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1921-2021: सौ साल अफ़गानिस्तान

हाल के दिनों में पूरे विश्व के लिए कोरोना के बाद अफ़गानिस्तान में हुए नाटकीय बदलाव और तालिबानियों का अफ़गानिस्तान पर पूरी तरफ से कब्ज़ा कर लेने की घटना सबसे बड़ी और चिंताजनक खबर रही और अभी भी बनी हुई है। सभी देश अफ़गानिस्तान में हो रहे  बदलाव को ध्यान में रखते हुए अपने-अपने सहूलियत के हिसाब से कूटनीति बनाने में व्यस्त हैं।

हालिया बदलाव को देखें तो इसमें दो महत्वपूर्ण साझेदार हैं। पहला ‘लोकतांत्रिक अफ़गानिस्तान’ और ‘दूसरा इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़गानिस्तान’ यानि तालिबान का अफ़गानिस्तान।

अफ़गानिस्तान एक नज़र में

अफ़गानिस्तान का शाब्दिक अर्थ होता है अफगानों का स्थान/देश। यहां सबसे ज्यादा पश्तूनों की आबादी है जो कि पश्तो भाषा का इस्तेमाल करते हैं।

अफ़गानिस्तान चारों तरफ से कई देशों से घिरा हुआ है। यह सेंट्रल और दक्षिण एशियाई देशों के बीच संपर्क सूत्र का काम करता है। इसके दक्षिण पूर्व में पाकिस्तान, पश्चिम में ईरान, उत्तर में तुर्केमिनिस्तान तथा उज्बेकिस्तान, और उत्तर पूर्व में चीन तथा भारत उपस्थित हैं।

आखिर अफ़गानिस्तान को साम्राज्यों का कब्रगाह क्यों कहा जाता है?

इतिहास गवाह है कि अफ़गानिस्तान ने कई साम्राज्यों का उदय और अस्त होते देखा है। कई राजाओं ने यहां आक्रमण किया और फिर कुछ दिन राज करके चले गए। 500 इसा पूर्व में बेबिलोनिया का राजा डेरियस प्रथम, 329 इसा पूर्व में मेसिडोनिया का अलेक्सेंडर द ग्रेट जिसको हम सिकंदर के नाम से जानते हैं। उसके बाद भी कई राजाओं ने यहां आक्रमण किया और अपना साम्राज्य स्थापित किया।

इसके अलावा यहां कुषाण, हेफ्थालिट, समानी, गजनवी, खल्जी, मुगल, दुर्रानी जैसे कई समराज्यों का उदय हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने भी कई बार अफगानों से जंग लड़ा और आखिरकार 1919 में तीसरा एंग्लो-अफ़गानयुद्ध के बाद अंग्रेजों को अफ़गानिस्तान छोड़ना पड़ा।

आखिर तालिबान हैं कौन?

‘तालिबान’ एक पश्तो शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘छात्र’। यह एक इस्लामिक कट्टरपंथी ग्रुप है जो अफ़गानिस्तान में इस्लामिक कानून यानि शरिया कानून लागू करना चाहता है। इनकी पढाई पाकिस्तान के मदरसों में हुई है। ज्यादर तालिबानी वो हैं जो अफ़गान के नागरिक तो हैं लेकिन इनकी ट्रेनिंग पाकिस्तान में हुई है।

शुरूआती दिनों कि बात करें तो यह सिर्फ इस्लामिक सुधारवादी आन्दोलन के रूप में उभरे थे। लेकिन बाद में इनको कई देशों से आर्थिक मदद मिलने लगी और ये राजनितिक खेल में उतर आये। मुजाहिदीन और सोवियत रूस के खिलाफ अमेरिका ने अपने मतलब के हिसाब से  इसको आर्थिक सहयोग किया।

सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने इस्लामिक कानून को बढ़ावा देने के लिए इनको आर्थिक मदद कि जिससे ये और भी मजबूत हो सके । इन्हीं तीनों देशों ने तालिबान सरकार को औपचारिक रूप से मान्यता भी दी थी। आज जब तालिबान ने 20 वर्षों के युद्ध के पश्चात् एक बार फिर अफगानिस्तान पर अपना कब्ज़ा कर लिया है, तो कहीं न कहीं सभी देश चुप हैं, या फिर तालिबान से समझौते को तैयार हैं।

बहुत से लोग कह रहे हैं कि तालिबान ने अपने आपको थोड़ा बदला है, क्या यह कहना सही है? क्या तालिबान पर भरोसा किया जा सकता है? आखिर अफ़गानिस्तान को सभी देशों ने अकेले क्यों छोड़ रखा है?

साल-दर-साल हुए महत्वपूर्ण बदलाव

1921

प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजी हुकूमत काफी हद तक परेशान और कमज़ोर हो चुकी थी। उसी समय अग्रेजों और अफ़गानों के बीच तृतीय एंग्लो- अफ़गान युद्ध 1919-2021 हुआ। जिसके पश्चात् अंग्रेजों  को अफ़गानिस्तान छोड़ना पड़ा और इस तरह एक बार फिर अफ़गानिस्तान आज़ाद हो गया।

उसी समय अमीर अमानुल्लाह खान जो कि एक अफ़गान था उसने सामाजिक और आर्थिक सुधार के लिए एक वृहद् अभियान चलाया।

1926

अमीर अमानुल्लाह ने अफ़गानिस्तान को एक राजतान्त्रिक देश घोषित कर दिया, और खुद को उसका राजा। राजा बनते ही उसने कई तरह के आधुनिक नीतियां बनाई और साथ ही साथ ‘लोया जिरगा’ (लोया जिरगा एक तरह का सभा है जिसके कुछ अपने परम्परागत कानून हैं। इसे पश्तून लोगों द्वारा संचालित किया जाता है।) के शक्तियों पर अंकुश लगाया। जिससे कि साल 1928 में इन नीतियों के विद्रोहियों ने इससे परेशान होकर हथियार उठा लिया, जिसके पश्चात् साल 1929 में अमीर अमानुल्लाह को देश छोड़ना पड़ा।

1933

ज़ाहिर शाह नए राजा बने। इन्हों शांतिपूर्ण तरीके से देश को अगले 40 वर्षों तक चलाया।

1934

अमेरिका ने औचारिक रूप से अफ़गानिस्तान को मान्यता दी।

1953

जनरल मोहम्मद दाऊद खान जो कि एक सोवियत समर्थक और राजा का चचेरा भाई था, प्रधानमंत्री बना। वह आर्थिक और सैन्य सहायता के दम पर अफ़गानिस्तान को एक कम्युनिस्ट स्टेट बनाना चाहता था। उसने कई सामाजिक सुधार किया। औरतों को बाहर जाने और काम करने के लिए प्रेरित किया।

इसके सुधारों का असर साल 1957 आते आते दिखने लगा बहुत सी औरतें यूनिवर्सिटी और कार्यालयों में पढ़ती और काम करती दिखने लगीं।

1965

गुप्त तरीके से अफ़गान कम्युनिस्ट पार्टी’ का गठन। बबराक करमाल और नूर मोहम्मद तराकी पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। इन्होंने ही पार्टी का नेतृत्व किया।

1973

जेनरल दाउद खान ने सैन्य तख्तापलट करके ज़ाहिर खान को राजा के पद से हटा दिया। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफ़गानिस्तान’ सत्ता में आई और जेनरल ने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अफ़गानिस्तान और सोवियत रूस के अच्छे संबंध हो गए।

1975-1977

जनरल ने एक नया संविधान बनाया जिसमें महिलाओं को कई तरह के अधिकार दिए गए। संविधान पूरी तरह से एक आधुनिक कन्युनिस्ट राज्य के रुपरेखा पर आधारित था। अपने विरोधियों को कई तरह के हत्कंडे अपना कर चुप कराया।

