Site icon Youth Ki Awaaz

गरीब दलित और आदिवासी बच्चों के लिए ऑनलाइन एजुकेशन के क्या मायने हैं?

भारत में स्कूल, कॉलेज और तमाम शैक्षणिक संस्थान अपने-अपने सत्र पूरे कर पाते, इससे पहले कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की वजह से उन्हें बंद कर दिया गया। सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी कि बच्चों की पढ़ाई को कैसे व्यवस्थित रखा जाए। इसके लिए केंद्र सरकार ने सभी राज्यों के लिए एडवाइज़री जारी की, जिसमें ऑनलाइन पढ़ाई का आदेश दिया गया।

कई शिक्षण संस्थानों में कक्षाएं जारी थीं और इम्तिहान लंबित थे। मिडिल और सेकेंडरी कक्षाओं को ऑनलाइन कराने के लिए ज़ूम जैसे विवादास्पद वेब प्लेटफॉर्मों का सहारा लिया गया। कहीं गूगल तो कहीं स्काइप के ज़रिये कक्षाएं हुईं। कहीं यूट्यूब पर ऑनलाइन सामग्री तैयार की गई, तो कहीं लेक्चर और कक्षा के वीडियो तैयार कर ऑनलाइन डाले गए और व्हाट्सएप्प के माध्यम से विद्यार्थियों के समूहों में भेजे गए।

इतना सब कुछ होने के बाद भी क्या आपको लगता  है कि ऑनलाइन पढ़ाई भारत में सबको नसीब हुई होगी? नहीं  बिलकुल नहीं, जिस देश में 10 साल की उम्र में बच्चों को बाल मज़दूरी में ढकेल दिया जाता है, वहां ऐसे सपने नहीं देखे जा सकते! नेताओं ने तमाम वादे किए, ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था भी हुई लेकिन ज़मीनी स्तर पर देश में शिक्षा का स्तर काफी चितांजनक है।

स्कूल चिल्ड्रन ऑनलाइन और ऑफलाइन लर्निंग की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महज़ 8 प्रतिशत बच्चे ही ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं, वहीं शहरी क्षेत्रों में 24 फीसदी। चलिए नज़र डालते हैं ऑनलाइन शिक्षा करने की चुनौती और कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओ पर।

अप्रशिक्षित शिक्षक

ऑनलाइन पढ़ाई में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पढ़ाने वाले अधिकतर फैकल्टी के सदस्यों को इसके लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया है और इसलिए वे ऑनलाइन कक्षाएं चलाने के लिए तैयार नहीं हैं। पूरी तरह से ऑनलाइन कोर्स की योजना बनाने और इसकी तैयारी के लिए छह से नौ महीने लग सकते हैं।

इन्हें कोविड-19 महामारी के दौरान कुछ हफ़्तों में ही तैयार नहीं किया जा सकता। ऑनलाइन शिक्षा को अपनाने की पहल करने वाले संस्थानों और फैकल्टी के सदस्यों को अपने सहकर्मियों को इसे अपनाने में काफी मदद करने की ज़रूरत होगी। फिर चाहे वे अपने ही संस्थान हों या शिक्षण समुदाय के अन्य सदस्य हों। उन्हें तकनीक के महारथी टीचिंग सहायकों के माध्यम से मदद दी जानी चाहिए।

अभी तक भारत ने इस विकल्प को नहीं अपनाया है। जबकि विदेशों के विश्वविद्यालयों में टीचिंग असिस्टेंट (TAs) का उपयोग व्यापक स्तर पर हो रहा है। ये शिक्षण सहयोगी, स्टूडेंट्स के लिए चैट रूम और सहकर्मियों से सीखने के सत्र भी आयोजित करते हैं, जो शिक्षा प्राप्त करने में बहुत लाभप्रद होते हैं।

ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान आने वाली समस्याएं

सरकार और शैक्षिक संथानों को लगता है कि सभी स्टूडेंट्स के पास मोबाइल और लैपटॉप होने के साथ-साथ एक अच्छी स्पीड का इंटरनेट भी होगा, जिसकी मदद से वे ऑनलाइन पढ़ाई कर सकते हैं मगर दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बात स्कूल के स्तर पर भी गलत है और उच्च शिक्षा के स्तर पर भी। स्कूलों में जहां स्थानीय समुदायों के ही स्टूडेंट्स आमतौर पर पढ़ाई करते हैं, वहीं उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स दूर-दराज़ से भी आते हैं। ये अलग-अलग राज्यों के स्टूडेंट्स भी हो सकते हैं और ग्रामीण इलाक़ों के रहने वाले भी हो सकते हैं।

