि वे अपने सोशल मीडिया हैंडल पर नियमित रूप से सार्थक अपडेट पोस्ट करके लोगों को अपने से जुड़ा महसूस कराते हैं।

27 वर्षीय ओड़िसा की चंद्रानी मुर्मू, बिहार के सिंहवाहिनी गाँव की मुखिया रह चुकी ऋतु जयसवाल, फिनलैंड की 34 वर्षीय प्रधानमंत्री सना मरीन, पेशे से वकील रह चुके जयवीर शेरगिल आदि कुछ ऐसे चेहरे हैं, जो देश-दुनिया में युवा नेता के तौर पर पर उभर कर आए हैं।

15 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग ने क्लाइमेट चेंज के विषय पर पूरे विश्व का ध्यान खींचा  

वहीं वैश्विक स्तर पर 15 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग ने युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं और दृष्टिकोण को अविश्वसनीय रूप से प्रस्तुत किया है। जब ग्रेटा ने देखा कि कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नेता जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर मुद्दों पर अपनी आंखें बंद किए हुए हैं, तब उसने पूरी दुनिया के सामने यह चिंता व्यक्त की कि उसे इस समय अपने स्कूल में पढाई के लिए होना चाहिए था, लेकिन वो उस समय, वह बातें कह रही है जो दुनिया के जनप्रतिनिधियों को कहनी चाहिए। वह स्वतः ऐसी पीढ़ी के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता बन गई, जो वास्तव में इस दुनिया के भविष्य की परवाह करते हैं और चुप रहने के बजाय अपनी बातों को मुखर होकर दुनिया के सामने लाते हैं।

आज के युवा वर्ग को राजनीतिक प्रक्रियाओं में भाग लेने और अपने विकास को आगे बढ़ाने वाले व्यावहारिक समाधानों में योगदान करने के लिए वास्तविक अवसरों की आवश्यकता है। जब स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि, “जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते हैं तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते” तो यह स्पष्ट रूप से उन करोड़ों युवाओं को संदेश देता है, जो बदलाव वे इस दुनिया में देखना चाहतें हैं उसके नेतृत्व का परचम भी उन्हीं के हाथों में है।

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