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फ़िल्म के माध्यम से घटनाओ को सत्य दिखाया जा रहा है अथवा स्तय बनाया जा रहा है?

नोट: अगर प्रकाशित करना है तो भगत सिंह का पैरा जरूर होना चाहिये, मेरे सवाल जायज है और इसे भी उसी चश्मा से नही देखना चाहिये जो चश्मा सरकार बनाती है.
 
वही आज भारत की हिंदी फिल्म में सत्य घटनाओ पर बनने वाली फिल्मों की भरमार लगी हुई है और ये कही ना कही ये सरहानीय भी है लेकिन स्तय घटना वही है जो की भारतीय सरकारी व्यवस्था के गले उतरती हो, मसलन सरकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसी भी सत्य घटना को प्रकाशित करना बहुत मुश्किल है या नामुमकिन है, स्तय घटनाओ में नो one किल्ड जसिका, स्पेशल 26, भाग मिल्खा भाग, पान सिंह तोमर, दंगल इत्यादि फिल्मे एक निजी किरदार ओर उसके आस पास घूमती है वही फ़िल्म जैसे की परमाणु, रुस्तम कही ना कहीं देश भक्ति की बुनियाद पर सत्य घटनाओ को फ़िल्म के पर्दे पर लाने की कोशिश है लेकिन फ़िल्म ब्लैक फ्राइडे, बाबरी मस्जिद के बाद मुंबई में हुए बंब धमाको पर बनी हुई है, फ़िल्म बहुत सरहानीय है लेकिन ये फ़िल्म बाबरी मस्जिद को शहीद किये जाने के कारणों को दिखाने में कही भी कोई रूचि नही रखती.
 
अब स्तय घटना ओर उसके स्रोत क्या होंगे ? मसलन अगर आज से अगर 100 साल बाद आज हो रही स्तय घटनाओ को प्रमाणित करना होगा तो अमूमन कोई व्यक्ति तो जीवित नही होगा जो की आज की हो रही घटनाओं को बयान कर सके, ऐसे में अखबार की सृखिया, खबर दे रहे टीवी चैनल की क्लिप्स, घटनाओ पर लिखी गई किताब अमूमन यही जानकारी के स्रोत होंगे तो क्या भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह पर बनी फिल्म the एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर क्या जानकारी का स्रोत होगी ? अगर वास्तव में ये कहना हो की क्या ये फ़िल्म ही इसलिये बनाई गई है की आने वाली पीढ़ी भारतीय इतिहास में श्री मनमोहन सिंह को इसी तरह देखे जिस तरह फ़िल्म में दिखाया गया है. तो यँहा ये बहुत बड़ा सवाल है की क्यो ? 
 
लेकिन क्या मनमोहन सिंह सिख समुदाय से है, केशधारी, पगड़ी पहनेवाले एक आम पारिवारिक व्यक्ति है जंहा उनकी पत्नी भी यही मांग सार्वजनिक रखती है की रसोई गैस की कीमतों में इज़ाफ़ा नही होना चाहिये. तो क्या भारतीय समाज में पूर्ण रूप से अपना दबदबा रखने वाले हिंदू उच्च जातीय समाज को इस बात की चिंता थी की एक ईमानदार दोषमुक्त व्यक्ति अगर भारत का प्रधानमंत्री बनता है वह भी लगातार 10 साल, वह एक सिख समुदाय से है, अल्पसंख्यक है, तो क्या मनमोहन सिंह के रूप में सिख समुदाय की भारतीय समाज में बढ़ रही शाख से चिंतित था और इसी वजह से सरदार मनमोहन सिंह को कमजोर, उस समय की कांग्रेस अध्य्क्ष श्रीमती सोनिया गांधी के अधीन बताने में लगा हुआ था. मसलन स्तय को प्रमाणित तब ही किया जा सकता है जब ये भारतीय व्यवस्था में दबदबा रखती बहुसंख्यक हिंदू सवर्ण समाज को प्रमाणित होता हो.
 
जब 2004 में सरदार मनमोहन सिंह को भारतीय प्रधानमंत्री बनाने के लिये कांग्रेस के साथ साथ सभी सहयोगी दल राजी हो गये तब मुझे मेरे जानकार एक हिंदू मित्र ने फोन पर एक संदेश भेजा था की भारत की आबादी 80% से ज्यादा हिंदू है लेकिन भारत का राष्ट्रपति एक मुसलमान है डॉ अब्दुल कलाम के रूप में, प्रधानमंत्री सिख है सरदार मनमोहन सिंह के रूप में ओर कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के रूप में एक ईसाई है, मुझे उस समय ये एक आम message लगा लेकिन अब ये पता चल रहा है की वह message बहुसंख्यक समाज की पीड़ा थी की  भारतीय व्यवस्था में सभी मुख्य पदों पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग विराजित है. लेकिन फिर सविधान ओर लोकतंत्र के क्या मायने है ? क्या ये खोखला है ? शायद नही क्योकि अल्पसंख्यक समुदाय सरदार मनमोहन सिंह, श्री अब्दुल कलाम ओर श्रीमती सोनिया गांधी के रूप में मौजूद थीं लेकिन वोट की राजनीति में ये कही भी लोकप्रिय नही थे, मसलन वोट के आधार पर सविधान द्वारा बनाई गई व्यवस्था पर प्रहार किया जा सकता है? ये एक बड़ा सवाल है.
 
