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“कक्षा में लड़के-लड़कियों के बीच भेदभाव करने वाले लोग हमें संविधान पढ़ाते थे”

समाज में व्याप्त असमानता की जो परछाई है, वह मैंने बचपन से देखी है। मैं यह सोचती हूं कि हम एक ऐसे माहौल में बड़े हो रहे हैं, जहां लड़का और लड़की के बीच का भेद हमारे अंदर जमकर भरा जा रहा है, यह कब खत्म होगा?

घर, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, मंदिर या कोई भी स्थान हो, हम इस भेदभाव से बच नहीं पाए हैं। यह बेहद दुःख की बात है कि 21वीं सदी में भी हम इन कुरीतियों के साथ जी रहे हैं। आज हम बड़े से बड़े संस्थान में पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन पितृसत्तात्मक सोच आज भी हमारे दिल और दिमाग में बैठी है।

इस विषय पर जब मैंने अपने मित्र फरहान से बात की तो उसने कहा, “इसे समझने के लिए ज़्यादा बाहर जाने की ज़रुरत नहीं है। मेरे ही विश्वविद्यालय की कैंटीन में कई लोग जब एक लड़का और लड़की को साथ में बैठकर बातें करते देखते हैं, तो उनके देखने के नज़रिये का फर्क हमारे समाज में व्याप्त उस मानसिकता को दर्शाता है, जो लिंग भेद के नाम पर आज भी हमारे समाज का एक बहुत ही अहम हिस्सा है। यह हिस्सा कैंसर की बीमारी की तरह है, जिसे अपने शरीर से अलग करना या कहूं कि हमारे समाज रूपी शरीर से अलग करना बहुत ज़रूरी है।”

कब स्कूल की प्रार्थना सभा में लड़का और लड़की की कतार एक होगी? यह महज़ एक सवाल नहीं है, यह एक बहुत ही बड़ी और पुरानी सामाजिक कुरीति है, जिससे हमारा समाज आज भी पूरी तरह से ग्रसित है।

11वीं कक्षा की पढ़ाई मैंने अपने गाँव से 6 किलोमीटर दूर स्थित सरकारी स्कूल में की। वहां मुझे चौंकाने वाली शिक्षा व्यवस्था देखने को मिली। लड़का और लड़की की कक्षाएं अलग-अलग होती थीं। यह कैसी शिक्षा प्रणाली थी, जहां ज्ञान को भी लड़का और लड़की में बांट दिया जाता था। ऐसे माहौल में पढ़ना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा था, जहां मैं ना तो लड़कों से बात कर सकती थी, ना उनके साथ खेल सकती थी और ना ही उनके साथ पढ़ सकती थी। यह सब तय करने वाले उस संस्था के लोग हमें संविधान पढ़ा रहे थे।

इस समाज और देश को समझना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया है। जहां एक तरफ हम तालिबान की शिक्षा व्यवस्था पर गुस्सा हैं कि लड़का और लड़की के बीच पर्दा लगाकर पढ़ाई क्यों हो रही है वहां? वहीं दूसरी ओर हमारे देश में भी तो यही हो रहा है! स्कूल की प्रार्थना सभा हो या कक्षा, लड़का और लड़की को अलग बैठाया जाता है। तो हम अपनी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल क्यों नहीं उठाते?

ये तो वही बात हुई-

“उन्हें नज़र भी आए तो सिर्फ़ ऐब मेरे

ख़ुद के क़िरदार में झांके तो मालूम हो कितने अच्छे हैं हम।”

आगे की पढ़ाई के लिए जब मैं शहर आई तो मुझे नसीहतें दी गईं कि लड़कों से दूर रहना, मुझे कई बार लगता था कि कहीं लड़कों में बुरी आत्मा तो नहीं है, हर कोई इनसे दूर रहने को कहता है।

हम लड़कियों को शुरू से सिखाया जाता है-

मेरा एक सीधा सा सवाल हर उस घर से है, जो कहता है, “तू लड़की है, तो तुझे हमारी इज़्ज़त का ध्यान रखना होगा।” क्या लड़का आपकी इज़्ज़त नहीं है? एक लड़की के मत्थे ही क्यों डाल दी सारी इज़्ज़त?

