ये मैं कहाँ आ गई! अपनी टाइम मशीन में चली थी इतिहास में झाँकने, पता नहीं कहाँ आ पहुँची! कितने अजीब जीव हैं यहाँ! जानवर हैं या इंसान? अरे मुझे धक्का किसने मारा? एक अजीब सा छोटा जीव जा रहा है मेरे सामने से। खेल रहा है शायद। मुझे देख रहा है वह। ऊपर से नीचे तक। वह भी सोच रहा होगा ये अजीब सा दिखने वाला है कौन? अपने बड़ों को इशारों से आगाह करने ही वाला था कि मैंने जेब से हड़बड़ाहट में कुछ निकालकर थमा दिया उसे। टॉफ़ी थी वह। उसके ऊपर घोर बादल घिर आए। आश्चर्य, जिज्ञासा और हाँ डर के भी। उसे उलझाकर मैं आगे बढ़ चली।
देख रही हूँ उन तमाम जीवों को। पेड़ पर लपककर तोड़ रहे हैं फल। आवाज़ आ रही है उनके मुँह से – “हह्ह अअअह्ह…….” अचानक वहाँ भगदड़ मच गई। मैं पूछना चाह रही थी। जवाब की उम्मीद करना ठीक वैसा ही है जैसा जवाब अपनी दादी से मुझे मिलता है। गुड आफ़्टरनून का जवाब “गुड़ आटा नून”। खैर, उस भगदड़ को देखने के बाद लगा कि उन्हें किसी ख़तरे की ख़बर लग चुकी है। शेर की दहाड़ सुनते ही सारे जवाब मिल गए। एक दूसरे को सचेत करने के लिए उन्होंने कहा होगा – “सावधान एक शेर!”
अपनी टाइम मशीन में बैठ गई। शुरूआती सफ़र में होमो इरेक्टस को देखा। भरा है डर से। आग जो जल गई उससे! आगे बढ़ी तो देखा वहीं अफ़्रीका में शिकार कर रहे हैं होमो रुडोल्फेंसिस प्रजाति के इंसान। काफ़ी सफ़र तय कर चुकी हूँ। अब 30 से 50 हज़ार साल पहले पहुँच गई। अरे ये क्या! करीबन एक ही समय पर दो इंसानी प्रजातियाँ! कहीं सर्बिया की गुफाओं में बैठा है होमो डेनिसोवा अपने परिवार के साथ ठण्ड में ठिठुरता हुआ। वहीं जर्मनी की निएंडर घाटी के आसपास देखे होमो निएंडरथल। वही निएंडरथल जिनका मस्तिष्क सभी इंसानी प्रजातियों में सबसे बड़ा माना जाता है।
इस यात्रा के दौरान और बाद भी मन में इतने सवाल थे कि पूछो मत! हमारी धरती में जीवन की धड़कन है। इसकी नुमाइंदगी करते हैं हम सभी जीव, पेड़-पौधे, सूक्ष्मजीवी आदि। मानव प्रजाति का विकास अपने आप में काफ़ी रोचक रहा है। हम नई चीज़ें सीखते जा रहे थे। बाकी लोगों को सिखाते जा रहे थे। दीवारों पर अपनी छाप छोड़ रहे थे। शायद आने वाले लोगों को बताने के लिए कि कभी हमारा भी अस्तित्व था यहाँ। ये बात गौरतलब है कि जब-जब इंसान ने नई खोज की, उसने उसे दूसरों से साझा किया। साहित्य की भी मदद ली। विज्ञान और साहित्य अलग होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। हम यह भूल जाते हैं कि मनुष्य ने अपनी कल्पना को आधार बनाकर कुछ नया खोजा होगा, कुछ नया जाना होगा। अपनी उस खोज (विज्ञान) को लोगों तक पहुँचाने के लिए उसने साहित्य को ही माध्यम चुना।
आमतौर पर लोगों को यह भी कहते सुना है कि जहाँ साइंस या फैक्ट ख़त्म होते हैं, वहाँ से लिटरेचर या साहित्य की शुरुआत होती है। लेकिन मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानती हूँ जो विज्ञान को साहित्य की कलम से लिखते हैं। विज्ञान को जीते हैं। विज्ञान सुनाते हैं, कहानियों के साथ। प्रकृति की पुस्तक जिनकी शिक्षक है और पशु-पक्षी, पेड़-पौधे हमराही। वे हैं विज्ञान कथालेखक देवेंद्र मेवाड़ी। 1 सितंबर, 2021 को नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के लर्नर्स की मुलाक़ात हुई यायावर देवीदा से। पहाड़ों की फिज़ाओं में बड़े हुए देवीदा प्रकृति से आत्मीय संबंध रखते हैं। वे अपनी विज्ञान की दुनिया से किस्सागोई के माध्यम से सभी को रूबरू कराते हैं।