लेकिन जिस तर्ज पर किताब, ख़बर ओर फ़िल्म के माध्यम से सरदार मनमोहन सिंह की छवि को धुँधलित किया जा रहा है क्या इसी तर्ज पर सरदार भगत सिंह को किया गया था ? मात्र 23 साल की सरदार भगत सिंह भारत के हर प्रांत सबसे ज्यादा लोकप्रीय था फिर वह प्रांत हिंदी बोलने वाला हो अथवा बंगाली, तमिल इत्यादि कोई भी भाषा हो. लेकिन अगर सरदार भगत सिंह अगर एक सिख के रूप में प्रचालित हो जाता तो यँहा भी इस समय सिख समुदाय की शाख बहुत बढ़ जाती लेकिन ऐसा ना हो इसलिये पूरा जोर इस बात पर लगाया गया की भगत सिंह नास्तिक था, सरदार भगत सिंह क्या बोलता था ? क्या लिखता था ? और किन सिद्धातों के लिए लड़ता था वह सब धुंधला कर दिया गया और सरदार भगत सिंह नास्तिक था इसी बात को सब से ज्यादा प्रचलित किया गया लेकिन यही समीकरण आज़ाद चंद्र शेखर के रूप में नही था. शहीदों की विचारधारा और सिद्धातों पर में इस बात को तर्ज नही देना चाहता वह कोंन ओर क्या थे लेकिन मेरा तातपर्य सिर्फ और सिर्फ इसी से है की स्तय को बताने से ज्यादा बनाया जा रहा है और ये काम रितिगत रूप से सदियों से हो रहा है जंहा बहुसंख्यक हिंदू समाज का स्वर्ण समुदाय ही इसी का लाभार्थी रहा है. तो क्या भारतीय हिंदी फिल्म सरदार मनमोहन सिंह और सरदार भगत सिंह को ईमानदारी के साथ दिखा पाएगी? कोशिश भी करेगी ? अगर साफ साफ शब्दों में कहा जाए तो क्या इसे ऐसा करने दिया जाएगा?
 
वही अगर टीवी क्लिप्स की बात करें तो नोटबंदी पर जो टीवी चैनल नोट के अंदर लगने वाली चिप के बारे में बता रहा था वह प्रमाण सही माना जायेगा ? लखीमपुर पर किसानों पर जीप चढ़ा ये जाने वाली वीडियो के पहले जो किसान को ही हत्यारा बता रहा था क्या ये सच माना जाएगा ? या उन सुर्खियों को माना जायेगा जो अखबार में छप रही थी और किसानो को ही उग्रवादी कह रही थी? क्या ये कोई जानने की कोशिश करेगा कि मारे गये किसानों के बेटे, भाई, रिश्तेदार भारतीय समाज और देश की सेवा में कहा कहा कार्यरत है, कोई फ़ौज में भी होगा, सरहद पर भी खड़ा होगा तो क्या इन्हें उग्रवाद कहना स्तय है या इसे ही झूठ साबित करने के लिये प्रमाण देने होंगे.
 
ओर अगर सरकार ईमानदारी से घटनाओ के प्रमाण स्वरूप अपने दस्तावेज अगर जनहित में जारी करती जिसकी संभावना बहुत कम प्रतीति होती है जैसे की 1984 में भारत सरकार के पास ऐसी क्या जानकारी थी और दस्तावेज थे जिस के लिये भारत सरकार आपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम देती है जंहा आतंकवाद के नाम पर भारतीय हथियार बंद फ़ौज सिख धर्म के पवित्र स्थान श्री हरमंदिर साहिब पर हमला करने की क्या जरूरत ही गई थी? क्या यँहा भी सरकार के रूप में भारतीय व्यवस्था में मौजूद बहुसंख्यक समाज के सर्वं जाती के लाभकारी समुदाय के अभिमान की बात थी जंहा एक राज्य केंद्र को चुनोती दे रहा था. जंहा राज्य और केंद्र अपने अधिकारों के लिये एक दूसरे को चुनोती दे रहे थे, जंहा केंद्र व्यवस्था के सभी ताकतवर पहलुयों पर अपनी पकड़ मजबूत रखता था वही केंद्र में बहुसंख्यक समाज था ओर पंजाब के रूप में एक अल्पसंख्यक समाज सिख था. लेकिन इसे एक आतंकवाद का नाम दिया गया ओर यही अखबार की सुर्खियां थी, टीवी पर खबर थी और किताबो की सुर्ख स्याही थी तो क्या कभी 1984, 2002, ब्लूस्टार आपरेशन, बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किये जाना,राम मंदिर आंदोलन, इन सभी को सत्य घटना के रूप में भारतीय हिंदी दिखाने में सक्षम होगी , मुझे व्यक्तिगत रूप से उम्मीद कम ही लग रही है. अंत में,वीर सावरकर को समझना जरूरी है ये साबित हो चुका है की सावरकर ने काले पानी की सजा से अंग्रेज हकूमत को माफ़ीनामा लिखा था फ़िर भी उन्हें वीर की उपाधि दी जाती है शायद इसका कारण उनका हिंदू सवर्ण होना ही है.
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