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१९८४ के जख़्म को एक मलहम २००८ में लगाई गयी, इस से बड़ी मिसाल इनसानियत की क्या हो सकती हैं ?

तारीख, ३१ जुलाई १९८५, वैस्ट देल्ही में एक आम सा दिन था, यहाँ साउथ देल्ही से सांसद, ललित माकन अपने परिवार के साथ रहते थे, इसमें उनकी पत्नी गीतांजलि माकन जो की भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा की बेटी थी और इन दोनों की बेटी अवंतिका माकन, उस समय ६ वर्ष की होगी और उन्होने बस अभी अपना सुबह का नाश्ता ही खाया था,बाहर तीन हथियारे ललित माकन की ताक में बैठे थे. सुबह का वक्त होगा, ललित माकन, जैसे ही अपने घर से बाहर कार पार्किंग की और चल रहे थे, , इतने में हथियारों ने ललित माकन पर हमला बोल दिया, बंदूक की गोलियों की आवाज़ आने लगी, ये कुछ दिवाली के फटाको की तरह ही थी लेकिन दिवाली अभी ३ महीने के बाद थी. ललित माकन को बचाने गयी,उनकी पत्नी गीतांजलि माकन भी इन गोलियों की चपेट में आ गयी और साथ ही में एक राहगीर बालकृष्ण को भी इन गोलियों ने छलनी कर दिया. इन तीनों की मोत उसी दिन हो गयी थी. लेकिन, इसका सिलसिला कही २००८ में एक इनसानियत की पहल पर ख़तम हुआ और जिसने मुझे मजबूर कर दिया, की लब्जो के भीतर हो कर ये जज्बात में आप से सांझा करू, इन तीन हथियारों की पहचान हरजिंदर सिंह जिन्दा, सुखदेव सिंह सुखा और रंजित सिंह गिल उर्फ कुकी के रूप में हुई थी. १९८४ के सिख विरोधी दंगे में, जिसने सिर्फ देल्ही में ३ दिनों के भीतर ३००० सीख की निर्मम हत्या कर दी थी, उसी के क़सूरवार के रूप में ललित माकन की हत्या की गयी थी. लेकिन आज भी उनकी बेटी अवंतिका, अपने पिता को बेगुनाह मानती हैं. उनका मानना हैं की उनके पिता ललित माकन एक धर्म निरपेक्ष इंसान थे और उनपर राजनीति के तहत इस तरह के इल्जाम लगे थे. आगे चलकर, जिंदा और सुखा ने पूना में १९८४ के समय के आर्मी जनरल अरुण श्रीधर वैद्य की हत्या की और इसी जुर्म में उन्हें फाँसी की सजा हुई, जिसे ०९ अक्टूबर १९९२ को पूना की जेल में अंजाम दिया गया. लेकिन अभी, एक क़ातिल रंजित सिंह कुकी पुलिस की गिरफ्त से बाहर था. थोड़ा सा, यहाँ रंजित सिंह गिल कुकी के बारे में जानना जरूरी हैं. रंजित सिंह, डॉ. खेम सिंह गिल के बेटे हैं जो की पंजाब ऐग्रिकल्चरल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे. इनका पूरा परिवार शिक्षित था, सिख था और इस परिवार का मान – सम्मान पूरे सिख और पंजाबी समाज में सत्कार के साथ था. २४ वर्ष की आयु में रंजित सिंह पीऐयु से मास्टर डिग्री कर रहे थे, बस कुछ ही समय में अपनी खोज के थीसिस ये जमा करवाने वाले थे, उस समय इनके पास अपनी आगे की खोज के लिये केंसास स्टेट, अमेरिका की फ़ेलोशिप थी और ये कुछ ही समय में यहाँजाने का तय भी कर चुके थे. लेकिन इसी बीच भारतीय सरकार के ब्लू स्टार ऑपरेशन ने, श्री अमृतसर के श्री अकाल तख़्त को धारासाही कर दिया था, ये स्थान सिख समुदाय के लिये धार्मिक रूप से सर्वोच्च हैं और इस पर किया गया हमला कही ना कही एक सिख अपने ऊपर किये गये हमले के रूप में देख रहा था, जज्बात घायल थे तो विद्रोह तो होना ही था. इस मंजर को रंजित सिंह ने भी अपनी आख से देखा और किताब को छोड़कर बंदूक को हाथ में थाम लिया. यहाँ ये लिखना जरूरी हैं, की रंजित सिंह कभी भी अपनी जिंदगी में संत भिंडरावाला से नहीं