सवाल तो सभी के मन में होते हैं। सवाल भी कई तरह के। क्या, क्यों, कब, कहां, कैसे, किस लिए आदि जैसे सवाल दिन भर मन में गूंजते ही रहते हैं। कभी जवाब मिल जाते हैं, तो कभी नहीं मिल पाते। सवाल का विषय कुछ भी हो सकता है। ऐसे ही शिक्षक साहित्यकार महेश चंद्र पुनेठा ने, शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था को अपने सवाल करने का विषय चुना। उन्होंने अपने कई सवाल “शिक्षा के सवाल” नामक किताब में पिरोये। साहित्यकार महेश चंद्र पुनेठा, छोटा कश्मीर कहे जाने वाले पिथौरागढ़ के बाशिंदे (निवासी) हैं। आपने राजनीति शास्त्र से M.A. किया और वर्तमान में आप देवलथल के बालिका इंटर कॉलेज में अध्यापक की भूमिका पर हैं। कई नई पहलों की शुरुआत करने का श्रेय आपको जाता है, जिसमें से एक दीवार पत्रिका भी है। चलिए बात करते हैं एक शिक्षक साहित्यकार द्वारा लिखी काफ़ी चर्चित किताब “शिक्षा के सवाल” की।
ये कहना जल्दबाज़ी होगी कि इस किताब में सिर्फ़ सवालों का ही उल्लेख किया गया है। सवाल तो नींव हैं, अगर समझदारी और खुले मन व दिमाग से पढ़ा जाए तो तमाम सवालों के जवाब, या कहें समस्याओं के समाधान इसी में छुपे हुए हैं। महज़ 124 पन्नों की यह किताब न जाने क्या कुछ कह जाती है! जाने क्या कुछ हमारे सामने ला खड़ा कर देती है, और न जाने शिक्षा और शिक्षण से जुड़े कितने भ्रम एक झटके में तोड़ देती है। ऐसा तो होना ही था। आख़िरकार, एक शिक्षक व साहित्यकार की रचना और अनुभवों से हम कुछ कम उम्मीद थोड़ी कर सकते हैं। इस किताब में लेखक के नीजी जीवन से लेकर पेशेवर ज़िंदगी तक के विश्लेषण को गढ़ा गया है। अपने निजी अनुभवों से जोड़ते हुए महेश जी व्यापक स्तर की परेशानियों को पाठक के सामने रखते हैं। अगर पाठक उन परेशानियों को समझने में सफ़ल रहे और अपने स्तर पर समाधान के लिए सहयोग किया, तो ये इस किताब और लेखक की सफ़लता ही होगी।
“सृजनशीलता को प्रेरित करना तथा उसका उद्घाटन करना ही शिक्षा है। यदि शिक्षा ऐसा करने में समर्थ नहीं होती है, तो यह उसकी असफलता है।” महेश जी इन वाक्यों के सहारे अपनी किताब में ना सिर्फ़ शिक्षा को परिभाषित करते हैं, बल्कि साथ ही मौजूदा व्यवस्था को चुनौती भी देते हैं। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली में सृजनशीलता के लिए काफ़ी जगह है? अगर नहीं, तो यह शिक्षा कैसी? पाठ्यक्रम के बोझ तले सृजनशीलता, रचनात्मकता कहीं खो सी गई हैं। बच्चों की दिनचर्या और दिमाग इतनी चीजों से भर गया है कि रचनात्मक कार्य करने का न तो समय है, ना ही समझदारी। आजकल तो यह स्थिति आ गई है की रचनात्मकता तो दूर की बात, पहले पढ़ाई हो जाए वही बहुत है। हां, यह हाल है देश के सरकारी स्कूलों का। एक ओर तो हम समान शिक्षा और अवसरों की बात करते हैं और दूसरी ओर अमीर और गरीब तबके के बीच की गहरी खाई को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। सरकारी स्कूल जिनमें मजदूर, किसान के बच्चे पढ़ने जाते हैं का हाल बदतर है और प्राइवेट स्कूल जहां प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लोगों के बच्चे पढ़ने जाते हैं का हाल तो ठीक है, लेकिन बाज़ार मात्र बनकर रह गए हैं। प्राइवेट स्कूलों में फीस इतनी है कि कम आए वाले लोग अपने बच्चों को वहां पढ़ाना तो दूर, पढ़ाने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते हैं।
