Site icon Youth Ki Awaaz

“स्टूडेंट्स के मुद्दों को उठाने से क्यों कतराती है राजस्थान विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति?”

"लोकतंत्र में वंचित वर्गों के अधिकारों को जीवित रखने के लिए छात्र राजनीति को जीवित रखना ज़रूरी है"

राजनीति की समझ सभी नागरिकों के लिए बेहद ज़रूरी है, क्योंकि राजनीति हमारे जीवन को प्रभावित करती है। राजनीतिक होना आपकी हर उस बातचीत और काम से नहीं जुड़ा है, जो सरकार से संबंधित है, बल्कि यह आपके सम्पूर्ण जीवन से संबंधित है। प्रत्येक व्यक्ति को इतनी समझ होनी चाहिए कि उसे क्या, क्यों और किस लिए मिल रहा है?

आंदोलन छात्र राजनीति की ऊर्जा रहे हैं

भारत में विश्वविद्यालय के स्टूडेंट्स का राजनीति में एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसका उदाहरण हम जेपी आंदोलन से ले सकते हैं। देश और समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं के कारण जेपी की ‘संपूर्ण क्रांति’ ने  हज़ारों स्टूडेंट्स को प्रेरित किया था

इसके अलावा अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, उस्मानिया विश्वविद्यालय आंदोलन में स्टूडेंट्स की भूमिका हो या जेएनयू के स्टूडेंट्स का प्रदर्शन! हम सब देख चुके हैं कि स्टूडेंट्स एकता और आंदोलनों ने हमेशा ही किस तरह सत्ता को चुनौती दी है। छात्र राजनीति से निकले नेताओं ने देश की राजनीति में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई है।

लेकिन अब छात्र राजनीति में शामिल होने वाले स्टूडेंट्स वर्तमान भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका में नहीं आ पाते और मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स में उनकी भूमिका ना के बराबर रह गई है। धीरे-धीरे इनका वजूद खत्म होता नज़र आ रहा है, आखिर इसकी वजह क्या है?

राजस्थान विश्वविद्यालय के कुछ स्टूडेंट्स से बातचीत

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

इस सवाल पर हमने राजस्थान विश्वविद्यालय के कुछ स्टूडेंट्स से बात की। सज्जन कुमार ने कहा, “उन्हें मुद्दों की समझ नहीं है और आर्थिक स्थिति भी इसका एक कारण है।”

फरहान कहते हैं, छात्र नेता सिर्फ कॉलेज तक ही सीमित रहते हैं और आज तक वे कॉलेज के मुद्दे ही पूरे नहीं कर पाए हैं, इसलिए उनसे उम्मीद कम हो जाती हैं।”

मनीषा चारण कहती हैं, “इसका एक कारण यह भी है कि छात्र नेता राजनीतिक दलों के लिए काम करने लगे हैं, स्टूडेंट्स से उनका वास्ता नहीं है। कैंपस में कम मंत्री के साथ फोटो ज़्यादा हैं उनकी।”

वहीं अनामिका कहती हैं, “इसकी एक वजह यह भी है कि छात्र राजनीति में जाति, धर्म और क्षेत्रीय पहचान को प्रमुखता दी जाने लगी है।”

विरेंद्र सिंह कुलदीप कहते हैं, “राजनीति में शामिल होना आज इनके लिए ग्लैमर बन गया है, पैसा और नाम के लालच में राजनीति की जो मुख्यधारा है और जनहित के कार्य हैं, उनको पीछे छोड़ दिया गया  है और अपने हित को सबसे ऊपर रखा जाने लगा है।”

दिग्वेंद्र सिंह कहते हैं, “वजह सबसे बड़ी यही है कि आजकल के स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स में कदम तो रखते हैं लेकिन उनको मुद्दो से ज़्यादा कैमरा और सोशल प्लेटफार्म पर दिखना पसंद आता है और मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स में उनकी भूमिका ना के बराबर होने का एक कारण यह भी है कि उनके पास ज्ञान की कमी होती है, जिसको संविधान का पता ना हो वो राजनेता कैसे बन सकता है?”

