“जैसे-जैसे महाशक्ति बन रहा हिंदुस्तान, वैसे-वैसे आगे बढ़ रही है हिंदी” यह सत्य है, क्योंकि यह गूगल का अनुमान है और जिस गति से इंटरनेट पर हिंदी गतिशील हुई है, वह अपने आप में एक चमत्कार सा है। 2024 तक भारत में अंग्रेज़ी भाषा की तुलना में इंटरनेट पर हिन्दी इस्तेमाल करने वालों की संख्या कहीं अधिक होगी। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि घड़ी में डेढ़ बजे हैं या सवा चार, पिच्चासी की कोई चीज़ है उनतालीस की लेकिन बच्चों का मासूम दिमाग इन दो भाषाओं में उलझ जाता है और हम भी बच्चों को यह समझाने की कोशिश नहीं करते हैं। बच्चों को हिंदी या देशज भाषाओं के लिए हम स्कूलों पर ही सारा बोझ डालकर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं।
क्या अपनी राष्ट्रभाषा को लेकर हमारा यह व्यवहार सही है? क्या अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? इस स्थिति में क्या हमारी आने वाली पीढ़ियां दो भाषाओं के सामाजिक व्यवहार के बीच में उलझकर नहीं रह जाएगी? इस पर हमको एक जगह ठहरकर इस बारे में सोचने की ज़रूरत है, क्योंकि हमारी आने वाली पीढ़ियां ही तो हमारे देश की भावी नागरिक हैं। इसलिए हमें भाषाओं में नहीं उलझना है वरन हमारी पीढ़ियों के लिए दोनों भाषाओं का समुचित ज्ञान ही उनके साथ-साथ हमारे स्वयं के देश के विकास के लिए आवश्यक है।
भाषा कोई भी हो, उसको सीखना हमेशा हमारे व्यक्तित्व के विकास के लिए अच्छा रहता है। यह बात अंग्रेज़ी भाषा नहीं जानने या हिंदी पर अधिक ध्यान देने की नहीं है वरन यह अपनी मातृभाषा को ज़्यादा अहमियत देना, मातृभाषा को मान-सम्मान देना है, जो मौजूदा दौर के हमारे सामाजिक व्यवहार में हमारी मातृभाषा हिंदी के साथ समानता का नहीं है।
किसी भी देश की राष्ट्रभाषा, वहां की ज्ञान-चेतना के साथ-साथ चिंतन का भी मूल आधार होती है। हमारे देश में घर-परिवार, सामाजिक संस्थानों में, जहां देश की भावी पीढ़ी भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार होती है। वहां हिंदी हज़ारों उपेक्षाओं से घिरी हुई है। हमारी मातृभाषा अपने ही देश के घर-आंगन में बेगानी खड़ी है। आज हिंदी को इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी ने, जो गति दी है उसको अधिक गतिशील बनाने के लिए हर भारतीय परिवार को अपने घर में मातृभाषा को अधिक समुद्ध करना होगा। यह हमारी राष्ट्र्भाषा के प्रति अपनी देशभक्ति का पहला कदम होगा।
मुख्य है परिवार की ज़िम्मेदारी
आज माता-पिता या अभिभावक अपने व्यस्त दौड़ते-भागते जीवन के कारण सोचते हैं कि बच्चे हर चीज़ स्कूल में ही सीखेंगे। इस कारण अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने की प्रवृत्ति के कारण हिंदी कभी घर-परिवार की भाषा बन ही नहीं पाती है। इसके कारण बच्चों के लिए हिंदी मात्र एक विषय मात्र बनकर रह जाती है, जबकि हिंदी एक सभ्यता-संस्कृति के साथ जीती-जागती है वरन वह समय के साथ नए परिवेश में नए शब्दों को स्वीकार्य करती है और समय के साथ वह स्वयं सुगम और सहज होती चली जा रही है।
