अब तालिबान आ चुका है, तो इस मुसीबत का क्या करें? क्या हम इनको टीवी और फेसबुक पर गाली देकर अपनी भड़ास निकालें। क्या हम इनके बहाने अपने देश के मुसलमानों को निशाने पर ले लें या फिर असल राजनीति के रास्ते पर चलें।
सरकार वैसे भी बैक चैनल से तालिबान से महीनों से बात कर ही रही है। सरकार जानती है कि तालिबान को इस बार नकारना विदेश नीति के तहत शायद सही नहीं होगा। एक बार भारत पहले भी ये गलती उस वक्त कर चुका है, जब पहली बार तालिबान ने अपनी जेहादी सरकार बनाई थी। उस वक्त रुस से अपनी दोस्ती का दम भरने के चक्कर में हमने तालिबान को मान्यता नहीं दी थी। अब तो हमारा दोस्त रुस भी तालिबान के साइड आ गया है। चीन और पाकिस्तान तो उसके साथ हैं ही ज़ल्द ही दुनिया के और भी देश तालिबान को मान्यता देंगे।
ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? जिस अमेरिका के विश्वास पर भारत ने अपने 3 बिलियन डॉलर अफगानिस्तान में लुटा दिए उसके भार से भारत कैसे मुक्त हो? पहले से ही पैंडेमिक ने हमारी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से तहस-नहस कर रखा है। ऐसे में हमारे देश के नागरिकों के पैसों के डूब जाने से भारत सरकार की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ना तय है।
विदेश नीति के नज़रिए से दूर बैठे अमेरिकी दोस्तों पर भरोसा करने से बेहतर है अपने पास बैठे शत्रुओं की लिस्ट को कम किया जाए। तालिबान ने कहा है कि भारत अपने विकास कार्यों को अफगानिस्तान में जारी रख सकता है। मेरी समझ से भारत को आज वही नीति अपनानी चाहिए, जो कभी गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दौरान अपनाया करता था, ना तो रुस और ना ही अमेरिका की साइड में जाकर स्वतंत्र रिश्तों को बनाने की नीति को अपनाना चाहिए।
तालिबान वहां की औरतों और बच्चों के साथ क्या करेगा और क्या करने जा रहा है? इन विमर्शों को पहले ताक पर रख कर हमें एक प्रैक्टिकल सोच के साथ काम करने की सख्त ज़रूरत है। पांडव जानते थे कि दुर्योधन घटिया आदमी है, फिर भी उसके पास कृष्ण शांति दूत बन कर गए। रावण एक राक्षस था, उसने श्रीराम की पत्नी माता जानकी का अपहरण किया था, लेकिन श्रीराम व्यवहारिक राजनीति को जानते थे और इसलिए ही उन्होंने अंगद को अपना शांतिदूत बना कर रावण के पास शांति प्रस्ताव भेजा था।
भारत की सीमाएं आजकल वैसे भी चीन और पाकिस्तान की वजह से खतरे में हैं। ऐसे में रुस, चीन, पाकिस्तान और तालिबान के एक साथ आने से हमारे देश की सीमाओं पर खतरा बढ़ेगा और मेरा मानना है कि भारत को तालिबान के साथ बहुत ही धैर्य के साथ बात करनी ही चाहिए। तालिबानी मूलतः देवबंदी हैं।
तालिबानी मूलतः पख्तून हैं, वो पंजाबी पाकिस्तानी हुक्मरानों को पसंद नहीं करते हैं, लेकिन चूंकि भारत ने उनसे दूरियां बना ली, इसलिए वो मज़बूरी में पाकिस्तानी पंजाबी हुक्मरानों के साथ हैं। इसके साथ ही पाकिस्तान को डिस्टर्ब करने में भी ये पख्तून काम आ सकते हैं, क्योंकि लाखों पख्तून पाकिस्तान में रहते हैं। भारत तालिबान के सहारे इस इलाके पर ही डिस्टर्बेंस पैदा कर सकता है। अब इन जेहादी तालिबानियों के साथ बात करना मुश्किल, तो है लेकिन असल राजनीति यही होती है। अमेरिका ने भी तालिबानियों से बातचीत की ही ना फिर हम क्यों जज्बाती हो रहे हैं?
एक सर्द दिमाग के साथ तालिबानियों से ऐसे बातचीत की जानी चाहिए, जो भारत के हित में हो। कश्मीर में बड़ी मुश्किल से 370 हटाया गया है। ऐसे में कश्मीर की सुरक्षा और पड़ोस में दुश्मनों को कम करने के लिए भारत के पास और कोई नीति नहीं होनी चाहिए। तालिबानियों ने पहली बार की तरह ही इस बार भी भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। हमें कभी-कभी खुद को मज़बूत करने के लिए गुंडों और मवालियों से भी दोस्ती करनी पड़ती है।
जज्बात और सिद्धांतों का विदेश नीतियों में कोई स्थान नहीं होता, देशहित और देश की सुरक्षा से बढ कर कोई सिद्धांत नहीं है। जननीति नहीं बल्कि विदेश नीति के तहत भारत तालिबानियों को किसी तरह अपने पाले में करना ही चाहिए। मेरा पूरा विश्वास है कि सिर्फ भारत के लोग ही तालिबानियों को सभ्य बना सकते हैं। वो अगर आखिर में किसी पर विश्वास करेंगे, तो वो भारत ही है। भारत को इस मौके पर बहुत धैर्य के साथ काम करने की बहुत ज़रूरत है।
आखिर में एक बात ज़रूर याद रखिएगा, भारत में शक, कुषाण, हूण, यवन, मुगल सभी आक्रांता के रुप में ही आए थे। उन सभी ने हम पर जुल्म किया था, लेकिन ये भारतीय संस्कृति ही थी कि वो हमारे यहां आकर सभ्य बने और हमारी संस्कृति में घुलमिल गए। भारत को ऐसी ही समन्वयात्मक नीति से धीरे-धीरे तालिबानियों को सभ्य बनाना होगा। यह दुष्कर कार्य भारत ही कर सकता है, रुस, अमेरिका, चीन जैसे विकसित देश नहीं।