अमीर और गरीब के बीच में इतनी बड़ी खाई है, तो हम कैसे समान शिक्षा अवसरों की उम्मीद कर सकते हैं? कहीं गरीब तबके की स्थिति समान रहने का यही कारण तो नहीं? जी, बिल्कुल सही समझे आप। व्यवस्था की ख़ामियां, पहले से ही दो तबकों में असमानता और समान अवसरों का अभाव ही इतना अंतर पैदा कर देता है। ऐसा नहीं है कि इसका कोई समाधान नहीं। मौजूदा व्यवस्था में बदलाव लाने और सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने से, अमीर और गरीब के बीच का यह फ़ासला बहुत हद तक कम किया जा सकता है। वर्तमान में शिक्षा में बदलाव की ज़रूरत है। तभी तो हम कह सकेंगे कि बदलाव के लिए शिक्षा ज़रूरी है। इसी बीच एक बात उभर कर आती है कि आजकल लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने भेजना, अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ़ समझते हैं। यह स्थिति पढ़े-लिखे लोगों में ज़्यादा देखने को मिलती है। शिक्षा, एक इंसान की मानसिकता तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है। अगर शिक्षा, वैज्ञानिक सोच और सही मानसिकता उजागर करने में समर्थ नहीं, तो यह उसकी असफलता है।
इसी किताब के एक भाग में महेश जी कहते हैं कि – “आज भी हमारा समाज तमाम प्रकार की कट्टरताओं, पाखंडों, प्रदर्शनों, अंधविश्वासों, रूढ़िवादिताओं और अवैज्ञानिक मान्यताओं से ग्रसित है।” महेश जी सच ही कहते हैं। अगर ऐसा ना होता तो बिल्ली के रास्ते से गुज़र जाने से, कई लोग अपना रास्ता ना बदल लेते। ना ही हज़ारों महिलाओं या लड़कियों को सामान्य सी जैविक प्रक्रिया, माहवारी के दौरान अलग रहने दिया जाता। और ना ही हज़ारों लोगों को अलग अलग तरह के पाखंडों का सामना करना पड़ता। यही सच्चाई है हमारी समाज की। जाने-माने कवि, सामाजिक कार्यकर्ता व वैज्ञानिक गौहर रज़ा कहते हैं कि – “हमारा समाज ‘Rationality’ या तर्कशीलता खो चुका है।” इसमें कहीं ना कहीं, हमारी शिक्षा प्रणाली भी ज़िम्मेदार है। बच्चा अपने जीवन की काफ़ी सारी चीज़ें अपने स्कूल में ही सीखता है। यह स्कूल की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि बच्चों में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो।
वैज्ञानिक चेतना का विकास करने को कहा है, ना कि उसे जन्म देने को। साहित्यकार महेश पुनेठा के अनुसार -“बच्चे जन्मजात उत्सुक, जिज्ञासु और कल्पनाशील होते हैं।” बच्चों के सवाल सुनने में बड़ा ही मज़ा आता है। उनकी रंगीन काल्पनिक दुनिया वाकई आकर्षक होती है। बच्चे इतने जिज्ञासु होते हैं कि हर बात का उन्हें कारण जानना होता है। कोई भी खिलौना या चीज़ को खोले बगैर उन्हें चैन नहीं पड़ता। बस अपने आसपास की चीज़ों को जानना ही उनका लक्ष्य होता है। उनके अजीबो-गरीब लगने वाले सवाल इस बात का प्रमाण हैं। लेकिन बड़ों द्वारा अक्सर ही बच्चों को सवाल पूछने पर डांट दिया जाता है, जो उनकी पनपती वैज्ञानिक सोच पर बड़ा असर करता है। बड़ों का यह टोकना बच्चों की सवाल पूछने की प्रवृत्ति को भी खत्म कर सकता है। इस किताब को पढ़कर मुझे समझ आया कि वैज्ञानिक सोच सभी के अंदर होती है। बस अंतर यह है कि उसे ख़त्म कर दिया जाता है। ज़रूरत है बचपन से ही इस सोच को बचाए रखने की।
यह बात बिल्कुल सच है कि कोई भी नया या रचनात्मक काम भय या दबाव में नहीं किया जा सकता। भय किसी का भी हो सकता है, शिक्षकों का भी, परिजनों का भी या फ़िर परीक्षाओं का भी। भयमुक्त वातावरण सीखने के लिए सबसे ज़्यादा प्रभावशाली होता है। इसी वातावरण में नए विचार पनपते हैं। अगर बच्चा किसी के भय से पढ़ता है, तो वह पढ़ा हुआ ज़्यादा समय तक याद नहीं रख पाता। शिक्षकों और परिजनों से तो बाद में, पहले बच्चे परीक्षाओं से बहुत ज़्यादा डरते हैं। परीक्षाओं को ही सीखने का आधार मान लिया गया है। जिस बच्चे के परीक्षा में ज़्यादा अंक आ गए, उसे होशियार मान लिया जाता है। शिक्षकों और परिजनों का व्यवहार भी बच्चों के अंको पर आश्रित होता है। बच्चों के अंदर यह भय इतना भयावह है कि, कभी उन्हें अपनी जान लेने पर भी मजबूर कर देता है। सिर्फ़ मासिक या वार्षिक परीक्षाएं ही नहीं, बल्कि न जाने कितनी प्रतियोगिताओं से बच्चों की सूची भरी पड़ी है। इस पर महेश जी कहते हैं कि – “ऐसा प्रतीत होता है जैसे जीवन प्रतियोगिता के लिए ही बना है। बस दौड़ते रहो, कहीं कोई दूसरा आपसे आगे न निकल जाए। साथ-साथ मिलकर आगे बढ़ने की तो कहीं बात ही नहीं।”
