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देव कन्या ठाकुर ने “देवभूमि हिमाचल” का नकाब उतार दिया है

देव कन्या ठाकुर के कहानी संग्रह मोहरा का बुक कवर

इस किताब की सबसे बड़ी सफलता ये हैं कि इसका विमोचन हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने हाथों से किया था।[1] मुख्यमंत्री ने लेखिका के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि लेखिका ने अपनी कहानियों के माध्यम से पहाड़ी महिलाओं के संघर्षों और मनोदशाओं को चित्रित करने में सफलता प्राप्त की है। उन्होंने कहा कि कहानियां अच्छी तरह से तैयार की गई हैं और भाषा, शैली और स्वर में सरल हैं, और लेखक ने पहाड़ियों में प्रचलित कलात्मक प्रयोग, परंपराओं और रीति-रिवाजों को एक नई ऊंचाई दी है।[2]हालांकि ये मालूम नहीं है कि ये कहानियां जय राम ठाकुर जी ने पढ़ी है या नहीं। अगर पढ़ने के बावजूद उन्होंने इस पुस्तक का विमोचन किया है तो यह हिमाचल के लिए सुखद संदेश भी है। अगर नहीं किया तो उनको और लेखिका को देव समाज के कोप का शिकार भी होना पड़ सकता है। 

देव कन्या की पुस्तक मोहरा का विमोचन करते हिमाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री जय राम ठाकुर, फोटो, http://himachalpr.gov.in/ImageGallery/News/23352.jpg

देव कन्या ठाकुर द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन प्रकाशन संस्थान द्वारा ‘मोहरा’ नाम से प्रकाशित किया गया है। पेज 160 और मूल्य है 300 रुपये। संकलन में नौ कहानियां हैं हेसण, लामा, मोहरा और रिवाज-ए-आम, कहानियां पुहाल, वराहटुधार, छलीट और डाफी  हिमाचल के सामंती समाज की जीती-जागती तस्वीर है और यह तस्वीर हमारे समय की ही तस्वीर है। वहीं इसमें एक कहानी मैं अकेला भी हूं जो संकलन में बिना वजह घुसी हुई सी लगती है।

देव कन्या ठाकुर ने अपनी कहानियों में जो विषय चुना है, उस पर हिमाचल में आम तौर पर चर्चा वर्जित हैं, वर्जित इस रूप में हैं कि अगर आप इस विषय पर खुल कर बोलोगे, रीति-रिवाज के नाम से थोपे जा रहे सामंती मूल्यों के खिलाफ बोलोगे तो इसके नतीजे आपको भुगतने होंगे। आपको समाज से निकाला जा सकता है, आप को सामाजिक बहिष्कार हो सकता है, आप पर बकरों, भेड़ों के रूप में जुर्माना लग सकता है और आपकी हड्डी पसली एक की जा सकती है। मुझे नहीं पता देव कन्या ठाकुर में हिमाचल के देवी-देवताओं के कारदारों, कारकूनों, पुजारियों, गुरों आदि की पोल खोलने की हिम्मत कहां से आई है, लेकिन सच पूछा जाए तो मैं तो समीक्षा लिखते हुए भी घबरा रहा हूं।