1978

कम्युनिस्ट तख्तापलट में जेनरल को मार दिया गया। नूर मोहम्मद तराकी जो कि अफ़गान कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य था देश का राष्ट्रपति बना। बबराक कमराल उप प्रधानमंत्री बना।

इन्होनें सोवियत रूस के प्रभाव से आज़ादी और इस्लामिक सिद्धांतों, अफ़गान राष्ट्रवाद एवं सामाजिक और आर्थिक न्याय के आधार पर नीतियां बनाने कि बात कही।

तराकी ने सोवियत रूस के साथ मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किया। लेकिन तराकी और एक दूसरे महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट नेता हफिज़ुल्लाह अमीन के बीच वैचारिक मतभेद हो गए।

उसी समय रुढ़िवादी सोच रखने वाला एक नेता जो कि सरकार के आधुनिक नीतियों से नाखुश था हथियारों के साथ सरकार के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। जून के महीने में मुजाहिदीन का गुरिल्ला आन्दोलन शुरू हुआ जिसको सोवियत रूस का समर्थन हासिल था।

1979

तराकी और हफिज़ुल्लाह अमीन के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हुआ। 14 सितम्बर, को अमीन के समर्थकों के साथ झड़प में तराकी की हत्या कर दी गयी।

लड़खड़ाती हुई कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए 24 दिसंबर को सोवियत रूस अफ़गानिस्तान में घूस गया। 27 दिसंबर को अमीन और उसके बहुत से समर्थकों को मौत के घाट उतर दिया गया। उप प्रधानमंत्री बबराक को प्रधानमंत्री घोषित किया गया। जिसके विरोध में वहां के लोगों ने प्रदर्शन किया। जिसमें हिंसा भी हुई।

1980 के शुरुआत में मुजाहिदीन विद्रोही सोवियत अक्रमंकारियों और सोवियत रूस समर्थित अफ़गान सेना के खिलाफ एकजुट हो गए।

1982

हालत खराब होते देख लगभग 28 लाख अफ़गान नागरिक पाकिस्तान और 15 लाख लोग ईरान भागने को मजबूर हो गए। अफ़गान मुजाहिद्दीन ने ज्यादातर ग्रामीण इलाके को अपने कब्जे में ले लिया और सोवियत रूस कि सेना ने शहरी क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया ।

1986

मुजाहिद्दीनों को हथियारों का आपूर्ति अमेरिका, ब्रिटेन और चीन द्वारा पाकिस्तान के रास्ते हुआ करता था।

1988

साल 1988 में ओसामा बिन लादेन सहित 15 लोगों ने मिलकर ‘अलकाएदा’ का गठन किया। अफ़गानिस्तान को पूर्ण रूप से इस्लामिक राष्ट्र बनाने और सोवियत रूस के चंगुल से आज़ाद कराने को लेकर जिहाद का नारा दिया।

1989

अमेरिका, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और सोवियत रूस के बीच जिनेवा शांति समझौता पर हस्ताक्षर हुआ। अफ़गानिस्तान से सोवियत रूस ने अपने एक लाख सैनिक को वापस बुला लिया। उसके बाद भी मुजाहिदीनों का कम्युनिस्ट अफ़गान सरकार के खिलाफ विद्रोह चलता रहा क्योंकि तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह सोवियत रूस के कठपुतली माने जाते थे।

1992

कुछ विद्रोही गुट और मुजाहिद्दीनों ने मिलकर काबुल शहर पर चढ़ाई कर राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को सत्ता से बेदखल कर दिया।

1995

इस्लामिक सिधान्तों के साथ चलने और शांति के वादे के साथ तालिबान सत्ता में आया। इस्लामिक कानून (शरिया कानून) लागू किया गया और एक बार फिर औरतों को बुर्के में रहने और अकेले बाहर न निकलने का आदेश दिया गया।

अमेरिका ने तालिबान को मान्यता देने से इंकार कर दिया।

1995-1999

इस बीच 10 लाख अफ़गान नागरिकों को पाकिस्तान भागना पड़ा और वहां के विस्थापित कैंप में रहने को मजबूर होना पड़ा।

