यह जल जंगल ज़मीन की लड़ाई है,
यह हंसुआ और मशीन की लड़ाई है,
यह ‘स्व’ से ‘स्व’ का अंतर्द्वंद है,
यह धरती के हर टुकड़े का स्वाभिमानी छंद है,
यह तुमसे है तुम्हारे लिए ही, तुमको ही ले जाना है इसको पार,
केंचुआ, बारिश, धूप और सर्दी,
सब हैं तुम्हारे ही परिवार,
कोई और नहीं लड़ सकता इसको अब तुम्हारे सिवा,
तुम ही हो इसके हकदार, तुम ही हो इसके मझधार,
सुनो किसान,
ये तुम्हें बचाने का कोई काव्यात्मक प्रयास नहीं है,
सुनो किसान,
तुम्हारा मर जाना अच्छा है,
सुनो किसान,
अब उठ जाओ,
सुनो किसान अब जान लगा दो, फिर मर जाओ,
या जी जाओ, और ले लो सब लड़कर जो अपना है,
सुनो किसान पूरा करलो अब वो अपना सपना,
उस हक के लिए, जो तुम्हारा है,
इस जु़लमती दौर के के आगे जो एक उजियारा है।
सुनो किसान,
कि यह दौर न वापस आएगा,
सुनो किसान,
कि सब कुछ फिर वैसा नहीं रह जायेगा,
कि जितनी दुखियारी ये शाम है,
उससे कहीं खूबसूरत कल सुबह होगी,
या तो यूं होगा कि सब अंधकारमय होगा,
या फिर यूं होगा कि फतेह होगी।
सुनो किसान,
कि ये आखिरी वक्त है कि प्रयास करो,
कि इसके बाद कोई कवि न कुछ तुमसे कह पाए।
सुनो किसान,
तुम बंजर को आबाद करो,
कि आने वाली नस्ल भी तुम्हारी तरह लहलहाए।
सुनो किसान,
तुम्हें अभी जीना होगा, लड़ना होगा, मरना होगा,
कि आने वाले वक्त में कोई कवि तुम्हारे हक के लिए न लड़ पाए,
कि तुम्हें खुद को इतना बुलंद करना होगा कि यह समाज बस छंदमुक्त हो जाए।
सुनो किसान,
प्रयास करो।
सुनो किसान ,
विश्वास करो।
(किसान जन आंदोलन के सम्बोधन में)