अभी तक देवदासी प्रथा के बारे में हम यही सुनते आए थे कि यह दक्षिण भारत के मंदिरों में होती थी जिसमें किसी दलित जाति की कन्या को देवता की सेवा के नाम से मंदिरों में रखा जाता था और पुजारी उसका शारीरिक शोषण करते थे। देवकन्या ठाकुर ने ‘हेसण’ कहानी में बताया है कि कुल्लू की सुंदर वादियों में पता नहीं कितनी देवदासियों को गुर, कारकुन, कारदारों, देउलों और प्रधानों की हवस का शिकार होना पड़ा है। हिमाचल में हेसी नामक जाति है जो गाने-बजाने का कार्य करती है। तमाम मंदिरों में जो देव धुनें बजाते हैं, जिनको बजंतरी कहा जाता है लगभग वह सभी हेसी होते हैं। देवता के साथ नृत्य करने वाली देवता की हेसण कहलाती है। कहानी में भक्ति महादेव की हेसण है, भक्ति की मां भी हेसण थी। भक्ति को जब हेसण बनाया गया तो उसकी उम्र मात्र 16 साल थी। जब उसको महादेव की हेसण बनाया गया तो कारदारों ने कहा – “भक्ति तुम्हारे लिए महादेव ने डोभी गांव की सीमा पर तीन बीघा जमीन दी है। अब इस जमीन पर तुम्हारा अधिकार है।” बहुत बड़े समारोह में देव की हेसण बनाई जाती है, उसको कपड़े, बर्तन, जेवर तरह-तरह के उपहार दिए जाते हैं और सभी उसका ‘सम्मान’ करते हैं। और जमीन के इस टुकड़े के बदले पूरी उम्र के लिए वह महादेव के नाम पर धार्मिक व्यक्तियों की ‘सेवक’ बन जाती है। नई हेसण को उसकी मां यानी पूरानी हेसण सब कुछ जानते हुए भी कहती है कि तुम अब महादेव की हर आज्ञा का पालन करना, जहां महादेव फेरे में जाएं, संगम नहाने जाएं तू भी साथ जाना, तेरे साथ कारदार, देउलू, गूर और पुजारी भी जाएंगे। दरअसल यही महादेव के नाम से सारी आज्ञा जारी करते हैं। हेसण को हर रात किसी न किसी ऐसे व्यक्तियों के घर जाना होता है, जो उसको सेवा के नाम पर ले जाते हैं। उस घर की महिलाएं सब जानते हुए भी उसको रखती हैं क्योंकि ‘ठीक है, यह तो जी रीत है। कारदार का घर तो हेसण का पहला घर है। या हेसण रखना तो हमारी परंपरा है।’ और महादेव का कैलेंडर एक दीवार पर टंगा हुआ, कैलाश पर्वत पर तपस्या में बैठा अपनी बंद आंखों से सब देख रहा था।  

कहानी बताती है कि हेसण को जो उपहार, जमीन, सम्मान मिलता है उसको देख कर उसकी चंद्रा नई हेसण बनने में संकोच नहीं करती। बचपन से ही वह अपनी मां के साथ मेलों, त्यौहारों, अनुष्ठनों में जाती है। वह सीखती है, नाचना, गाना। वह इस जिंदगी को अपनाती है। सब कुछ पता होते हुए भी, नियम, रितीरिवाज के नाम पर, अपशकुन के डर से, देवता के भय से, क्रोध से जो देवता के कारकून, कारिंदे दिखते रहते हैं। भक्ति की मां ने विरोध नहीं किया लेकिन भक्ति ने अपनी बेटी को यह बनने से रोकना चहा, लेकिन एक न चली। न भक्ति की बेटी चंद्रा कुछ करना चाहती है वह तो एक कारदार ऐसा निकला जिसने कहा कि भक्ति की लड़की मेरी बेटी है। यह हेसण नहीं बन सकती क्योंकि अगर उसने लड़की को अपना लिया है तो इसकी जात बदल गई। यहां पर इस परंपरा को शोषित नहीं तोड़ते, वह महिला नहीं तोड़ती, उसके लिए अन्य जाति यानी तथा-कथित ऊंची जाति का व्यक्ति ही उसकी मुक्ति करवाता है।