मिले थे और ना ही उनके प्रभाव में आकर बंदूक को उठाया था. भारतीय सरकार द्वारा अमृतसर में किया गया ये विध्वंस मंजर ने एक कलम पकड़ने वाले इंसान के हाथ में बंदूक थमा दी थी. ललित माकन की हत्या के पश्चात रंजित सिंह अमेरिका चले गये, लेकिन भारतीय सरकार की गुप्तचर संस्था ने इनकी खोज कर, इसकी जानकारी अमेरिकी सरकार से साँझा की. इसी के तहत रंजित सिंह ने, १७ साल न्यू यॉर्क में कठिन कारग्रह में कैदी के रूप में रखा गया, ये इतनी सख्त सजा थी की जेल के सैल में किसी भी प्रकार से कोई सूरज की रोशनी नामोजुद थी, १७ साल कैद वह भी अंधेर में, यहाँ जिन्दा रहना ही मुश्किल हैं. और २००० में जब, रंजित सिंह ने अपने प्रत्यार्पण को चुनौती नहीं दी तब उन्हें अमरीका की सरकार ने भारत को प्रत्यार्पण कर दिया. और इन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया, २००३ में इनकी माँ की तबीयत नाजुक होने से इन्हें पैरोल पर रिहा किया गया. कुछ ही समय में, इनकी माँ की मोत हो गयी साल २००९ के शरुआत में इन्होने फिर खुद को देल्ही पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन इनकी तह उम्र जेल की सजा को, २००९ में उस समय की देल्ही की मुख्यमंत्री श्री शीला दीक्षित ने माफ़ कर दिया और अब ये एक आजाद इंसान थे. लेकिन, इस माफ़ की गयी सजा में अवंतिका माकन की मंजूरी थी, साल २००८ के भीतर कुछ ऐसे लोगो की वजह से जो व्यक्तिगत रूप से रंजिंत सिंह और अवंतिका को भी जानते थे, देल्ही के एक सार्वजनिक स्थान पर इन दोनों के बीच मुलाकात हुयी और बाद में अवंतिका की मुलाकात रंजित सिंह के पिता और बाकी परिवार के सदस्यों से भी हुई. और यहाँ इसी के तहत, अवंतिका ने रंजित सिंह की रिहाई काविरोध ना करने का फैसला किया. उनका ये मानना था की वह अपने परिवार को तो ना बचा सकी लेकिन इस परिवार को ज़रुर रंजित सिंह के रूप में खुसिया दे सकती हैं. इस निर्णय, की जितनी भी तारीफ़ की जाये उतनी कम हैं, खासकर ६ साल की बच्ची ने अपने माँ-बाप को अपने सामने मरते हुये देखा था. इसी समय दौरान रंजिंत सिंह जेल में था लेकिन अवंतिका भी एक अनाथ के रूप में जीवन को बसर कर रही थी, वह किस पीड़ा और मानसिक दुःख से होकर गूजरी होगी, इसे हम सभी भली भाती समझ सकते हैं. साल १९८४ का ब्लू स्टार ऑपरेशन और उसके बाद हुये सिख विरोधी दंगे ने, सिख समुदाय को अलग थलग कर दिया था,इस जज्बात की लोह में कई जिंदगीया रोशन ना हो सकी, एक उज्जवल भविष्य की उम्मीद में जो नजरे थी वह अचानक से ही विद्रोह को  देखने लगी. यहाँ, रंजित सिंह गिल उर्फ़ कुकी या अवंतिका, ये दोनों उसी समय के  पीड़ित थे ना की गुनहगार लेकिन जिस इनसानियत का परिचय अवंतिका ने रंजिंत सिंह को माफ़ करके दिया हैं, उसने कही ना कही १९८४ के सिख जख्मो को मलहम लगाने का काम किया हैं. आज ये दोनों अपनी निजी जिंदगी में आगे बड़ रहे हैं, आज फिर रंजिंत सिंह एक आम इंसान की तरह लुधियाना में जीवन बसर कर रहे हैं और अवंतिका अपने निजी जीवन में देल्ही में रह रही हैं. इस तरह के इंसानी जज्बात ही किसी भी तरह के विद्रोह को या आतंकवाद को रोक सकते हैं, मुझे उम्मीद हैं की इस तरह के उदाहरण  समाज के अलग अलग वर्गों में देखे जा सकते हैं और यही हमें फिर से इनसानियत में विश्वास करने को प्रेरित करता हैं, धन्यवाद.

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