चाहे स्कूल हो, घर हो, या फ़िर देश। हर जगह ऐसा मान लिया गया है कि भय से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। ओहदे या उम्र में बड़ा इंसान, अपने से कम ओहदे या उम्र वाले इंसान पर रौब दिखाता ही है। और मज़ेदार बात है कि यह श्रंखला जारी ही रहती है। बच्चों में भय फ़ेल होने का भी है। शिक्षक बच्चों को पास करने के लिए पढ़ाते हैं और बच्चे पास होने के लिए पढ़ते हैं। कुछ नया सीखने के बजाय, स्कूलों में रटंतु प्रणाली प्रचलन में है। नया सीखने और करने की तो बात ही नहीं है। इसी बीच एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित नई पाठ्यपुस्तकें उम्मीद की किरण सी लगती हैं। इनमें बच्चों के लिए कम बोझ है और रचनात्मकता के लिए काफ़ी ज़्यादा स्पेस। साथ ही शिक्षकों के लिए काम ज़्यादा है। एक बात यह भी है कि इन पुस्तकों को पढ़ाना हर किसी शिक्षक के बस में नहीं है। वहीं शिक्षक प्रभावशाली ढंग से पढ़ा सकते हैं, जो वर्तमान परिदृश्य से किताबों में लिखी बातों को जोड़ सकें।
एक शिक्षक को बहुआयामी होना चाहिए। पाठ्यपुस्तक से पढ़ाना ही काफ़ी नहीं है। शिक्षण के दौरान छात्रों में आई गलत आदतों का विश्लेषण कर, उनका हल खोजना भी शिक्षक की ही ज़िम्मेदारी है। सामाजिक धारणा से बिल्कुल उलट, शिक्षक साहित्यकार महेश पुनेठा कहते हैं कि – “प्रेम और आज़ादी प्रदान कर, हम बच्चे को अपराध करने से रोक सकते हैं।” लेकिन हमारे समाज में तो बच्चों के बिगड़ने और गलत राह में जाने का कारण, ज़्यादा लाड और आज़ादी को ठहराया जाता है। यह विरोधाभास वाकई चिंतनीय है। महेश जी का मानना है कि बच्चा गलत काम तभी करता है जब वह किसी दबाव, परेशानी, या गुस्से में होता है। बच्चे की स्थिति के कारक माता-पिता, शिक्षक या फ़िर साथी हो सकते हैं। किसी बच्चे के गलत राह में जाने का दोषी सिर्फ़ उसे ही नहीं ठहराया जा सकता। किसी भी व्यक्ति की क्रियाएं उसके आसपास के सामाजिक वातावरण पर निर्भर करती हैं। जरूरत है तो उससे बात करने की और सामाजिक वातावरण में उचित बदलाव लाने की।
इस किताब में लेखक अपने जीवन के कुछ ख़ास लम्हों को भी समेट लेते हैं। महेश जी के जीवन प्रसंग इस किताब में मानो जान ही डाल देते हैं। मुझे सबसे अच्छी बात लगी कि महेश जी ने इस किताब में अपने असफल प्रयास को भी शामिल किया है। मुझे लगता है कि अपनी असफ़लता को स्वीकार करना ही सबसे बड़ी बात है। इसी से प्रेरणा लेकर हम आगे बेहतर कर सकते हैं। मुझे इससे एक बात समझ आई कि नई शुरुआत करने में हमेशा आसानी नहीं होती। ज़रूरी नहीं कि लोग हमेशा आपकी नई पहल में आपका साथ दें।
वर्तमान समय में चारों ओर अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है। ऐसा मान लिया गया है कि अंग्रेज़ी नहीं आती तो आप पिछड़े हैं। महज़ एक भाषा प्रतिष्ठा का सवाल बन गई है। स्कूल भी इसकी जकड़ से नहीं बच पाए हैं। कुछ बचे भी हैं तो वहाँ केवल हिन्दी ही प्रचलन में है। यही कारण है कि बच्चे अपने परिवेश की भाषा से काफ़ी दूर होते जा रहे हैं। यह बात जितनी छोटी दिखती है, उतनी है नहीं। संस्कृति से दूर होने का पहला चरण भाषा से अलग होना है। बच्चा जब अपनी परिवेशीय भाषा को छोड़कर दूसरी भाषा में अध्ययन करता है, तो ख़ुद को बहुत असहज पाता है। उसे बाकियों के सामने बोलने में झिझक होती है। इस कारण कहीं ना कहीं वह अपने बाकी साथियों के मुकाबले, सीखने की प्रक्रिया में पीछे रह जाता है। इन सभी कारणों के बलबूते पर महेश जी का मानना है कि शिक्षण का माध्यम परिवेश की भाषा ही होनी चाहिए।
