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गुजरात में नितिन पटेल जैसे प्रबल दावेदार को दरकिनार कर न्यूकमर पर दांव खेलने की केंद्रीय नेतृत्व की क्या रणनीति है?

गुजरात में नितिन पटेल को छोड़कर न्यूकमर पर दांव खेलने का क्या मतलब?

राजनीति में नए खिलाड़ियों पर दांव लगाना वैसा ही है जैसे टॉस के लिए आसमान में सिक्का उछालना और दोनों ही परिस्थितियों में हार-जीत की संभावना बराबर रहती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा हमेशा से प्रयोगवादी रही है और उसने नए लोगों को मौका दिया है, लेकिन नए लोगों के लिए संभावनाए पैदा करने का मतलब है पुराने लोगों की संभावनाओं का अंत करना। अब बस देखना यह है कि पुराने लोग शीर्ष नेतृत्व को किस हद तक नुकसान पहुंचा पाते हैं और नए लोग किस हद तक नुकसान रोक सकते हैं।

गुजरात में अप्रत्याशित रूप से मुख्यमंत्री का बदलाव अपने आप में एक गुत्थी है, लेकिन इससे बड़ा सवाल यह है कि नया मुख्यमंत्री किस योग्यता के तहत चुना गया है। प्रयोगवादी दल भाजपा ने भले ही भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री के तौर पर चुन लिया हो, लेकिन सरकारी तंत्र की समझ और संगठनात्मक पकड़ उनके सीवी का हिस्सा बिल्कुल नहीं हैं। पहली बार के विधायक को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने एक बड़ा जोखिम उठाया है, जिसका परिणाम शीर्ष नेतृत्व को संभवतः आगामी विधानसभा चुनावों में हमें देखने को मिल सकता है।

भाजपा शीर्ष नेतृत्व एवं क्षेत्रीय नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में एकमत नहीं  

भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व गुजरात के राज्य स्तरीय नेतृत्व को तय करने में पहले भी कई गलतियां कर चुका है, लेकिन गलतियां भी वहीं की जाती है, जहां उन्हें झेलने की गुंजाइश नज़र आती हो। गुजरात नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए एक प्रयोगशाला है, जहां राजनीतिक रूप से कई प्रयोग किए गए हैं। 2016 में आनंदीबेन पटेल को हटाकर विजय रुपाणी को मुख्यमंत्री बनाना और अब रुपाणी को हटाकर लो प्रोफाइल नेता भूपेंद्र पटेल को राज्य की बागडोर सौंपना इस बात को स्पष्ट करता है भाजपा की राज्य सरकार में ठहराव नहीं है। इस तरह शीर्ष नेतृत्व में ठहराव का ना होना, केंद्रीय नेतृत्व की नाकामी को दर्शाता है। ऐसा लगता है जैसे भाजपा को सरकार चलाने के लिए अलग नेता चाहिए और चुनाव जीतने के लिए अलग।

हालांकि, भूपेंद्र पटेल की महज पटेल होने के अलावा उनकी यह एक बड़ी योग्यता रही है कि वे आनंदीबेन पटेल के धड़े से आते हैं। भूपेंद्र पटेल, आनंदीबेन पटेल के कितने खास हैं और इसका अंदाजा दो बातों से लगाया जा सकता है। पहली बात यह है कि जब आनंदीबेन पटेल ने मुख्यमंत्री का पद छोड़ा, तो गांधीनगर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली अपनी सेफ सीट घटलोदिया विधानसभा क्षेत्र से भूपेंद्र पटेल को टिकट दिलाया। दूसरी यह कि भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद उन्होंने आभार व्यक्त करते हुए नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद तीसरा नाम आंनदीबेन पटेल का लिया था।

बीजेपी पर भले ही पटेल मुख्यमंत्री देने का दबाव था, लेकिन मौजूदा विधानसभा में 28 बीजेपी विधायक पटेल ही हैं और सबसे दिलचस्प बात यह है कि विजय रुपाणी के इस्तीफे के बाद जिन नेताओं का नाम मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर उभरा था, वे सभी पटेल समुदाय से आते हैं। इस लिहाज से भूपेंद्र पटेल की सीवी में आनंदीबेन पटेल के ग्रुप का ठप्पा, बड़ा कारगर साबित हुआ है।

हालांकि, दावेदारों में सबसे मज़बूत नाम नितिन पटेल का था, जो चौथी बार मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए। ‘बनते बनते रह जाना’ राजनीतिक गलियारों के उन लोगों की कहानी कहता है, जिन्हें योग्यता के बावजूद कोई योग्य पद नहीं मिलता है, जब नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले एग्जिट पोल जिता रहे थे, तब नितिन पटेल ने कहा था, “जब मोदी जी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे, तो मुझे गुजरात के मुख्यमंत्री का पद ग्रहण करने में खुशी होगी।”

