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हिन्दी! हम यूपीएससी से आईआईएम तक कहीं नहीं

हिंदी, जो भारत की एक प्रमुख भाषा है, जिसे देश की लगभग आधी आबादी आम बोलचाल की भाषा में उपयोग करती है। वहीं, उत्तर भारत (यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तराखंड) के लगभग सभी राज्यों में यह एक शैक्षणिक भाषा भी है, जिसमें सभी उत्तर भारतीय राज्यों की 12वीं तक की पढ़ाई शामिल होती है।

ऐसे में मैट्रिक की पढ़ाई के बाद ही किसी विषय विशेष, जैसे- विज्ञान वर्ग को आगे की पढ़ाई के लिए जेईई  एवं नीट से गुज़रना पड़ता है।

इसके लिए कोटा और दिल्ली जैसे शहरों की ओर बच्चों को मोड़ दिया जाता है, जहां उनकी मुलाकात ऐसे महौल से होती है, जिसे वे सदिश एवं अदिश राशि कहते थे। उसे अब वेक्टर और नॉन वेक्टर बताया जाता है।

त्वरण को ‘Acceleration’ बताया जाता है। अब यही फिज़िक्स और केमिस्ट्री, जिसमें 12वीं तक वे खुद को वैज्ञानिक समझते थे, उसका अंग्रेज़ी माध्यम उनके लिए खुद में एक अलग विज्ञान बन जाता है। वहीं, ऊपर से उसे नसीहत दी जाती है कि अगर अंग्रेज़ी नहीं आती हो, तो कहीं कुछ नहीं होने वाला! जेईई, नीट तो बहुत दूर कि बात हैं।

और ऐसा नहीं है कि यह एक भ्रम मात्र है, बल्कि यह व्यवहार में भी उपस्थित है। आप जिस भी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, वास्तव में उसके अच्छे समाधान (Material And Sources) आपको अंग्रेज़ी माध्यम में ही मिलेंगे।

अब यहीं से एक क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से पढ़ाई करने वाले को अंग्रेज़ी, विलेन लगने लगती है या फिर उसका वो स्कूल, जिसमें उसने 12 वर्ष दिए।

क्या अरस्तु को एरिस्टोटल बोलना ही ज़रूरी है?

वहीं, ये समस्या सिर्फ जेईई और नीट वालों की ही नहीं, बल्कि मानविकी (Humanities) वालों के लिए भी है, क्योंकि पहले वे जिसे अरस्तु पढ़ते थे, केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पहुंचकर वही एरिसटोटल हो गए हैं और जब स्टूडेंट्स इस विषय में पूछते हैं, तो उनको कहा जाता है अब अंग्रेज़ी में पढ़ना सीखो।

मगर अध्यापक को यह नहीं पता होता है कि उनको जितनी समस्या हिंदी बोलने में है, उससे कई गुना ज़्यादा बड़ी समस्या एक हिंदी माध्यम वाले को अंग्रेज़ी समझने में होती है, क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ना मात्र नहीं है, बल्कि समझना भी है।

अब  ‘राज्य की संकल्पना’ को ‘Concept Of State’ के रूप मे समझना पड़ेगा और समस्या यही मात्र नहीं है। इस विषय में मैंने जब अपने कई दोस्तों से बात की तो उन्होंने बताया कि कई शिक्षक ऐसे हैं, जो हिंदी बोल भी नहीं पाते और वे अंग्रेज़ी भी इस गति से बोलते हैं, मानो कोई अंग्रेज़ी की टेक्स्ट बुक पढ़ रहे हैं। जैसे- एक शब्द है अराजकता, उसे अंग्रेज़ी में ‘Anarchism’ कहते हैं।

सर ने इसे समझाया ज़रूर लेकिन ‘Absence of state’ बोलकर और उनको लगता है कि मैंने तो अच्छे से समझाया लेकिन उनको महसूस नहीं होता कि जिन्हें ‘Anarchism’ ही नहीं समझ आया, वे ‘Absence Of State’ कैसे समझेंगे?

इसके बाद वो आगे बढ़ जाते  हैं, उनका मुख्य फोकस पाठ्यक्रम को समाप्त करना होता है, (ऐसा हर अध्यापक नहीं करते) जो क्षेत्रीय भाषा से पढ़कर आए स्टूडेंट्स के लिए मधुमेह में चीनी युक्त चाय का कार्य करता है।

वहीं, कुछ अध्यापक प्रयास भी करते हैं इस समस्या को कम करने की लेकिन वही बात आती है कि एक अंग्रेज़ी वाले लड़के को ‘समकालीन’, जिसकी अंग्रेज़ी ‘Contemporary’ होती है, उसे यह समकालीन, प्राचीन लगने लगता है।

निजी कंपनियां भी साक्षात्कार के समय अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देती हैं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