एक शिक्षक होने के नाते महेश जी मानते हैं कि अपने शिक्षण अनुभवों को दर्ज करना भी एक ज़िम्मेदारी है। ऐसा करने से बाकी शिक्षकों को भी उनके अनुभवों से शिक्षण की एक नई दिशा मिलती है। जैसे कि हमारे शिक्षकों को हमारी स्कूल में भी दीवार पत्रिका निकालने की प्रेरणा साहित्यकार महेश पुनेठा से मिली। ख़ैर सीखना-सिखाना तो चलता ही रहता है। 6 दीवार पत्रिकाएं और 3 अखबार निकालने के बाद मुझे एहसास हुआ कि सिर्फ़ मुझमें ही नहीं, बल्कि बाकी साथियों में भी भाषाई दक्षता का विकास हुआ है। मुझे याद है जब हमने इस नई पहल की शुरुआत की थी और जब आख़िरी बार हमने दीवार पत्रिका प्रकाशित की, दोनों के लेखों में बहुत ज़्यादा अंतर था। इस दौरान भाषा में सभी की पकड़ अच्छी हुई और सभी ने अपने विचार व्यक्त करने और उन्हें लिखने के नए-नए तरीके भी सीख लिए थे। सभी के मन में हमारे अखबार The Explorer को लेकर उत्साह हुबहू ही था।
साहित्यकार महेश पुनेठा यात्राओं, पढ़ने की संस्कृति और बाल कार्यशालाओं को बच्चों में सर्जनशीलता के विकास में अहम कारक मानते हैं। मुझे भी लगता है कि यात्राओं से इंसान से सीखता है वह किसी और से नहीं। जब हम किताबों में पढी बातों को साक्षात अपनी आंखों के सामने देखते हैं, तो वह बातें बेहतर समझ भी आती हैं और लंबे समय तक याद भी रहती हैं। यात्राएं शिक्षकों के लिए भी बेहद ही ज़रूरी हैं। उन यात्रा अनुभवों को जब शिक्षक अपने शिक्षार्थियों को समझाते हैं, तो उन्हें भी सुनने में मज़ा आता है। यूं ही मज़े-मज़े में वे बहुत कुछ सीख लेते हैं। बात रही पढ़ने की संस्कृति और बाल कार्यशालाओं की, तो यह भी सीखने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करती हैं। नई चीज़ें पढ़ना तो वाकई मज़ेदार होता है और बहुत कुछ सिखाने वाला भी। कार्यशाला का हिस्सा मैं भी रही हूं, तो विश्वास के साथ कह सकती हूं कि जो हम क्लास में नहीं सीख सकते वह कार्यशाला में सीखते हैं।
वाकई यह किताब बहुत कुछ सिखाने वाली थी। कभी इसने भावुक भी कर दिया। वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले जी की कविता “थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे” का उल्लेख भी इस किताब में किया गया है। मुझे लगता है यह किताब तो सबको पढ़नी ही चाहिए, लेकिन साथ ही यह कविता भी ज़रूर पढ़नी चाहिए। मैं इस कविता के बारे में बहुत कुछ बताना नहीं चाहूंगी, लेकिन मुझे लगता है कि इसे पढ़ने के बाद शायद बहुत लोगों में संवेदनाएं जाग जाएं। आख़िर में मैं बस यही कहना चाहूंगी कि सवाल करते रहें, जवाब मिलने की चिंता ना करें। जवाब तो आप खुद भी ढूंढ सकते हैं, लेकिन सवाल करना ज़्यादा ज़रूरी है।
(रिया नानकमत्ता, उत्तराखंड की निवासी हैं। अभी नानकमत्ता पब्लिक स्कूल की कक्षा 11वीं में मानविकी की लर्नर हैं। रिया को लिखना, किताबें पढ़ना, लोगों से मिलना बातें करना, अपने आसपास की चीज़ों को एक्सप्लोर करना और बोलना बहुत पसंद है। वह अपने स्कूल की पत्रिका “The Explorer” की संपादक भी रह चुकी हैं और सामुदायिक लाइब्रेरी अभियान से जुड़ी हैं। रिया से दी गई ईमेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है – riyachand1118@gmail.com)