राजनीतिक गुटबाजी और अदूरदर्शिता के कारण अयोग्य व्यक्तियों को पद 

हालांकि, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमित शाह की धुर विरोधी, लेकिन गुजरात में रसूख रखने वाली पाटीदार नेता आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। आंनदीबेन पटेल के जाते ही नितिन पटेल का नाम फिर दावेदारों की सूची में देखा गया, लेकिन बाजी अमित शाह के खास विजय रुपाणी के हाथ लगी। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद भी नितिन पटेल को आस थी कि पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री बनाएगी, लेकिन आलाकमान ने फिर विजय रुपाणी पर विश्वास जताया। वहीं, इस बार तो नितिन के पास कार्यकर्ताओं के बधाई संदेश भी पहुंच चुके थे, लेकिन फिर से वे नरेंद्र मोदी स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स के शिकार हो गए।

 31 साल से लगातार विधायक रहे नितिन पटेल को 2016 में उपमुख्यमंत्री का रबर स्टैंप वाला पद दिया गया था, जिसकी यह गारंटी भी नहीं थी कि वह भूपेंद्र पटेल के मंत्रिमंडल का हिस्सा होगा भी या नहीं। गुजरात में 13 सितंबर को बहुत कुछ वैसा ही देखने को मिला, जो करीब 2 महीने पहले यानी 3 जुलाई को देहरादून के भाजपा मुख्यालय में विधायक दल की बैठक में दिखाई दिया था।

उस समय तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री के पद से हटाकर जब पुष्कर सिंह धामी को राज्य की कमान सौंपी जा रही थी, तो मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज नाराज हो गए थे और जिसके बाद 4 जुलाई को होने वाले शपथ ग्रहण समारोह से पहले सुबह करीब 10 बजे पुष्कर सिंह धामी कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज की नाराजगी दूर करने उनके आवास पर पहुंचे थे, धामी ने महाराज से आशीर्वाद लेकर उनकी नाराजगी दूर की थी। इसके बाद सतपाल महाराज शाम को पुष्कर सिंह धामी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे। इसी तरह हरक सिंह रावत और धन सिंह रावत की नाराजगी की खबरें भी सामने आई थीं।

ऐसा ही कुछ गुजरात गांधीनगर के भाजपा मुख्यालय में भी देखने को मिला, जब 12 सिंतबर की शाम करीब 4 बजे विधायक दल की बैठक में नए सीएम का ऐलान हो रहा था। ढेरों उम्मीदों के साथ उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल आगे बैठे थे, लेकिन पीछे की पंगत में बैठे भूपेंद्र भाई पटेल के नाम का ऐलान हुआ। नितिन पटेल कुछ देर में वहां से अपने विधानसभा क्षेत्र मेहसाणा के एक कार्यक्रम के लिए निकल गए। हालांकि, नितिन पटेल की नाराजगी की गूंज दिल्ली आलाकमान तक भी पहुंची, जिसके बाद उनकी नाराजगी दूर करने के लिए भूपेंद्र पटेल को 13 सितंबर की सुबह नितिन पटेल के घर भेजा गया, जहां नितिन पटेल ने भूपेंद्र पटेल को आशीर्वाद भी दिया।

नितिन पटेल ने भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनने की बधाई देते हुए कहा कि मैं खुश हूँ कि मेरे दोस्त मुख्यमंत्री बने हैं। (फोटो: साभार इंडिया टुडे)

भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में सत्ता और शक्ति पर मोदी और शाह का एकाधिकार  

मोदी-शाह युग की भाजपा में अंदरूनी लोकतंत्र नहीं है। यहां आलाकमान को ही सर्वेसर्वा माना जाता है। इसे इंदिरा की कांग्रेस के बराबर इसलिए नहीं रख सकते, क्योंकि वहां शक्ति का केंद्र एक कोठरी थी, जिसमें सिद्धार्थ रे, भजनलाल, आरके धवन और संजय गांधी समेत कई नेता थे, लेकिन वर्तमान भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही शक्ति और सत्ता के एकमात्र केंद्र हैं।

मोदी-शाह ने उत्तराखंड में भी मनमानी करते हुए त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया, जिनकी संगठन पर पकड़ नहीं थी। भले ही संवैधानिक दांवपेंच का हवाला देते हुए तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया, लेकिन यह जगजाहिर है कि भाजपा के राष्ट्रीय आलाकमान की ओर से नियुक्त किए गए एक मुख्यमंत्री में उपचुनाव जीतने तक का माद्दा नहीं था, जिसके कारण अमित शाह की राजनीतिक सोच पर एक बट्टा लग गया।हालांकि, इसके बाद भी भाजपा ने जोखिम उठाते हुए धामी को मुख्यमंत्री बनाया, जो खुद एक लो प्रोफाइल नेता होने के साथ-साथ पूर्णरूप से अनुभवहीन हैं।

उत्तराखंड और गुजरात की राजनीतिक परिस्थितियां एकदम समान हैं, महज़ उनके किरदार अलग-अलग हैं। किरदारों को कठपुतली बनाने वाले भी समान हैं, बस तमाशा अलग है। हालांकि, जिन किरदारों को साइडलाइन कर किया गया है। उनके लिए नितिन पटेल ने एक बात कही है, जो मन को ठंडक देती है। नितिन पटेल ने कहा, “मैं अकेला नहीं हूं और भी कई सारे हैं जिनकी बस छूट गई है।”

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