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चिंता का सबब – पिछले साल की तुलना में हिमाचल में तेजी घटा है हिम आच्छादित क्षेत्र

हाल ही में जलवायु परिवर्तन केंद्र हिमाचल और अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (इसरो) अहमदाबाद की रिपोर्ट में यह चिंताजनक खुलासा हुआ है कि हिमाचल प्रदेश में लगातार हिम आच्छादित क्षेत्र कम होता जा रहा है। यह पूरे हिमाचल और उतर भारत के लिए चिंता का विषय है क्योंकि हिमाचल और खासकर हिमालय से निकलने वाली नदियों के पानी पर ही उतर भारत की कृषि अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर टिकी हुई है। अगर ऐसा ही हाल रहा तो यह देश की जल सुरक्षा का सवाल भी बन जाएगा।

हिमाचल प्रदेश के ऊंचाई वाले क्षेत्र सर्दियों के मौसम में बर्फ के रूप में ही वर्षा होती है। प्रदेश का एक तिहाई भौगोलिक हिस्सा सर्दियों के मौसम में बर्फ की मोटी चादर से ढ़का रहता है। हिमाचल से बहने वाली चिनाब, ब्यास, पार्वती, बास्पा, स्पिती, रावी, सतलज जैसी नदियां और सहायक नदियां सर्दियों में पड़ने वाली बर्फ पर निर्भर है। यही बर्फ पिघल कर उतर भारत के व्यापक कृषि मैदानों को सींचती है। यही नहीं ये नदियां हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था की जीवनरेखाएं हैं।

अक्टूबर से मई तक की शरद् ऋतु का मूल्यांकन उपरोक्त विभागों द्वारा किया गया है। यह आकलन उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों और डाटा का इस्तेमाल कर किया जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि हिमालय के लिए बर्फ एक जरूरी संसाधन है। बर्फबारी का अध्ययन जल विज्ञान और जलवायु विज्ञान के लिए बेहद आवश्यक है। चिनाब, ब्यास, रावी और सतलज बेसिन में हुई बर्फबारी का अध्ययन करते हुए पाया गया है कि पिछले साल यानी 2018-19 की तुलना में इस साल यानी अक्तुबर 2020-मई 2021 के दौरान बर्फबारी में काफी कमी आई है।

चिनाब बेसिन में पिछले साल की तुलना में औसतन 8.92 प्रतिशत की कमी, ब्यास बेसिन में 18.54 प्रतिशत, रावी बेसिन में 23.16 प्रतिशत, सतलज बेसिन में 23.49 प्रतिशत की कमी आई है। ये कमी बहुत ही गंभीर स्थिति को दर्शाती हैं। 2019-20 में चिनाब बेसिन का बर्फ आच्छादित क्षेत्र 7154.11 वर्ग किलोमीटर था जो कि 2020-21 में 6515.91 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसी प्रकार ब्यास बेसिन 2457.68 से 2002.03 वर्ग किलोमीटर, रावी बेसिन 2108.13 वर्ग किलोमटीर से 1619.82 वर्ग किलोमीटर और सतलज 11823.1 वर्ग किलोमीटर से 9045 वर्ग किलोमीटर रह गया। कुल मिलाकर पूरे हिमाचल में 23542 वर्ग किलोमीटर से घट कर 19183 वर्ग किलोमीटर इलाका बर्फ आच्छादित रह गया।

उपरोक्त अध्ययन दर्शाता है कि बर्फ आच्छादित एरिया में सर्वाधिक कमी सतलज बेसिन में हुई है। जहां पर सीधे तौर पर 2778 वर्ग किलोमीटर का इलाका कम हुआ है। पूरे हिमाचल में 4359 वर्ग किलोमीटर का इलाका कम हुआ है इस में से आधे से अधिक अकेले सतलज बेसिन बर्फीय इलाका कम होना पर्यावरणवादियों के लिए चिंता का विषय है। सतलज नदी यहां की सबसे लंबी नदी है जिसमें बास्पा और स्पिति नदी बेसिन भी आते हैं। अगर पूरे सतलज बेसिन का आकार देखा जाए तो, तिब्बत के हिस्से को भी मिलाकर 22665 वर्ग किलोमीटर बैठता है।

इस पर पर्यावरण अध्ययन समूह हिमधरा के प्रकाश भंडारी चिंतित स्वर में कहते हैं, इसका कोई एक कारण नहीं है, कई कारणों ने मिलकर इस स्थिति का निर्माण किया है और इसका बारीकी से अध्ययन किया जाना चाहिए। असल बात यह है कि अगर ग्लेशियर यूं ही पिघलते रहे तो यह उतर भारत की जल सुरक्षा के लिए खतरा बन जाएंगे। ये ग्लोबल वार्मिंग ही है जिससे वैश्विक स्तर पर जलवायु में बदलाव हो रहे हैं। इसके प्रभावों को घटाने या बढ़ाने में स्थानीय मौसम की भी भूमिका होती है।

अगर हम उच्च हिमालय क्षेत्रों में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं, पर्यटन और अन्य विकास की बड़ी गतिविधियों को नियंत्रित कर सके तो हो सकता है ग्लेशियरों के खत्म होने की दर को कम किया सकता। यह इस लिए भी जरूरी है कि जिस इलाके में यह सब हो रहा है वह भारत के लिए रणनीतिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण इलाका है।