मसलन ना अस्पताल, ना ही मीडिया और ना ही रेलगाड़ी हिंदी भाषा के शब्द हैं पर नव-संस्कृति के साथ घुलते-मिलते हिंदी भाषा ने उसको सहर्ष स्वीकार्य कर लिया है। हमारी राष्ट्रभाषा को सम्मान दिलाने के लिए हमें केवल सरकारी या अन्य कुछ संस्थानों के प्रयासों पर निर्भर नहीं रहना होगा। देश के प्रत्येक नागरिक की भूमिका उसमें सबसे अहम है, जिस तरह परिवार में कोई बच्चा अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों का गलत उच्चारण भी करता है, तो घर-परिवार के लोग उसे टोक देते हैं। उसी तरह हिंदी के मामले में भी हमें ऐसी सर्तकता देखने को मिले तो मासूम बचपन बिना दिमागी उलझन के पौने तीन भी और सवा चार भी समझेंगे। हमारे छोटे-छोटे प्रयासों से बात बन सकती है।
भाषा के साथ हमारा भावनात्मक लगाव जरूरी है
शहरी-महानगरीय जीवन में अपनी भाषाओं के साथ हमारा भावनात्मक लगाव कम होता जा रहा है, इसको पुर्नजीवित करना बेहद ज़रूरी है। हमारी परवरिश के परिवेश में बच्चों को अपनी भाषा के साथ जोड़ने के लिए और उनमें भावनात्मक लगाव पैदा करने के लिए हमें कुछ छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है जैसे काऊ आई, कैट गई, देखो डॉग भौंक रहा है, आपने मैंगो खाया क्या आदि जैसे वाक्यों में अपनी भाषा के शब्दों का प्रयोग करके हम बच्चों को अपनी भाषा से जोड़ने की कोशिश कर सकते हैं।
बच्चों को पेड़-पौधे-फल की पहचान अपनी भाषा में करवा हम हिंदी भाषा को स्वीकार्यता दे सकते हैं, जब हम अंग्रेज़ी भाषा को अधिक महत्व देते हैं, तो साथ में हिंदी को उतना ही महत्व क्यों नहीं देते हैं? घरों में अगर हम सहज-सरल हिंदी भाषा का प्रयोग अंग्रेज़ी के साथ करें तो दोनों ही भाषाओं को समान महत्व मिलेगा। बच्चे भी दोनों भाषाओं के प्रति अपना लगाव महसूस करेंगे। इसमें हीनता की कोई बात नहीं है। हम किसी भाषा को दूसरी भाषा से कमतर ना बनाएं, जिससे हमारी भावी पीढ़ी, जो कल देश की नागरिक बनेगी अपनी भाषा के साथ-साथ दूसरी भाषाओं के प्रति नकारात्मक नज़रिया नहीं रखेगी।
भाषा स्वयं में ही एक संस्कृति है
भाषा स्वयं ही एक संस्कृति है, जो लोक व्यवहार में झूमती-इठलाती हुई हमारे लोकजीवन का हिस्सा बन जाती है। भाषा केवल विचार अभिव्यक्त करने का ही माध्यम नहीं होती वरन यह सांस्कृतिक परिवर्तन होते ही अपने आप में परिमार्जन और संवर्धन कर लेती है। मसलन कई शब्द ऐसे हैं, जो हिंदी भाषा में सांस्कृतिक परिवर्तन के कारण परिमार्जित हुए हैं।
मसलन अस्पताल, पंचलाइट, रेड़गाड़ी, तलाक जैसे शब्द नब्बे के दशक के बाद पत्रकारिता के नए रूप ने विभिन्न शब्दों को समाहित किया है। नव-संस्कृति में हिंदी भाषा नए भाव मसलन दिल मांगे मोर जैसे शब्दों के साथ स्वयं का सवंर्धन कर युवाओं के बीच भी अपनी जगह बना रही है। इंटरनेट, स्मार्ट फोन और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने हमारी हिंदी में नई जान फूंकी दी है। वर्तमान में विश्व के पटल पर हिंदी अपनी पहचान स्थापित कर एक नव-संस्कृति रच रही है।
हिंदी ना केवल हिंदुस्तान की भाषा है अपितु यह विश्व की भाषाओं में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसलिए बेहद ज़रूरी है कि हम देश की आने वाली पीढ़ियों को भी अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अन्य भाषाओं से भी जोड़ें। हिंदी बोलने और पढ़ने में, जब हमें शर्म नहीं आएगी तभी हमारी मातृभाषा हिन्दी को उचित सम्मान मिल सकेगा।