उनका कहना था कि प्रकृति ही उनकी पहली शिक्षक और किताब रही है। प्रकृति से उनका यह आत्मीय संबंध उनकी कहानियों में साफ़ झलकता है। देवीदा की कहानियां सुन मन बंजारा बनकर उन्हीं के साथ चल पड़ता है। उनका मानना है कि जो विज्ञान हमारी पुस्तकों में लिखा है, वही हमारी प्रकृति में भी मौजूद है। फ़र्क महज़ इतना है कि प्रकृति का विज्ञान हम महसूस करते हैं। उसे जीते हैं। देवेंद्र जी हमेशा ही अपने आसपास की चीजों को ऑब्ज़र्व करने और उन पर सवाल उठाने पर ज़ोर देते हैं। ठीक ऐसा ही तो किया होगा ना आदिम मानव ने? तभी तो आग की खोज करदी, बोलना सीखा, गुफ़ाओं से घरों की ओर कदम बढ़ाया और आज हज़ारों सालों बाद एक ‘कॉस्मोपॉलिटन’ बन चुका है।
‘कथा कहो यायावर’ नाम से देवेंद्र जी की नई पुस्तक संभावना प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। उनकी यह किताब पढ़ते हुए मैं अपने कमरे में ही बैठे-बिठाए उनके साथ न जाने कितने राज्यों की सैर कर आई। देवीदा के लिए विज्ञान के मायने अलग हैं। वे अपनी किताब में कहते हैं कि – “दोस्तों विज्ञान कोई परखनली, मेंढकों की चीर फाड़ या समीकरणों को रट लेना नहीं है। यह बस सोचने का एक तरीका है। जब किसी बात को परखकर, उस पर प्रयोग और परीक्षण करके उसे आज़मा लिया जाता है और उसके नतीजे का पता लगा लिया जाता है तो वह परखी हुई बात ही विज्ञान कहलाती है।”
“अगर कोई ज्ञान कठिन लगे तो उसे साहित्य में बदल डालो।” इस विचार को आत्मसात करते हुए देवीदा विज्ञान कथाएं लिखते हैं। उनका मानना है विज्ञान को जितनी सरल भाषा में लिखा जाएगा, उतना ही समझने में आसान होगा। अपनी किताब ‘विज्ञान की दुनिया’ में देवीदा ने पृथ्वी के बनने की कहानी, ब्रह्मांड की सैर, धूमकेतु, डायनासोर और तमाम तरह के विज्ञान के कॉन्सेप्ट्स को साहित्य की कलम से बेहद ही सरल और सहज ढंग से लिखा है। उनका मानना है कि – “बच्चों के लिए विज्ञान लिखते समय हमें अपने मन के आंगन में बच्चों को ज़रूर बैठा लेना चाहिए, अन्यथा हम बच्चों के लिए नहीं बल्कि खुद अपने लिए लिख रहे होंगे।”
हमारा ये जो वज़ूद है हमेशा से ऐसा नहीं रहा है। हज़ारों साल लग गए वह बनने में जो हम आज हैं। अपने आसपास की चीज़ों को देखते रहे। उन पर सवाल किए। उनके जवाब खोजे। और बस सीखते ही चले गए। देवेंद्र जी के शब्दों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण यही है कि हम अपने आस-पास हो रही घटनाओं पर सवाल करें। उनके जवाब ढूंढें।
(रिया नानकमत्ता, उत्तराखंड की निवासी है। अभी नानकमत्ता पब्लिक स्कूल की कक्षा 11वीं में मानविकी की लर्नर है। रिया को लिखना, किताबें पढ़ना, लोगों से मिलना-बातें करना, अपने आसपास की चीज़ों को एक्सप्लोर करना और बोलना बहुत पसंद है। रिया से दी गई ईमेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है – riyachand1118@gmail.com)