ऐसे में, ऑनलाइन शिक्षा को लेकर अगर इसी आकलन पर कि सभी स्टूडेंट्स के पास इसके संसाधन होंगे, तो इसका बुरा प्रभाव लगभग सभी उच्च शिक्षण संस्थानों पर पड़ेगा, क्योंकि ज़्यादातर स्टूडेंट्स, जो लॉकडाउन के बाद अपने घर लौट गए, उनके पास इंटरनेट की पर्याप्त सुविधा नहीं थी। स्कूल चिल्ड्रेन ऑनलाइन और ऑफलाइन लर्निंग की रिपोर्ट बताती है कि कोविड में ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान-

नैशनल सैंपल सर्वे के शिक्षा से जुड़े 75वें चरण के आंकड़े बताते हैं कि देश में केवल 24 प्रतिशत घरों में ही इंटरनेट की सुविधा है। इनमें से 42 फीसद शहरी क्षेत्रों में हैं, तो ग्रामीण क्षेत्रों के केवल 15 प्रतिशत घरों में इंटरनेट की सुविधा है। इसके अलावा देश के केवल 11 फीसदी घरों में अपने कंप्यूटर हैं। हैदराबाद यूनिवर्सिटी के एक सर्वे के अनुसार, केवल 37 प्रतिशत स्टूडेंट्स ने कहा कि वे ऑनलाइन कक्षाएं ले सकते हैं। वहीं, 90 प्रतिशत स्टूडेंट्स ने क्लास में लेक्चर लेने को तरज़ीह देने की बात कही।

स्कूल चिल्ड्रन ऑनलाइन और ऑफलाइन द्वारा किए गए सर्व के अनुसार, ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों ने भी अपना अनुभव शेयर किया। उन्होंने बताया कि उनका भी कुछ अच्छा अनुभव नहीं रहा। यहां पर कुछ समस्याएं निकल कर आई हैं जैसे-

इतनी सारी समस्याएं होने के बावजूद क्या आपको लगता है कि भारत में ऑनलाइन पढ़ाई का एक सुनहरा भविष्य है? खैर, मुझे तो नहीं लगता! सरकार को जल्द-से-जल्द कोविड प्रोटकॉल को ध्यान में रखते हुए फिज़िकल रूप से पढ़ाई शुरू कर देनी चाहिए।

गरीब दलित और आदिवासी बच्चों का क्या?

अंक और योग्यता की दौड़ में गरीब दलित और आदिवासी बच्चे पहले से ही पीछे थे लेकिन आज के परिपेक्ष में जब शिक्षा ऑनलाइन हो गई है, तो यहां भी ये पीछे रह गए हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में दलित और आदिवासी बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में हालात बदतर हैं। इन दलित परिवारों के पास खाना खाने तक के पैसे नहीं हैं, तो आखिर ये कैसे एक मोबाइल और लेपटॉप का इंतजाम कर सकते हैं?

स्कूल चिल्ड्रन ऑनलाइन और ऑफलाइन सर्वे रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण अनुसूचित/जाति अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के केवल 4 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं।

सर्वेक्षण के दौरान जब पाठ पढ़ने के लिए बोला गया तो वे कुछ अक्षरों से आगे नहीं पढ़ सके। सर्वेक्षण से पता चलता है कि 55 प्रतिशत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के बच्चे बिना स्मार्टफोन के रह रहे हैं, जबकि अन्य के लिए यह आंकड़ा 38 प्रतिशत है।

ग्रामीण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के माता-पिता में से 98 प्रतिशत चाहते थे कि स्कूल जल्द-से-जल्द फिर से खुल जाएं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अंक और योग्यता की ऑनलाइन दौड़ में भी दलित और आदिवासी परिवारों के बच्चे बहुत पीछे छूट गए।

भारत में ऑनलाइन शिक्षा तभी कारगर होगी, जब देश में इन बिंदुओं पर काम किया जाएगा। जब ग्रामीण क्षेत्रों को अच्छी ब्रॉडबैंड सेवा से जोड़ा जाएगा। सरकार को ज़मीनी स्तर पर जाकर देखना चाहिए कि असल में शिक्षा की स्थिति क्या है?

वैसे क्लासरूम शिक्षा का विलोप भारत जैसे देश में संभव नहीं है, ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षा का ऐसा एक समन्वयकारी और समावेशी ढांचा बनाया जाए, जिसमें डिजिटल शिक्षा पारंपरिक शिक्षा पद्धति का मखौल ना उड़ाती लगे और ना पारंपरिक शिक्षा, डिजिटल लर्निंग के नवाचार को बाधित करने की कोशिश करे।


सोर्स लिंक- https://bit.ly/39V9sza, Locked Out: Emergency Report On School Education

Exit mobile version