वहीं “मोहरा” कहानी भी दिल दहला देने वाली है। तीन साल पहले एक घटना घटी थी। यह घटना बंजार घाटी के करथा मेले के दौरान की है। मेले के दौरान वरदान स्वरूप मिलने वाले आशीर्वाद के रूप में नरगिस के फूलों को देव कारिंदों द्वारा भीड़ पर फैंका जाता है जिस व्यक्ति के ऊपर यह नरगिस का फूल गिरता है। उस व्यक्ति को देवता का आशीर्वाद मिला माना जाता है। लेकिन बताया जा रहा है कि करथा मेले में यह नरगिस का फूल एक दलित युवक की गोद में गिर गया जो देव कारिंदों को गवारा नहीं गुजरा। देव कारिंदों ने इस युवक से इस फूल को छीनने और मारने के फरमान सुना दिए।[3] न केवल उसकी पिटाई की गई बल्कि उससे जुर्माना भी वसूला गया। मोहरा कहानी इसकी परतों को उधेड़ती प्रतीत होती है। हिमाचल में सोने, चांदी या कांसे से मिलाकर देवता के मोहरे यानी मुखौटे बनाए जाते हैं। उन मुखौटों को जो कारीगर बनाता है वह दलित होता है। कारीगर अपने बुजुर्गों की परंपरा निभाते हुए, साल भर दिन में केवल एक बार खाना खाकर, पूरी लगन, मेहनत से पुराने मोहरों को गला कर नए मोहरे बनाता है। वह जब तक मोहरे न बन जाए अपने घर बार से दूर रहता है, अपनी पत्नी को नहीं मिल सकता क्योंकि यह देवताओं के नियम है। वह साथ में अपने बेटे को भी ले जाता है। साल भर मंदिर की सराय में मोहरे बनाते हैं, जब मोहरे मंदिर में विधि विधान से स्थापित किए जाते हैं तो उसका भी मान-सम्मान होता है। फिर उसको मंदिर से नीचे उतार दिया जाता है। बेटे को यह पता नहीं, छोटा बच्चा देवता के पास चला जाता है और पुजारी, कारिंदे उसको मार-मार कर अधमरा कर देते हैं। कहानी का पात्र अध मरे बच्चे को लेकर घर पहुंचता है। अब इसमें होना क्या चाहिए था। आम पाठक सोचेगा कि कारीगर ने विरोध किया होगा, समाज एक जुट हुआ होगा, देवता को मानने से इनकार कर दिया होगा, एससी एसटी एक्ट का केस दर्ज करवाया होगा पर ऐसा कुछ नहीं होता….कारीगर अपने खेत की झोपड़ी में अपने को तीन महीने कैद कर लेता है और अपने बच्चे के लिए नए मोहरे बना कर देवता का छोटा रथ तैयार करता है।

कहानियों का प्लाट हिमाचल के लिए बहुत जरूरी विषय है। उन्होंने अपनी काहनियों में अपर हिमालय के जिलों को कवर किया है जिसमें लाहौल स्पिती, किन्नौर, मंडी और शिमाला के क्षेत्र आते हैं। पुहाल कहानी कुल्लु के चरवाहों की मार्मिक कहानी है, और जोगणीफाल जल विद्युत परियोजनाओं के जरिए सरकार, ठेकेदारों, प्रधानों के गिरोह द्वारा हिमाचल के पर्यावरण तबाह करने की कहानी है। इन कहानियों में जो दृश्य उकेरे हैं वह आपके जेहन में खुद जाते हैं। आप को चरवाहे की बंसुरी सच मुच उसको दीवाना बनती है और जोगणियों से लड़की का नाता खुद से जुड़ा लगता है। “वराहटुधार” कहानी आप को महिलाओं को पशुओं के समान समझने की मानसिकता को दर्शाती है। हिमाचल में महिलाओं को महामारी के समय सबसे अपवित्र वस्तु समझा जाता है। उसको पशुओं के बाड़े में पांच दिन के लिए छोड़ दिया जाता है। बीमार होने से भी कोई उसको छूता नहीं और जब वह खून से लथपथ बाड़े में पड़ी रहती है तो उसको कोई हाथ नहीं लगाता और जब वह खाट पर लाद कर हस्पताल ले जा रहे होते हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। जाने कितनी महिलाओं ने ऐसे दम तोड़ा है।