यह चिंता इस बात से भी बढ़ जाती है कि विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट, ‘2021 स्टेट ऑफ क्लाइमेट सर्विसेज़’ के दावे के अनुसार, 20 वर्षों (2002-2021) के दौरान स्थलीय जल संग्रहण में 1 सेमी. प्रति वर्ष की दर से गिरावट दर्ज की गई है। इन क्षेत्रों में भारत भी शामिल है, जहां संग्रहण में कम-से-कम 3 सेमी प्रति वर्ष की दर से गिरावट दर्ज की गई है। कुछ क्षेत्रों में यह गिरावट 4 सेमी. प्रति वर्ष से भी अधिक रही है। डब्ल्यूएमओ के विश्लेषण के अनुसार, भारत ‘स्थलीय जल संग्रह में गिरावट का सबसे बड़ा हॉटस्पॉट’ है। भारत के उत्तरी भाग में सबसे ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है।  मानव विकास के लिए जल एक प्रमुख आधार है। लेकिन पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का केवल 0.5 प्रतिशत ही उपयोग योग्य है और मीठे जल के रूप में उपलब्ध है।

आमतौर पर कहा जा सकता है कि विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा हो रहा है। लेकिन अगर हम विशेष रूप से हिमाचल के आसपास की गतिविधियों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि विकास के नाम पर बनाए गए बड़े बांध, सिमेंट उद्योग, सड़कें व अन्य बड़ी परियोजनाएं इसके लिए साफ तौर पर जिम्मेवार है। ये स्थानीय मौसम को सीधे रूप से प्रभावित करती हैं। इस को समझने के लिए सतलज नदी सही उदाहरण है। सतलूज बेसिन का बर्फ आच्छादित इलाका सर्वाधिक कम हुआ है और पर्यावरण समूहों की अध्ययन रिपोर्टों पाया गया है कि इसी नदी पर सर्वाधिक बांध भी हैं। पूरी सतलज नदी को बांधों में तब्दील कर दिया गया है।

सबसे नीचे भाखड़ा बांध जिसका आकार 168 वर्ग किलोमीटर और भंडारण क्षमता 9.340 घन कि.मी. है। इसके बाद कोल डैम जो सुन्नी तक 42 किलोमीटर तक फैला हुआ है, जिसकी कुल भंडारण क्षमता 90 मिलियन क्यूबिक मीटर है। नाथपा झाखड़ी परियोजना जो कि 27.394 कि.मी. लंबी है। हिडनकोस्ट ऑफ हाईड्रो पावर नामक रिपोर्ट का दावा है कि हिमाचल की कुल जल विद्युत क्षमता 27,436 मेगावाट है और अकेली सतलज नदी की क्षमता 13,322 मेगावाट है। इसी कारण सतलज नदी पर ही ज्यादातर जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित की जा रही हैं। अब तक हिमाचल में 27 जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित हैं और 8 निर्माणाधीन हैं। किन्नौर पूरे देश में जल विद्युत उर्जा का गढ़ बना हुआ है जहां पर 1500 मेगावाट और 1000 मेगावाट के दो बड़ी परियोजनाओं सहित 10 रनिंग ऑफ द् रिवर परियोजनाएं जारी हैं और 30 स्थापित की जानी हैं। ये एक डरावनी तस्वीर पेश करते हैं। यह भी सोचने का विषय है की अगर हिम आवरण क्षेत्र ही नहीं बचेगा तो इन परियोजनों का क्या होगा?

जब बांध बनाते हैं तो भारी मात्रा में पानी जमा होता है। बांध के अंदर बहुत सारे गांव, पेड़ों आदि का मलबा भी समा जाता है। पानी जब ठहरा हुआ होता है तो वह सूर्य से गर्मी प्राप्त कर आस-पास के इलाके में जलवास्पीकरण से धुंध का निर्माण करता और साथ में मिथेन गैस उत्पन्न करता है। मंडी जिला के तत्तापानी में कोल बांध से बनी झील का अनुभव बताता है कि इलाके में भारी मात्रा में धुंध रहने लगी है जो कि पहले नहीं होती थी।

30 और 40 के दशक शिकारी देवी और कमरुनाग को चोटियों पर लगभग 6 महीने तक बर्फ रहती थी जो अब मात्र 2 महीने मुश्किल से रुक पाती । शिकारी देवी और कमरुनाग की वायु मार्ग दूरी तत्तापानी झील से मात्र 26 से 30 किलोमीटर है। वहीं दाड़लाघाट, सुंदरनगर की सिमेंट फैक्टरियों से भी इनकी दूरी अधिक नहीं है। इलाके के बुजुर्गों का कहना है कि धुंध से इलाके में गर्मी बढ़ गई है। धुंध से बनने वाले बादलों से मौसम गर्म होने के चलते बर्फ जल्दी पिघलने लगी है। बुजुर्ग कहते हैं फैक्टरियों और बांधों ने उनके इलाके को बर्बाद कर दिया है। इन बांधों का असर फसलों पर भी पड़ा है।

अगर इसी तरह से बड़े बांध, जल विद्युत परियोजनाएं और कारखानों का विस्तार हिमाचल में होता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब यहां पर भी मैदानों की तरह धरती तपने लगेगी और इस से मौसम परिवर्तन से यहां की कृषि-बागवानी भी बरबाद हो जाएगी। ध्यान देने की बात है जो जल विद्युत परियोजनाएं “ग्रीन एनर्जी” के रूप पेश की जा रही हैं, जबकि यही परियोजनाएं उच्च हिमालय क्षेत्रों में मौसम परिवर्तन के लिए बड़े कारणों में से एक हैं।

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