1997

तालिबान ने नजीबुल्लाह को सरेआम फांसी पर लटका दिया।

मार्च 2001

तालिबान ने अफ़गानिस्तान के बामियान में मौजूद भगवान बुद्ध की मूर्ति तोड़ दी गई।

11 सितम्बर 2001

अमेरिका के वर्ल्ड ट्रैड सेंटर पर हमला। अमेरिकी एजेंसी ने कहा कि हमले का मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन अफ़गानिस्तान में छिपा है। अमेरिका ने तालिबान से ओसामा को मांगा लेकिन उसने उसके वहां होने से इंकार कर दिया।

7 अक्तूबर 2001

अमेरिका और ब्रिटेन के सेना द्वारा अफ़गानिस्तान में ओसामा के संभावित ठिकाने पर हवाई हमला किया गया। जिसके बाद तालिबान ने इसके खिलाफ जिहाद का ऐलान कर दिया।

7 दिसंबर 2001

दोनों तरफ से संघर्ष के बाद आखिरकार तालिबान के नेता ने अपना हथियार रख दिया। इस तरह अफ़गानिस्तान तालिबान के सरकार से पूरी तरह मुक्त हुआ।

22 दिसंबर 2001

हामिद करज़ई ने अंतरिम अफ़गानिस्तान सरकार के नेता के रूप में शपथ लिया। करज़ई को अमेरिका का सहयोग प्राप्त था। उसके बाद हामिद करज़ई ने साल 2004 तक अफ़गानिस्तान कि सरकार को चलाया।

अक्तूबर 2004

राष्ट्रपति का चुनाव कराया गया, जिसमें कुल 18 राष्ट्रपति के उम्मीदवार शामिल हुए। 10 लाख से ज्यादा लोगों ने अपने मताधिकार का उपयोग किया। हामिद करज़ई को 55 प्रतिशत वोटों के साथ अफ़गानिस्तान के लोगों ने अपना राष्ट्रपति चुना। अगले साल ही संसदीय चुनाव कराया गया जो कि शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुआ।

2009

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफ़गानिस्तान युद्ध के लिए अपने रणनीति में बदलाव किया, और वहां पहले से ज्यादा सेना की तैनाती का आदेश दिया।

2011

अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद में छिपे ओसामा के ठिकाने को पूरी तरह घेर लिया। 2 मई को अमेरिकी सेना द्वारा ओसामा मारा गया।

2013

अफ़गान सेना नाटो सेना के सहयोग से ही अपने ऑपरेशन को अंजाम देती रही। नाटो सेना और अफ़गान सेना मिलकर अफगानिस्तान के सुरक्षा को देखते थे।

फरवरी 2019

तालिबान और अमेरिका ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसके अनुसार अमेरिका को मई 2021 तक अपनी सेना को अफ़गानिस्तान से वापिस बुलाने पर सहमती बनी।

सितंबर 2020

तालिबान के हमले में कुछ अमेरिकी सैनिक मारे गए जिसके बाद राष्ट्रपति ट्रम्प ने शांति वार्ता बीच में ही रोक दी।

नवंबर 2020

अमेरिका ने अपने सेना कि उपस्तिथि आधी से घटा कर जनवरी तक 2500 करने का फैसला लिया।

अप्रैल 2021

राष्ट्रपति बाइडेन ने पूर्ण रूप से अमेरिकी सैनिक के अफ़गानिस्तान से वापसी का लक्ष्य 9 नवम्बर रखा।

15 अगस्त 2021

तालिबान लड़ाकों ने काबुल शहर पर कब्ज़ा कर लिया। राष्ट्रपति अशरफ गनी एक दिन पहले ही देश छोड़ कर अपने परिवार और कुछ साथी के साथ भाग गए।

30 अगस्त 2021

अमेरिकी सेना का आखरी जवान भी अफ़गानिस्तान से पूर्ण रूप से वापस चला गया। अमेरिकी सेना के लिए ये सबसे लम्बा और महंगा युद्ध साबित हुआ।


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