आम विद्यार्थियों से बात करने के बाद लगा कि एक विद्यार्थी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक रूप से मज़बूत नेता चाहता है, जो भविष्य में एक ज़िम्मेदार नेता बनकर देश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाए।

दिग्वेंद्र सिंह आगे कहते हैं, “आज के समय में छात्र नेता सिर्फ अपने स्वभाव के लिए प्रोटेस्ट में जाना पसंद करते हैं। जैसे- राजस्थान विश्वविद्यालय की बात लें तो जनसंचार विभाग को जब बंद करने की बात आती है, तो कई नेतागण इकट्ठे हो जाते हैं और बंद ना होने के लिए धरने देते हैं लेकिन फैक्ट यह है कि विभाग में कितने स्टूडेंट्स हैं, यह सिर्फ छात्र संघ चुनाव तक याद रहता है, उसके बाद कोई पूछता भी नहीं कि ऐसा कोई डिपार्टमेंट भी है यूनिवर्सिटी में।”

क्यों राजनीति में कोई मुद्दा तलाश नहीं पा रहे हैं स्टूडेंट्स?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र के लिए यह एक अफसोस की बात है कि आज के युवा नेता उम्मीदों पर खड़े नहीं उतर रहे हैं। उनके पास बात करने को ना तो कोई मुद्दा है और ना ही स्टूडेंट्स उनसे कोई सवाल कर रहे हैं।

पिछले कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि आज विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति सिर्फ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के साथ काम कर रही है। इन सबके कारण दलित, बहुजन, आदिवासी स्टूडेंट्स को टिकट नहीं मिल पाता है। एबीवीपी और एनएसयूआई के उम्मीदवारों को ही टिकट मिलता है।

विश्वविद्यालय, शिक्षा के मंदिर से राजनीति में परिवर्तन हो रहा है। शिक्षा से अधिक राजनीति को तवज्जो दी जाने लगी है। स्टूडेंट्स के साथ टीचर्स भी इस राजनीति का हिस्सा होते हैं। विश्वविद्यालय के चुनाव में इतना पैसा खर्च किया जाता है, ऐसा लगता है जैसे लोकसभा व विधानसभा के चुनाव हो रहे हों। इस पर लगाम रखने वाला सिस्टम कुर्सी पर बैठकर तमाशा देखते रहता है।

सज्जन कुमार कहते हैं, “प्रशासन का लचीलापन हमें साफ-साफ दिखाई देता है। लिंग्दोह समिति ने नियम तो लागू कर दिए मगर प्रशासन काम नहीं करता। प्रशासन स्टूडेंट्स को ओपन डिबेट की अनुमति नहीं देता, उनके मेनिफेस्टो तो जारी कर देता है लेकिन पूरे सालभर उस पर चर्चा नही होती है। चुनाव के बाद छात्र नेता व स्टूडेंट्स के मध्य कोई कम्यूनिकेशन नहीं होता है, क्योंकि वो कैंपस में आते ही नहीं हैं, ना ही इन पर किसी तरह की कार्रवाई होती है।”

वहीं, कुछ स्टूडेंट्स विश्वविद्यालय में चुनाव व वोट देने के लिए दाखिला लेते हैं, पढ़ाई से उनका कोई नाता नहीं होता है और वे उन लोगों की सीट छीन लेते हैं, जो मेहनत कर पढ़ने के लिए एंट्रेंस एग्ज़ाम देते हैं और मज़े की बात यह है कि विश्विद्यालय का प्रशासन ऐसा होने देता है।

तभी आज विश्व के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में हमारे किसी भी विश्वविद्यालय का नाम नहीं है, इससे बड़ा चिंता का विषय और क्या होगा हमारे लिए? छात्र राजनीति ज़रूरी है, यह समझ विकसित करना ज़रूरी है कि दुनिया कैसे काम करती है।

आपको अपनी राजनीति समझनी होगी कि दुनिया में सत्ता के सापेक्ष में आप कहां खड़े हैं और आपको क्या करना है, समझ होना बेहद ज़रूरी है और सही तरह से की जाए तो इसकी शुरुआत छात्र राजनीति और शिक्षा से होती है।


नोट: शिप्रा, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवंबर 2021 बैच की इंटर्न हैं।

Exit mobile version