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बिहार का एक ऐसा अनोखा गाँव जहां हिन्दुओं के शवों को जलाया नहीं, दफनाया जाता है

बिहार का एक ऐसा अनोखा गाँव जहां हिन्दुओं के शवों को जलाया नहीं, दफनाया जाता है

बिहार के औरंगाबाद ज़िले में, एक संसा पंचायत है। संसा पंचायत के अंतर्गत एक गाँव आता है, जिसका नाम भुलेटन बिगहा है। वहां करीब एक दर्जन हिन्दू परिवार रहते हैं। वहां पर रह रहे किसी भी हिन्दू परिवार के किसी भी सदस्य की मृत्यु होती है तो उनका अंतिम संस्कार जलाकर कर नहीं किया जाता है बल्कि दफना कर किया जाता है। 

जो सक्षम परिवार होता है, वह पक्की कब्र बनाता है, जो परिवार कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले होते हैं, वे दफना देते हैं। मुझे आपको बता दूं कि वहां के स्थानीय निवासी ऐसा क्यों करते हैं? वहां के निवासी नागा नट इस प्रश्न के जवाब में बताते हैं कि यह हमारी खानदानी परंपरा है। उनका यह खानदानी रिवाज है इसलिए वो भी पीढ़ियों से ऐसा ही करते आ रहे हैं। उन्होंने आगे बताया कि उनके पिता, दादा और दादा के दादा की भी यहां कब्र बनी हुई है। वे यह भी कहते हैं कि हम किसी के कहने से अपने रीति-रिवाज़ों में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं करेंगे।

यहां लोग कौन-कौन से त्यौहार मनाते हैं और अपना जीवनयापन कैसे करते हैं?  

यहां के स्थानीय निवासियों से बात करने के बाद मुझे पता चला कि वे लोग होली, दशहरा, रक्षाबंधन, आदि तमाम त्यौहार मनाते हैं। उन्होंने हमें यह भी बताया कि हम लोग ईद, मुहर्रम आदि त्यौहार नहीं मनाते हैं। यह लोग नट राठौर उपजाति से आते हैं। बिहार और भारत सरकार द्वारा जारी जातियों की वर्गीकरण सूची में इस नट जाति को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल किया गया है। नट जाति का काम मुख्य रूप से खिलौने बेचना होता है।

यहां के लोग कलकत्ता से खिलौना खरीद कर कम दाम में लाते है और उसको यहां पर बेचते हैं। यहां बहुत सारे लोग भिक्षावृति करके भी अपना जीवनयापन करते हैं। इनका पूरा परिवार किसी तरह झोपड़ी में अपने परिवार की गुज़र-बसर करते हैं और ना तो इनको सरकार से किसी भी प्रकार की कोई मदद मिलती है और ना ही समाज के कोई अन्य वर्ग के लोग इन लोगों की किसी प्रकार की सहायता करते हैं। 

रेपुरा निवासी शिक्षक अंबुज कुमार बताते हैं कि इस जाति में आदिमानव जैसे रीति-रिवाज़ देखने को मिलते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ये हिन्दू होते हुए भी अपने परिवार के सदस्यों के शवों को दफन करते हैं। इसके बारे में आम जनमानस एक अनुमान लगाते हैं कि इनके पूर्वजों के पास पहले शव को जलाने के लिए लकड़ी और अन्य सामग्री के पैसे नहीं होते होंगे और वे मृत्यु होने पर शव को जलाने के बजाय दफन करते होंगे। इसके बाद ये लोग भी अपने पूर्वजों के इन्हीं रीति-रिवाज़ों को मानते हैं।

वहां के एक स्थानीय निवासी विरजू राठौर, जो कि यहां के इन समुदायों के लोगों की मृत्यु होने के बाद उन लोगों के लिए कब्र बनाते हैं। उन्होंने मुझे वहां बहुत सारी हिन्दू कब्र दिखाईं, जिनमें से अधिकांश कच्ची तथा कुछ पक्की कब्रें थीं। इन लोगों को ना तो शिक्षा की सुविधा मिलती है, ना ही स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई सुविधाएं, ना ही किसी प्रकार की घरेलू सुविधा अगर हम सरकार की बात करें तो बिहार के नेताओं को यह सब नहीं दिखाई देता है। यहां जितने भी इस जाति के लोग रहते हैं। वहां के बच्चों को मूलभूत आधारभूत सुविधाएं नहीं मिलने के कारण वे अन्य असामाजिक कार्यों में संलिप्त हो जाते हैं।

इस समुदाय के वैवाहिक रीति-रिवाज़ कैसे होते हैं?

