बचपन में हमें जो कहानियां पढ़ाई गयी हैं; उनके झोलझाल को समझने में पूरी ज़िन्दगी कन्फ्यूज़ हो गयी है। कबूतर और बहेलिये की कहानी ने हमारे दिमाग़ में भरा कि हमें सबकी मदद करनी चाहिए। तो सारस और केकड़े वाली कहानी ने बताया कि जिसकी मदद करोगे, वही तुम्हें मार डालेगा।
बन्दर और मगरमच्छ की कहानी पढ़कर हम समझ गए कि जिसे हम मीठे जामुन खिलाएंगे, वही दोस्त एक दिन हमारा कलेजा खाने के षड्यंत्र में शामिल होगा। यह सोचकर हम दोस्तों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे तो अध्यापक ने शेर और चूहे की कहानी पढ़ाकर बताया कि इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमें अपने दोस्तों का भला करेंगे तो दोस्त भी हमारा भला करेंगे।
लोमड़ी और सारस की कहानी पढ़कर हमने “जैसे को तैसा” सरीखा महान वाक्य सीख लिया तो साधु और बिच्छू की कहानी ने बताया कि यदि बिच्छू अपनी बुराई नहीं छोड़ रहा तो साधु अपनी अच्छाई क्यों छोड़े।
इन विरोधाभासी कहानियों को पढ़कर जो पीढ़ी तैयार हुई उसके सामने यह मुसीबत हमेशा बनी रही कि वह साधु की तरह बिच्छू के डंक को इग्नोर करके उसे बचाए या फिर लोमड़ी की तरह सुराही का बदला लेने के लिए थाली में खीर परोसकर सारस के सामने रख दे।
हम यह बूझते ही रह जाते हैं कि सूई चुभोने वाले दर्जी पर कीचड़ फेंकने वाला हाथी बनना है या फिर राजा की उंगली कटने पर ‘ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए करता है’ कहने वाला मंत्री बनना है।
हमारे पाठ्यक्रम निर्माताओं ने सम्भवतः यह विचार ही नहीं किया कि वे वास्तव में बच्चों को बताना क्या चाहते हैं। उन्हें यह समझ ही नहीं आया कि लकड़हारे की जिस कहानी से बच्चों को ‘संगठन में शक्ति है’ का पाठ पढ़ा रहे थे, उसी कहानी से कुछ बच्चे ‘फूट डालो शासन करो’ का गुर सीख बैठे।
उन्हें यह भान ही न रहा कुल्हाड़ी और जलपरी वाली जिस कहानी से ईमानदारी की शिक्षा देने निकले थे उसी कहानी का अंत होते-होते वे ईमानदारी के साथ लालच का स्वाद चखा बैठे।
यदि इन कहानियों का व्यक्तित्व के निर्माण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो फिर इन भालू, बन्दर, खरगोश और कछुओं की अनावश्यक गल्प को पढ़ाने में बचपन का क़ीमती समय क्यों नष्ट किया गया? और यदि इन्हीं कहानियों के आधार पर बच्चों का चरित्र निर्माण होता है, तो फिर इनमें इतना विरोधाभास क्यों देखने को मिला? इस विषय को इतना ग़ैर-ज़िम्मेदार रवैये से कैसे देखा जा सकता है?
एक ओर “हार की जीत” जैसी कहानी पढ़ाकर हमें यह बताया गया कि यदि बाबा भारती अपने आचरण को संयत कर लें तो खड़गसिंह जैसे डाकू का भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ़ हमें यह भी बताया गया कि चींटी ने हाथी की सूंड में घुसकर उसके अहंकार को चकनाचूर कर दिया। अब जब भी अपने अहंकार के मद में चूर होकर मेरी सुख-शांति में सेंध लगाता है तो मैं समझ नहीं पाता कि मुझे बाबा भारती जैसा आचरण करना है या फिर उस अहंकारी की सूंड में घुसकर उसे काट लेना है।
इन कहानियों ने हमारी बौद्धिक क्षमताओं को इतना कुंद कर दिया है कि हम सही और ग़लत का विवेक भूलकर कहानी के एक पक्ष को पकड़कर उसके पीछे चल पड़ते हैं।
इन्हीं कहानियों की बदौलत हम एक पूरी पीढ़ी को ऐसे मस्तिष्क की सौगात दे बैठे हैं, जो एक बार जिसे नायक मां ले, फिर उसकी सब बातें उसे सही लगने लगती हैं।
इसी कन्फ्यूज़न की वजह से हमें ‘दीवार’ फ़िल्म में स्मगलर बना अमिताभ जस्टिफाइड लगता है और ‘ज़ंजीर’ फ़िल्म में पुलिसवाला बना अमिताभ जस्टिफाइड लगता है। इसी अविवेक की वजह से हम शहंशाह फ़िल्म में क़ानून अपने हाथ में लेने वाला अमिताभ भी पसंद है और शोले फ़िल्म में गब्बर की सुपारी लेने वाला अमिताभ भी पसंद है।
हम दरअस्ल कहानी को समझते ही नहीं हैं। बल्कि हम तो नायक की पूँछ पकड़कर कथानक और अन्य पात्रों का आकलन करते हैं।
बचपन मे अध्यापक ने जिसकी ओर इंगित करके बता दिया कि यह नायक है, हमने उसके दृष्टिकोण से कहानियों को समझने में बचपन बिता दिया।
डायरेक्टर ने इशारे से जिसको नायक के रूप में प्रस्तुत कर दिया, उसकी नशाखोरी और आपराधिक कृत्यों को भी हमने स्टाइल कहकर जस्टिफाई कर लिया।
राजनीति ने जिसे नायक बनाकर प्रस्तुत कर दिया, उसके षड्यंत्र को भी हमने यह कहकर प्रचारित किया कि देखो अपने विरोधियों को क्या मज़ा चखाया है।
इन नायकों को महान मानने में हमारे देश का नुक़सान हुआ तो हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, हमारे समाज का बेड़ा ग़र्क हुआ तो भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और हमारे चरित्र में अविवेक की दीमक लग गयी तो भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।