“मैं अकेला कहाँ हूँ” कहानी को संग्रह में नहीं रखा जाता तो बहुत अच्छा होता। यह बेहद लंबी और उबाऊ कहानी है। कहानी की घटनाएं यथार्थ के नजदिक नहीं लगती, चंडीगढ़ पढ़ने जाना, नशे की लत में फंसना, दिल्ली के खंडरों में नशे के गिरोह, फिर अचानक कई सालों के बाद प्लेटफार्म पर भाई को मिलना और फिर दोबारा कुल्लू में आकर उसकी शादी, बच्चे के लिए दूध के लाने के लिए दिए पैसों का नशा… बहुत बनावटी सी कहानी लगी। शायद इस पर ध्यान देकर कोई नाटक लिख देती तो अच्छा रहता। हां नाटक से बात याद आई कहानियों को कसने की बजाए खुला छोड़ दिया है, लंबा कर दिया गया है, बहुत जगह आपस में जो संवाद है वह सिरियल या नाटक की तरह चलते हैं जबकि मुझे लगता है कहानी सुनाई जाती है, वह नाटक नहीं है। संवाद बहुत बार कहानी की अगली घटनाओं से नहीं जुड़ते। कहानी में संवाद बिल्कुल कसे हुए और जरूरी होने चाहिए। कई बार लगा की बहुत सारे संवाद ऐसे हैं जिनके बिना कहानी सुनाई जा सकती थी।

देव कन्या ठाकुर की कहानियों पर केहर सिंह ठाकुर (अभिनेता, नाटककार व रंग निर्देशक ) प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि – इन कहानियों को हिमाचल के लोगों को तो पढ़ना ही चाहिए। क्योंकि यह हमें सोचने के लिए मजबूर कर देतीं हैं की कहीं हम सोचने की शक्ति में पुराने तो नहीं पड़ गये हैं। क्या हम एक ऐसे बोझ को तो नहीं उठा रहे है जो हमारी पीठ पर सदियों से लदता आया है और पीढ़ियों से एक के बाद एक की पीठ पर जड़ता ने लाद दिया है और आज भी हम सवाल नहीं कर रहे हैं कि भाई बोझ तू क्यों है मेरी पीठ पर। अगर मैं ना पूछूँ तो निश्चय ही यह बिना उत्तर दिए मेरे बाद मेरे बेटे की पीठ पर लद जायेगा।

कुल मिलाकर सभी कहानियों में देव कन्या ठाकुर ने हिमाचल की देवभूमि का नकाब उतार दिया है। जल्द ही प्रकाशित होने वाली ‘ह्यूंद’ पत्रिका की संपादिका लिखती हैं कि पहाड़ों और घाटियों को केवल पर्यटक के नजरिये से नहीं देखा जा सकता। यहां के जन मानस के जीवन को वीकेंड की यात्रा से नहीं जाना जा सकता। बहुत कम लेखन ऐसा हुआ है जो यहां के यथार्थ को प्रतिबिंबित करता हो। हिमाचल के लेखक वर्ग को इस चुनौती को स्वीकार करना होगा।

लेखिका देव क्या ठाकुर, फोटो उनकी फेस बुक से

https://www.facebook.com/photo/?fbid=1457537104280876&set=a.149302845104315

लेखिका – देव कन्या ठाकुर

किताब का कवर पेज

[1] http://himachalpr.gov.in/OneNews.aspx?Language=2&ID=23352

[2] https://www.tribuneindia.com/news/himachal/himachal-cm-releases-book-mohra-written-by-dr-dev-kanya-thakur-300926

[3] https://www.bhaskar.com/himachal/hamirpur-city/news/when-the-flower-of-nargis-fell-into-the-lap-of-the-dalit-in-the-kartha-fair-the-crowd-beat-him-020119-3689628.html

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