मैं लड़की हूं, तुम्हारी इज़्ज़त की गुलाम नहीं, मैं लड़की हूं, तुम्हारी कोई वस्तु या सामान नहीं, जब मन आया इज़्ज़त बनाया और जब मन आया बेइज़्ज़त करवाया। आज़ादी सिर्फ तुम्हारा ही हक नहीं, मेरा भी है। ये आज़ादी है, लड़का या लड़की नहीं, फिर तुम कौन होते हो मुझे गुलाम बनाने वाले?

मैं अपने मन की करती हूं, इसलिए सबकी नज़रों में खटकती हूं मगर क्या करूं तुम्हारी नज़रों में खटकना मेरी आदत बन गई है। मैं जीती हूं सबके लिए, मैं लड़ती हूं हर हक के लिए, मैं डरती हूं उन लोगो के लिए, जो ये समझते हैं क्या कर लेगी लड़की ही तो है!

मैं जीना जानती हूं, मैं आज़ादी जानती हूं, मैं अपने कर्तव्य जानती हूं, मैं अपने अधिकार भी जानती हूं। फिर कौन कहता है मैं खुद को नहीं जानती हूं?

समाज को लेकर एक लड़की की सोच कहां तक विकसित है, यह समझना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। एक कहावत है, “जब एक लड़का पढ़ता है, तो वो अकेला ही पढ़ता है, जब एक लड़की पढ़ती है, तो एक साथ दो परिवारों को पढ़ाती है।” एक लड़की का पढ़ना बहुत ज़रूरी है और देश की आर्थिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, सामाजिक मुद्दों पर उसकी समझ उतनी ही ज़रूरी है, जितनी भूख को भोजन की।

मुझे यह कहते हुए दुःख हो रहा है कि पढ़ने-लिखने के बाद भी वे अपने हक के लिए आवाज़ नहीं उठाती हैं और अपना स्थान उसी रूप में देखती हैं, जो समाज और हमने लड़कियों को दिया है। वो नहीं, जो देश का संविधान उन्हें दे रहा है, वे अपने नागरिक और सामाजिक अधिकारों से आज भी कितनी अनजान हैं।

मेरी कक्षा में जितनी भी लड़कियां थीं, मैंने उन्हें कभी हमारे क्लासमेट लड़कों के साथ फन, मस्ती, तर्क-वितर्क, घूमना- फिरना करते हुए नहीं देखा। सिर्फ क्लास ही नहीं, पूरे विश्वविद्यालय में नहीं देखा। उन्हें लगता था कि सारे लड़के बेकार हैं, ना तो वे कभी लड़कों के साथ बैठकर पढ़ती थीं। उन्होंने अपने आप को लड़की कहकर सबसे अलग कर दिया था। कुछ दिनों तक मैं खुद भी इन सबका हिस्सा रही।

आज़ादी की क्रांति से लेकर किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिक ऐतिहासिक रही है। जब-जब मंच  की कमान महिलाओं के हाथ में आई है, तब-तब एक नया इतिहास रचा गया है। फिर क्यों आज की नौजवान लड़कियां अपने आपको इतनी नाज़ुक बना रही हैं? आज ये रात को घूमना, पसंदीदा कपड़े पहनना, लड़कों के साथ दोस्ती करना आदि अधिकारों के लिए लड़ रही हैं लेकिन ये सारे अधिकार तो पहले से ही हैं। अगर नहीं मिल रहे, तो छीन लो। अधिकार मांगना है तो संपत्ति और नौकरी आदि का अधिकार मांगो।

सवाल करो इस खोखले समाज से कि किससे पूछकर आपने मुझमें अपनी सारी इज़्ज़त डाली? मैने तो हां नही कहा था, लड़कों में भी डाल देते तो शायद आज बलात्कार नहीं होते। क्यों शादी के बाद पति की मर्ज़ी ही सबकुछ है? क्यों देश की राजनीति में मेरी जगह कम है? सवालों का तब तक पीछा करो, जब तक तुम्हें जवाब ना मिले।


नोट: शिप्रा, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवंबर 2021 बैच की इंटर्न हैं।

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