धीरे-धीरे हिंदी माध्यम वालों को लगने लगता है कि हिंदी वालों के लिए एकेडमिक में कोई जगह ही नहीं है, जिसमें यूपीएससी, जूडिशरी, एनडीए, सीडीएस, आईआईएम के आने वाले परिणामों का बहुत अधिक योगदान रहता है, जिनमें सभी अव्वल स्टूडेंट्स लगभग अंग्रेज़ी माध्यम के होते हैं।

यहां तक कि निजी कंपनियां भी साक्षात्कार के समय अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देती हैं, जिसका डर एक हिंदी माध्यम के स्टूडेंट को पहले सत्र से ही परेशान करने लगता है।

इन सभी विषम परिस्थितियों के बावजूद हिंदी माध्यम वाले के पास एक ही विकल्प बचता है, या तो वे अंग्रेज़ी सीखना आरंभ कर दें या हिंदी को ही पकड़कर अपने भविष्य की संभावनाओं को सिकोड़ लें।

जब मैंने शिक्षक को अपनी समस्या बताई

हमारी क्लास में हमारे राजनीति विज्ञान के सर से मैंने इस समस्या के बारे में बात की, तो उन्होंने भी कुछ समस्या बताई। जैसे- उन्होंने कहा यदि क्लासेज़ ऑफलाइन होतीं, तो इस पर कार्य अवश्य होता लेकिन बात सामाप्त होते-होते उन्होंने भी कहा, “मैं भी हिंदी माध्यम से था और मैने भी इस समस्या का सामना किया था लेकिन क्या करता आगे बढ़ने के लिए खुद को बदलना पड़ा।”

उन्होंने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी कि मैं एक शिक्षक हूं, मुझे हिंदी नहीं आएगी तो चलेगा लेकिन अगर मुझे अंग्रेज़ी नहीं आएगी, तो क्लास में अंग्रे़ी माध्यम वाले बच्चों के सामने मुझे शर्मिंदा महसूस करना होगा।

‘मुझे हिन्दी से कोई फर्क नहीं पड़ता’

वहीं, उन्होंने आगे कहा कि यही बात हिंदी वालों के सामने मैं बोल देता हूं कि मुझे हिंदी में थोड़ी समस्या है और इतना बोलकर मैं आगे बढ़ जाता हूं, इससे मुझे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता है। हां, इतना ज़रूर सोचता हूं कि हिंदी या किसी क्षेत्रीय भाषीय विधार्थी की इस समस्या का समाधान होना आवश्यक है।

अंततः उन्होंने भी यही संकेत दिया कि अंग्रेज़ी माध्यम को अपना लो। मेरा मानना है कि अंग्रेज़ी सीखने या समझने में कोई बुराई नहीं है। अवश्य जानना चाहिए मगर किसी भी स्तर पर, चाहे विश्वविद्यालय हो या और कोई भी संस्थान अथवा समाज, हम किसी क्षेत्रीय भाषा को अनदेखा नहीं कर सकते।

शिक्षा नीति में बदलाव इस सोच को बदल सकता है

प्रतीकात्मक तस्वीर।

इस समस्या का समाधान सरकार, शिक्षा नीति में थोड़ा बदलाव करके कर सकती है। जैसे- नई  शिक्षा नीति 2020 में आरंभिक शिक्षा को क्षेत्रीय भाषा में कराने का प्रावधान है, जिससे कोई प्रभाव पड़ेगा अथवा नहीं, विवेचना का विषय है।

इसी क्रम में बीएचयू द्वारा एक कदम आगे बढ़ाया गया है, जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई अब हिंदी माध्यम में आरम्भ करने जा रहा है।

किंतु सारे प्रयासों के बावजूद, सामाजिक महत्व आज भी अंग्रेज़ी माध्यम को ही मिलता है, जिसका बड़ा उदाहरण यह है कि कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी माध्यम में ना पढ़ाकर, अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाने को प्राथमिकता देता है और खुद को गौरवान्वित महसूस भी करता है।

इसे एक और उदाहरण के ज़रिये समझा जा सकता है कि हमारे क्लास के हिंदी माध्यम के सभी स्टूडेंट्स, हिंदी अध्यापक की मांग के लिए संबंधित संकाय प्रमुख के पास एक आवेदन फॉर्म भरकर दे रहे हैं मगर बहुत सारे हिंदी के स्टूडेंट्स उस आवेदन को अपनी सहमति देने को राज़ी नहीं हैं! कारण, उनका मानना है कि ऐसा करने पर उन्हें कमज़ोर समझा जाने लगेगा।

इस पर मेरे एक दोस्त से मैंने हिन्दी दिवस के दिन काफी लम्बी चर्चा की। वो बात खत्म होते होते बोला, “कभी यह सोचकर मन छोटा मत करना कि अंग्रेज़ी नहीं आती, अंग्रेज़ों को भी कहां हिंदी आती है।” खैर, मैं जानता हूं व्यवहार और नैतिकता में हमेशा फर्क रहा है।


नोट: अनूप, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवंबर 2021 बैच के इंटर्न हैं।

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