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यकुलांस

गर्मियाँ हो या सर्दियाँ, छुट्टी मिलते ही शहरों से एक बड़ा हुजूम निकल पड़ता है पहाडों की ओर। घास और छोटे – छोटे कीड़ों को पहियों के तले रौंदते हुए प्रकृति का आनंद लिया जाता है। इस दौरान आलम यह होता है, पहाड़ इतने ओवर-क्राउडेड हो जाते हैं कि पानी की भी कमी हो जाती है। और इस ही समय सैंकड़ों पहाड़ इंतजार कर रहे होते हैं कि कोई आए और पेड़ों से पक कर गिर रहे फलों को गिरने से पहले तोड़ ले, कोई आए और नौले में से पानी ले जाए, कोई आए और एक धार से दूसरी धार में धाद लगाकर बातें करे, कोई आए और आँगन में से घास साफ करके उसे लीप दे, कोई आए और बीरान-बंजर पड़ी जमीन को फिर से आबाद करे।

ऐसे गाँवों को लोग ‘भूतिया गाँव’ कहते हैं। शायद इसलिए क्योंकि नई पीढ़ी तो तन के साथ मन भी लेकर चली गई! लेकिन बड़े-बूढ़ों का मन, तन न होने के बावजूद भी अपने उधरे हुए घर को देखकर मायूस हो रहा है। ऐसे ही एक गाँव को आज देखकर आए। अपनी आँखों से न सही लेकिन ‘पांडवाज़’ द्वारा दिए गए दिव्य चक्षु से। कुनाल डोबाल द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेन्ट्री ‘यकुलांस’ देखने का मौका मिला। लगभग 28 मिनट की यह डॉक्यूमेन्ट्री केवल एक वीडियो न होकर दर्पण है हमारे पहाड़ों का।

अभी कुछ ही समय पहले समाजशास्त्र में ‘सोशल बिहेवियर’ के बारे में पढ़ा था कि कैसे समाज हमारे रहन-सहन और विचारों को प्रभावित करता है। इसकी भी साफ छवी में इस डॉक्युमैन्ट्री के साथ-साथ आम जीवन में भी देख पा रही हूँ। पहले पहाड़ों में समाज में ‘स्टेटस’ तय इससे होता था कि कितने लड़के, ज़मीन और जानवर किसी के पास हैं। लेकिन आज यह बिल्कुल बदल गया है। अब समाज में ‘स्टेटस’ उसका ज्यादा माना जाता है जो गाँव छोड़कर बाहर नौकरी कर रहे हों। भले ही होटलों में दूसरों की जूठी थालियाँ साफ कर रहे हों पर गाँव में एक्कड़ों के हिसाब से जमीन कमाने से ज़्यादा बेहतर माना जा रहा है!

शुरुआत में हिलते हुए कैमरे को देख मन में ख्याल आया कि यह कैसी डॉक्यूमेन्ट्री है? लेकिन जैसे-जैसे घड़ी की सुई बड़ता गई, अहसास होता गया कि कितने आर्टिफीयल हो गए हैं न हम! तभी तो आँखों से दिखने वाले दृश्य को भी कृतिम कैमरे से न दिखना खटक रहा था।

यह अहसास होने के बाद, इन 28 मिनटों में मुझे एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि यह सब कैमरे से दिख रहा है। कैमरा एंगल कि वजह से ऐसा लग रहा था जैसे वे मेरी ही आँखें हों, मेरे ही हाथ और मेरे ही पहाड़ की व्यथा। मैंने यह सुना था कि किसी भी अच्छा फिल्म या डॉक्यूमेन्टरी के डायलौग हटा भी दिए जाएं, तो उसके विज़ुअल्स पूरी कहानी स्पष्ट दिखाते हैं। आज यह डॉक्यूमेन्ट्री देखते हुए इस पंक्ति की प्रासंगिकता भी स्पष्ट हो गई। केवल कुछ प्राकृतिक एक्सप्रैशन्स के अलावा एक पंक्ति का भी डायलॉग नहीं, बावजूद इसके एक भी ऐसा दृश्य नहीं जो समझ न आया हो! वाकई बेहतरीन विज़ुअल्स हैं इस डॉक्युमैन्ट्री में।

एक बुजुर्ग की आँखों से उदासीन पहाड़ों का दर्द देखना दुखदायी था। मन में क्रोध उमड़ रहा था कि कोई कैसे अपने घर और जमीन को छोड़कर जा सकता है! लेकिन फिर याद आया मैं भी तो उन्हीं में से एक हूँ। मैं भी तो अपना पहाड़ छोड़कर मैदान खिसक आई। लेकिन शायद अगर अभी पहाड़ में होती तो यह लिख नहीं रही होती बल्कि बैठी होती शायद मैं भी भटियारखाने में! सुविधाओं का अभाव और ‘मॉडर्न’ जीवनशैली का लालच चुंबक की तरह खींच लाता है दो पैरों वाले जानवर को मैदान की चमक में।

विज़ुअल्स और कैमरा एंगल के अलावा संगीत भी किसी रचना को आकर्षक व सार्थक बनाता है। इस डॉक्युमैन्ट्री में भी संगीत की अहम महत्ता है। शुरुआत के दृश्यों के बीच का संगीत यह अंदाज नहीं आने देता कि दृश्य बदल गया है। पानी की भांति एक के बाद एक दृश्य बहते जाते हैं। और अंत में गाना पूरी डॉक्यूमेन्टरी की सार्थकता तो दिखाता ही है साथ ही इसे और दिलचस्प बना देता है।

‘यकुलांस’ ने मुझे एक और चीज़ का अहसास दिलाया कि भारत सच में अपने आप में एक अलग दुनिया है। तभी तो एक ही राज्य में रहते हुए मैं यह देखकर दंग रह गई कि गढ़वाल का टैरेन कुमाऊँ से कितना अलग है! मुझे तो लगा था कि गढ़वाल की जमीन और पहाड़ भी यहीं की तरह होते होंगे। लेकिन दोनों की भौगोलिक स्थितियों में काफी अंतर देखने को मिला।

वाकई काफी अच्छा लगा कि किसी ने पहाड़ों का दर्द दुनिया के सामने लाने का इतना बेहतरीन प्रयास किया है। इस वजह से मन थोड़ा आश्वस्त भी है लेकिन उदास भी है यह सोचकर कि कब वो दिन आएगा जब ऐसा ही कुछ मैं अपने पहाड़ में बैठकर लिख पाउं?

– दीपिका
– 11th
– नानकमत्ता पब्लिक स्कूल

 

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