हालांकि, इस समुदाय के लोग विवाह हिन्दू धर्म की रीति-रिवाज़ों के अनुसार ही करते हैं पर इनमें विवाह करने का तरीका थोड़ा अलग है। अब आप देखते होंगे कि जब हिन्दू धर्म में किसी का विवाह होता है तो एक पंडित होते हैं, जो की वर-वधू का विवाह करवाते हैं। अभी भी वर पक्ष वाले वधू पक्ष वालों से तिलक के नाम पर दहेज़ लेते हैं। 

लेकिन, यहां पर यह काम उल्टा होता है। इनकी शादी में ना तो पंडित होते हैं और ना ही वधू पक्ष वालों से तिलक लिया जाता है बल्कि वर पक्ष वाले ही वधू पक्ष वालों को उल्टा 10 से 20 हज़ार तक रुपये देते हैं, ताकि वधू पक्ष  वाले वर पक्ष के लोगों को मांसाहारी भोजन करा सकें।

इन लोगों की शादी में ज़्यादातर मांसाहारी ही भोजन चलता है और इनके यहां बाल विवाह की प्रथा नहीं हैं। इन लोगों में भी 18 से 19 साल में शादी कर दी जाती है। इस जाति के लोगों की शादी में ना ही कोई मुहूर्त देखा जाता है और ना ही कोई कुंडली देखी जाती है बस दोनों परिवारों को लड़का-लड़की पसंद आ जाएं तो शादी करवा दी जाती है।

इनको यहां तो लड़के वाले ही उल्टे लड़की वालों को पैसे देते हैं। इसे देख कर अगर कोई बोलता है कि आप तो लड़की बेच दिए तो इस बात पर वह भड़क जाते हैं और बोलते हैं कि आप खरीदते होंगे लड़का। हमारे यहां ना तो लड़का बेचा जाता और ना ही लड़की। 10 से 20 हज़ार रुपये लड़के वालों से इसलिए लिए जाते हैं, ताकि उन लोगों को मांसाहारी भोजन करा सकें नहीं तो हमारे यहां बिन पैसे का ही विवाह होता है। 

मैं मानता हूं कि ये लोग कम पढ़े-लिखे हैं लेकिन इनके पास दहेज़ को लेकर यह जो सोच है कमाल की है। जो मुझे सब से अच्छी लगी, जिस दिन भारत में तिलक प्रथा खत्म हो जाएगी उस दिन किसी बाप के लिए अपनी बेटी बोझ नहीं लगेगी। अभी भी समाज में ऐसे बहुत सारे घर-परिवार हैं, जो कि बेटी के जन्म होने पर दुख प्रकट करते हैं जैसे उनके ऊपर कोई दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो बेटी को जन्म के बाद उसको हॉस्पिटल में ही छोड़ देते हैं। वहीं अगर बेटा हो जाए तो खुशी से चारों ओर मिठाई बांटते हैं। हमारे समाज में इतनी दोहरी मानसिकता क्यों है?

मैं बिहार सरकार से कहना चाहता हूं कि वह इन सभी उपजाति के लोगों की मदद करे। यह लोग कम पढ़े-लिखे होते हैं और इनकी बात कोई नहीं सुनता है। मैं बिहार सरकार से विनती करता हूं कि वह इनकी मदद करे और-तो-और इनको अभी तक सरकार से ना तो कोरोनाकाल में कोई अनाज मिला ना ही किसी भी प्रकार की कोई मदद मिली है।
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